मेरी बात

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गत् सप्ताह 19 फरवरी के दिन कांग्रेस के पूर्व नेता और धर्मगुरु आचार्य प्रमोद कृष्णम के निजी कार्यक्रम में शामिल होने उत्तर प्रदेश के संभल जनपद गए थे। स्वभाविक है प्रधानमंत्री के आगमन चलते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी वहां मौजूद थे। प्रियंका गांधी के करीबी कहलाए जाने वाले प्रमोद कृष्णम कुछ अर्सा पहले तक भाजपा के, विशेष रूप से प्रधानमंत्री के कटु आलोचक हुआ करते थे। आचार्य जी मेरे मित्र हैं। कई मर्तबा इस समाचार पत्र के नोएडा स्थित कार्यालय में वे भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे पर अपना विक्षोभ व्यक्त करते और देश की गंगा-जमुनी संस्कृति के रसातल पर जाने पर अपनी गंभीर चिंता जताते हुए कहते थे कि चाहे जो भी हो जाए वे कभी भी कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ेंगे। कलयुग की लेकिन यही तो विशेषता है। कथनी और करनी में धरती-पाताल का फर्क इस युग की पहचान है। ऐसे में बेचारे प्रमोद कृष्णम भी यदि बहती गंगा में हाथ धोने के लिए आकुल-आतुर और व्याकुल हो गए तो इसमें आश्चर्य कैसा? बहरहाल अभी मुद्दा आचार्य प्रमोद कृष्णम के हृदय परिवर्तन का नहीं है। हृदय परिवर्तन यूं भी इस दौर में कब, किसका, किन कारणों के चलते हो जाए, कहा नहीं जा सकता। वैसे यह विचारणीय जरूर है कि आखिर यह परिवर्तन पूरी तरह से एकतरफा क्योंकर है? हरेक जो दशकों से खुद को धर्मनिरपेक्ष कहता आया यकायक ही क्योंकर दक्षिणपंथी होने के लिए लालायित हो चला है। फिर चाहे वह कभी राहुल गांधी के करीबी रहे असमी नेता हेमंत बिस्वा शर्मा हों, आरिफ मोहम्मद खान हों, मिलिंद देवड़ा हो, माधव राव सिंधिया हों या फिर आचार्य प्रमोद कृष्णम हों, सभी दक्षिणपंथ के घोर आलोचक हुआ करते थे। 2014 के बाद इनके और इनके जैसे बहुत सारे अन्यों के विचारों में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया और सभी एक-एक कर दक्षिण पंथ की राह पर चल पड़े। आचार्य प्रमोद कृष्णम कल्कि पीठ के पीठाधीश्वर हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु के 23 अवतार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और 24वें अवतार के रूप में विष्णु भगवान कलयुग के अंतिम चरण में कल्कि अवतार के रूप में उस समय जन्म लेंगे जब अधर्म का साम्राज्य धरती पर स्थापित हो संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने का कारक बन चुका होगा। मान्यता है कि विष्णु के अवतार रूप से धरती पर जन्में भगवान कृष्ण को विदा लिए 5126 वर्ष बीत चुके हैं। कलयुग का समय 4 लाख, 32 हजार वर्ष माना गया है। इस दृष्टि से अभी विष्णु के 24वें अवतार को अवतरित होने में खासा समय बाकी है लेकिन उनके नाम का मंदिर, उनके जन्म से पहले ही बन चुका है और अजन्में अवतार के नाम पर सियासत भी अब शुरू हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गत् सप्ताह इसी श्री कल्कि धाम मंदिर का उद्घाटन करने संभल पहुंचे थे। इस कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कुछ ऐसा कह डाला जिससे मुझ सरीखे बहुतों को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी याद हो आई। यह याद अपने साथ कुछ आशंकाओं को लेकर आई है। ये आशंकाएं उन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और मूल्यों को लेकर हैं जिनका क्षरण इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में हुआ था, जमकर हुआ था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सम्बोधन में उच्चतम् न्यायालय पर निशाना साधा। उनका कथन ऐसे समय पर आया जब इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को उच्चतम न्यायालय ने रद्द करते हुए केंद्र सरकार को तगड़ा झटका देने का काम किया है। न्यायपालिका संग मोदी सरकार की असहजता 2014 से लगातार देखने को मिलती रही है। यह किसी से भी नहीं छिपा है कि न्याय पालिका और वर्तमान केंद्र सरकार के मध्य रिश्ते सौहार्दपूर्ण नहीं हैं। जिन्हें याद नहीं या मेरे कथन से जो इत्तेफाक नहीं रखते, उन्हें 2017 के जनवरी माह का वह सर्द दिन याद रखना चाहिए जब एक अप्रत्याक्षित कदम उठाते हुए उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम् न्यायधीशों ने पत्रकार वार्ता बुला यह कह डाला था कि ‘लोकतंत्र खतरे में है’। यह दीगर बात है कि बाद में इन चार वरिष्ठ न्यायधीशों में शामिल रहे एक न्यायमूर्ति मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद बदले-बदले से नजर आने लगे थे और जो पद त्यागने के बाद सत्तारूढ़ दल के बगलगीर हो राज्यसभा जा पहुंचे थे।

प्रधानमंत्री मोदी ने कल्कि धाम के उद्घाटन अवसर पर कहा कि ‘अच्छा हुआ आचार्य प्रमोद कृष्णम ने मुझे आज भेंट में केवल सद्भावनाएं दी हैं, अन्यथा ऐसा समय आ गया है कि इस दौर में यदि सुदामा श्री कृष्ण को चावल की पोटली देते तो सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर हो जाती और कोर्ट का फैसला आ जाता कि श्री कृष्ण ने थैली लेकर भ्रष्टाचार किया है। यह सामान्य टिप्पणी नहीं मानी जा सकती। एक मंदिर के उद्घाटन अवसर पर प्रधानमंत्री के श्रीमुख से निकले इस उद्गार के गहरे मायने हैं। इससे यह पता चलता है कि उच्चतम् न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार के कतिपय फैसलों को पलटना सरकार को नहीं सुहा रहा है। इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान भी ऐसा ही हुआ था। बांग्लादेश गठन के बाद इंदिरा गांधी का जादू आम जनता के मन-मष्तिक में छा चुका था। उन्हें मां दुर्गा का अवसार कह पुकारा जाने लगा था। देश को आजादी दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से इंदिरामय हो उनका जेबी संगठन बन चुकी थी। ‘इंदिरा ही भारत है, भारत इंदिरा है’ सरीखी चाटुकारिता कांग्रेसियों का मूल मंत्र बन चौतरफा पसर चुकी थी। इस प्रवृत्ति ने इंदिरा गांधी को तानाशाह बनने की राह में धकेल दिया था। इंदिरा खुद को मसीहा मानने लगीं और उन्हें लगने लगा था कि देशहित में लिए गए उनके फैसलों पर न्यायालयों द्वारा टीका टिप्पणी किया जाना उचित नहीं है। उनकी नाराजगी तब और बढ़ गई जब 1973 में ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ मामले में उच्चतम् न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए व्यवस्था दी कि संसद के पास संविधान में संशोधन किए जाने का अधिकार अवश्य है लेकिन वह संविधान की मूल भावना और चरित्र के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती है। इस फैसले के चलते इंदिरा द्वारा संविधान में किए गए तीन महत्वपूर्ण संशोधन रद्द हो गए थे। इंदिरा इसे सहन न कर पाईं और उन्होंने ‘समर्पित न्यायपालिका’ स्थापित करने की ठान ली। नतीजा रहा उनके द्वारा न्यायधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में सीधा हस्तक्षेप करना और अपनी पसंद के न्यायधीशों की नियुक्ति करना। प्रधानमंत्री मोदी का गत् दिनों उच्चतम न्यायालय को लेकर दिया गया कथन इस आशंका को बलवती करता है कि लोकप्रियता के चरम पर पहुंचे हमारे प्रधानमंत्री कहीं इंदिरा गांधी के समान ‘समर्पित न्यायपालिका’ स्थापित करने की राह पर तो नहीं चल पड़े हैं? यह निर्मूल आशंका नहीं है। बीते 10 बरसों के दौरान सत्ता का तानाशाहपूर्ण रवैया कई मर्तबा हम देख चुके हैं। फिर चाहे वह नागरिकता संशोधन कानून हो, तीन कृषि कानून हों या फिर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का मसला हो, यह आश्ांका एक नहीं अनेक बार बलवती हुई है। इंदिरा गांधी समान ही वर्तमान सत्ताधीशों को भी यह मुगालता हो गया है कि वे भारत के हित में सोचने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं और उनके द्वारा लिया गया हर निर्णय आलोचनाओं और पुनर्विचार से परे है। यदि यह आशंका अंश मात्र भी सही है तो यकीन मानिए लोकतंत्र के लिए यह कतई शुभ नहीं है। 70 के दशक में कांग्रेस नेता देवकांत बरुआ ने नारा दिया था ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’। वर्तमान में ऐसा ही कुछ भाजपा नेता प्रधानमंत्री मोदी के लिए कहते-सुनते नजर आते हैं। इसलिए मुझ सरीखों को प्रधानमंत्री की कल्कि धाम में कही गई बातों ने भयभीत और सशंकित करने का काम किया है। लोकतंत्र की खूबसूरती नाना प्रकार के विचारों का सम्मान करते हुए संवाद के जरिए समाधान तलाशने में है। यह जरूरी नहीं कि सरकार का हर निर्णय सही ही हो। न्यायपालिका को इसी चलते संविधान ने ऐसी शक्ति दी है कि वह सरकारों के, विधायकी के और कार्यपालिका के निर्णयों की समीक्षा कर सके। इसलिए प्रधानमंत्री की टिप्पणी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राह्मा लिंकन का लोकतंत्र को लेकर कथन हर किसी को याद रहता है कि  ‘लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता द्वारा गठित सरकार है।’ पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल का कहना था कि ‘लोकतंत्र सबसे खराब सत्ता है लेकिन समय-समय पर आजमाई गई अन्य व्यवस्था बेहतर है।’ मैं इन दोनों कथनों को सही मानता हूं। मेरा मानना है कि सच्चा लोकतंत्र तभी स्थापित हो सकता है जब देश के हर व्यस्क नागरिक को धर्म, जाति और लिंग भेद बगैर अपनी बात कहने की पूरी स्वतंत्रता हो और उसकी बात को समझने और यदि वह बात सर्वहित में हो तो अमल में लाने की व्यवस्था स्थापित हो। इस दृष्टि से अभी हमारा लोकतंत्र परिपक्व नहीं हो पाया है। इस परिपक्वता को पाने के लिए अभी लम्बा सफर हमें तय करना है। प्रधानमंत्री मोदी के उद्गार इस परिपक्वता की डगर में बाधा उत्पन्न करने वाले प्रतीत होते हैं इसलिए उनके कथन का प्रतिकार जरूरी हो जाता है। उनके कथन के गहरे मायने, गहरे निहितार्थ हो भी सकते हैं और नहीं भी। भले ही उन्होंने मजाकिया लहजे में कहा हो, कहने वाला देश का सबसे शक्तिशाली, प्रभावशाली और लोकप्रिय राजनेता हैं इसलिए जैसा शायर क़फील आज़र अमरोहवी ने कहा ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी ही जाएगी।’

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