गत् सप्ताह सात राज्यों की तेरह विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे आने बाद विपक्षी दलों ने एक सुर में भाजपा के कमजोर होने का राग अलापना शुरू कर दिया और दक्षिणपंथी विचारधारा के कटु आलोचक पत्रकारों, लेखकों और विचारकों ने भी इसे अंत का आरम्भ कहते देर नहीं लगाई। पर वाकई क्या ऐसा है? क्या भाजपा, विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता अपने चरम पर पहुंच अब गिरावट की तरफ है? क्या वाकई धर्म आधारित राजनीति का दौर अब समाप्त होने जा रहा है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि क्या भारतीय मतदाता सचमुच इतना परिपक्व हो गया है कि बुनियादी सवालों पर चिंतन करने लगा है तथा मुफ्त का राशन-बिजली, मंदिर, लव-जिहाद इत्यादि के भ्रमजाल से बाहर निकल पाने की समझ और क्षमता उसके भीतर पैदा हो चुकी है? इन प्रश्नों पर विचार किए बगैर यह कहना मेरी समझ से जल्दबाजी होगी कि मात्र कुछ सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों का अर्थ भाजपा की धर्म आधारित राजनीति के अंत का संकेत है और यह भी कि आम मतदाता अब परिपक्व हो बुनियादी सवालों के जवाब तलाशने की समझ विकसित कर चुका है। पहले इन 13 सीटों पर हुए उपचुनावों पर नजर डालते हैं ताकि इन नतीजों के जरिए समान राजनीतिक गणित को समझ आगे बढ़ा जा सके।
सबसे पहले तो यह समझना होगा कि इन 13 सीटों में से भाजपा के पास कितनी सीटें थीं जिन्हें वह वापस जीत नहीं पाई। भाजपा के पास मात्र चार सीटें थीं जिसमें से वह केवल एक सीट जीत पाई। पश्चिम बंगाल में चार सीटों पर उपचुनाव हुए थे। इन चार सीटों में से तीन पहले भाजपा के खाते में थीं। उपचुनाव में सभी सीटों पर भाजपा तृणमूल के हाथों पराजित हो गई। उत्तराखण्ड में दो सीटों पर उपचुनाव हुए जिनमें से दोनों ही पहले से भाजपा के पास नहीं थीं। यहां दोनों सीटें कांग्रेस ने जीती। हिमाचल प्रदेश में जिन तीन सीटों पर उपचुनाव हुए वे सभी पूर्व में निर्दलीय विधायकों के पास थी जिन्होंने सुक्खू सरकार से समर्थन वापस ले भाजपा को अपना समर्थन दे दिया था। ये तीनों ही इस बार भाजपा के टिकट पर लड़े और दो कांग्रेस प्रत्याशी के हाथों पराजित हो गए। पंजाब और तमिलनाडु की जिन एक-एक सीट पर उपचुनाव हुए वह पहले भी भाजपा के पास नहीं थीं। मध्य प्रदेश में जिस एक सीट पर उपचुनाव हुए वह पहले कांग्रेस के पास थी जिसे भाजपा ने उपचुनाव में जीत लिया। बिहार में भी एक सीट पर उपचुनाव हुआ। पहले यह सीट जदयू) के पास थी, उपचुनाव में यहां से निर्दलीय जीत गया। इस प्रकार 13 सीटों में से 10 में इंडिया गठबंधन जीता, भाजपा मात्र दो सीटें जीत पाई और एक पर निर्दलीय प्रत्याशी की जीत हुई। इसके बावजूद विपक्षी गठबंधन इसे भाजपा की धर्म आधारित राजनीति का अंत करार दे रहा है। कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के शब्दों में ‘इन नतीजों से साफ हो गया है कि भाजपा का बनाया भय और भ्रम का जाप टूट चुका है।’ उनकी बहन प्रियंका गांधी कह रही हैं कि ‘देश की जनता समझ चुकी है कि सौ साल पीछे और सौ साल आगे भटकाने वाली राजनीति से देश का भला नहीं होगा।’ कांग्रेस नेताओं के यह बयान उनके उस आत्मविश्वास का परिचायक भर हैं जो लोकसभा चुनाव नतीजों ने उन्हें दिया है। इसमें कोई शक, कम से कम, मुझे नहीं है कि लोकसभा चुनाव नतीजों ने मृतप्राय हो चुके विपक्ष को संजीवनी देने का काम किया है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा बीते दस वर्षों के दौरान यह स्थापित कर पाने में सफल रही थी कि अब कांग्रेस का अंत करीब आ चुक है और हिंदुत्व की बात करने वाली पार्टी ही देश में अनंतकाल तक राज करने वाली है। यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। भारत को हिंदुओं की जागीर समझने वालों के लिए इसलिए ही मोदी एक महानायक समान हैं। कांग्रेस ने आजादी उपरांत ही अल्पसंख्यकों को एक वोट बैंक मान उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की राजनीति शुरू कर दी थी। बंटवारे से त्रस्त अल्पसंख्यकों को यह समझा दिया गया था कि उनके हित कांग्रेस संग ही सुरक्षित हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गतिविधियों में जैसे-जैसे विस्तार हुआ उसी अनुपात में कांग्रेस ने भय का भौकाल और तुष्टिकरण का तड़का लगा मुसलमानों को साधे रखा था। मोदी के भारत में यही काम भाजपा ने हिंदुओं संग कर दिखाया।
मुसलमानों की कथित तौर पर सुरसा भांति बढ़ रही आबादी, धर्मांतरण, लव-जेहाद, आदि के सहारे हिंदुओं को आक्रांत किया गया और फिर राममंदिर निर्माण, काशी-मथुरा मुद्दे को हवा देना, बुलडोजर और एनकाउंटर सरीखी पैंतरेबाजी का सहारा ले उन्हें अपने पाले में खींचने में भाजपा सफल रही। 2014 के बाद भारत के नक्शे में तेजी से ‘हाथ’ गायब होने लगा और उसकी जगह ‘कमल’ ने ले ली। हिंदू जनमानस जो स्वभावतः शांत और
अहिंसक होता है, उसे उग्र बनाया गया। एक तरफ धर्म को हथियार बना भाजपा को विस्तार दिया गया तो दूसरी तरफ सत्ता का पूरी तरह केंद्रीयकरण किया जाने लगा। मोदी-शाह द्वय ने भाजपा के कद्दावर नेताओं को ठिकाने लगाने का काम संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के उद्देश्य से किया। आडवाणी और जोशी सरीखे पार्टी के संस्थापकों को हाशिए में डाल दिया गया और राज्यों में जितने भी जनाधार वाले नेता थे, उन्हें भी एक के बाद एक ठिकाने लगा दिया गया। इन मजबूत नेताओं के स्थान पर ऐसों को आगे बढ़ाया गया जो दिल्ली के इशारे पर उठने-बैठने वाले हैं। नतीजा एक कैडर आधारित पार्टी का ह्रास होना और मोदी-शाह का जेबी संगठन बन उभरना है। बीते दस बरसों में इसका लाभ इस जोड़ी को मिला जरूर लेकिन अब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। हालिया सम्पन्न लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजे बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं में भारी उदासीनता थी और जिस समर्पण भाव से वह पार्टी का हर चुनाव लड़वाते थे, वह समर्पण भाव इस बार नदारत था। 2014 के बाद जैसे-जैसे प्रधानमंत्री मोदी का कद बढ़ा, उतनी ही गति से उनके अहंकार में भी वृद्धि हुई। उन्हें तेजी से एक तानाशाह में बदलते हर उस शख्स ने देखा है जो अपनी निगाहें और अपनी समझ पर हिंदुत्व की आंधी को छाने नहीं दे रहा था। कांग्रेस का नामोनिशान मिटाने की जिद और हड़बड़ी ने संवैधानिक संस्थाओं तक को नहीं बख्शा। केंद्रीय जांच एजेंसियों का भय दिखा नई वाली भाजपा ने विपक्षी सरकारों को गिराने और भ्रष्ट विपक्षी नेताओं को भगवाधारी बनाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यह फार्मूला भी कमल के चैतरफा खिलने में खासा सहायक रहा फिर चाहे असम हो, बंगाल हो, पूर्वोत्तर के राज्य हों, दक्षिण भारत को छोड़ हर तरफ यह तरकीब कामयाब रही। मोदी को महानायक बनाने में मीडिया मैनेजमेंट और सोशल मीडिया का भी खासा महत्व बीते दस वर्षों के दौरान रहा। लेकिन सब कुछ सतही था और सतही चीजें ज्यादा समय तक टिकती नहीं हैं। देश की आम जनता बुनियादी जरूरतों और बुनियादी सवालों को इन बीते दस बरसों के दौरान धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर बहुत ‘सलीके’ से हाशिए में डालने में नई भाजपा सफल जरूर रही, किंतु अब वही सवाल सिर उठाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव नतीजे इशारा कर चुके हैं कि अब इन सवालों से मोदी को टकराना पड़ेगा ही पड़ेगा और इनका वाजिब जवाब भी उन्हें देना होगा। 13 सीटों के लिए देश के सात राज्यों में हुए उपचुनाव इस दृष्टि से खासा सांकेतिक महत्व रखते हैं।
अहिंसक होता है, उसे उग्र बनाया गया। एक तरफ धर्म को हथियार बना भाजपा को विस्तार दिया गया तो दूसरी तरफ सत्ता का पूरी तरह केंद्रीयकरण किया जाने लगा। मोदी-शाह द्वय ने भाजपा के कद्दावर नेताओं को ठिकाने लगाने का काम संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के उद्देश्य से किया। आडवाणी और जोशी सरीखे पार्टी के संस्थापकों को हाशिए में डाल दिया गया और राज्यों में जितने भी जनाधार वाले नेता थे, उन्हें भी एक के बाद एक ठिकाने लगा दिया गया। इन मजबूत नेताओं के स्थान पर ऐसों को आगे बढ़ाया गया जो दिल्ली के इशारे पर उठने-बैठने वाले हैं। नतीजा एक कैडर आधारित पार्टी का ह्रास होना और मोदी-शाह का जेबी संगठन बन उभरना है। बीते दस बरसों में इसका लाभ इस जोड़ी को मिला जरूर लेकिन अब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। हालिया सम्पन्न लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजे बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं में भारी उदासीनता थी और जिस समर्पण भाव से वह पार्टी का हर चुनाव लड़वाते थे, वह समर्पण भाव इस बार नदारत था। 2014 के बाद जैसे-जैसे प्रधानमंत्री मोदी का कद बढ़ा, उतनी ही गति से उनके अहंकार में भी वृद्धि हुई। उन्हें तेजी से एक तानाशाह में बदलते हर उस शख्स ने देखा है जो अपनी निगाहें और अपनी समझ पर हिंदुत्व की आंधी को छाने नहीं दे रहा था। कांग्रेस का नामोनिशान मिटाने की जिद और हड़बड़ी ने संवैधानिक संस्थाओं तक को नहीं बख्शा। केंद्रीय जांच एजेंसियों का भय दिखा नई वाली भाजपा ने विपक्षी सरकारों को गिराने और भ्रष्ट विपक्षी नेताओं को भगवाधारी बनाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। यह फार्मूला भी कमल के चैतरफा खिलने में खासा सहायक रहा फिर चाहे असम हो, बंगाल हो, पूर्वोत्तर के राज्य हों, दक्षिण भारत को छोड़ हर तरफ यह तरकीब कामयाब रही। मोदी को महानायक बनाने में मीडिया मैनेजमेंट और सोशल मीडिया का भी खासा महत्व बीते दस वर्षों के दौरान रहा। लेकिन सब कुछ सतही था और सतही चीजें ज्यादा समय तक टिकती नहीं हैं। देश की आम जनता बुनियादी जरूरतों और बुनियादी सवालों को इन बीते दस बरसों के दौरान धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर बहुत ‘सलीके’ से हाशिए में डालने में नई भाजपा सफल जरूर रही, किंतु अब वही सवाल सिर उठाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव नतीजे इशारा कर चुके हैं कि अब इन सवालों से मोदी को टकराना पड़ेगा ही पड़ेगा और इनका वाजिब जवाब भी उन्हें देना होगा। 13 सीटों के लिए देश के सात राज्यों में हुए उपचुनाव इस दृष्टि से खासा सांकेतिक महत्व रखते हैं।
विपक्ष के हौसले इसलिए बुलंद हैं क्योंकि अपने दम पर भाजपा तीसरी बार केंद्र में सरकार बना पाने में विफल रही है और लोकसभा में विपक्ष मजबूत हुआ है। यही कारण है कि राहुल गांधी समेत ‘इंडिया गठबंधन’ के सभी नेता एक सुर में उपचुनाव नतीजों को भाजपा के वर्चस्व का अंत करार दे रहे हैं। मेरी समझ से यह मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा के लिए चेतावनी संकेत समान है। अब उसे देश और आमजन के बुनियादी सवालों का उत्तर तलाशना होगा। साथ ही उसे अपनी रणनीति में भी बड़ा कोर्स करेक्शन करना होगा। प्रधानमंत्री परिवारवाद और भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को बीते दस वर्षों के दौरान जमकर गरियाते रहे हैं लेकिन खुद भाजपा में महाभ्रष्टों को शामिल करने से उन्होंने गुरेज नहीं किया है। परिवारवाद भी नई भाजपा में जमकर पनपा है। उन्हें यह भी समझना होगा कि उनके नेतृत्व में नई भाजपा आयातित नेताओं का गढ़ बनकर रह गई है और मूल भाजपाई कैडर को दरी बिछाने भर तक सीमित कर दिया गया है। यह मूल और समर्पित भाजपा कैडर खासा खिन्न हैं। इसे यदि नहीं संभाला गया तो राहुल गांधी की बात सही साबित होते देर नहीं लगेगी। रही बात धर्म आधारित राजनीति के अंत और आमजन के मोदी भ्रमित भाव के अंत की तो उसमें अभी समय लगेगा। धर्म का नशा अभी पूरी तरह से जनता त्याग नहीं पाई है। यदि नई भाजपा कोर्स करेक्शन करने से कतराती है तो सम्भव है कि बुनियादी सवालों का दंश भाजपा मूल कैडर का असंतोष और विपक्षी एकजुटता मिलकर कुछ गुल खिला दे। सम्भवतः