बांग्लादेश उच्चतम न्यायालय ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने का आदेश दे कोटा विरोधी आंदोलन की आग तात्कालिक तौर पर बुझा दी है। लेकिन जिस प्रकार आंदोलन को बलपूर्वक दबाने का प्रयास शेख हसीना सरकार ने किया उससे 174 से ज्यादा आंदोलनकारियों की मौत हुई। इससे हसीना सरकार की लोकप्रियता और विश्वसनीयता में भारी कमी आई है। फिलहाल उनके खिलाफ जनाक्रोश अभी थमा नहीं है
पिछले दो हफ्तों से आरक्षण की आग में जल रहे पड़ोसी देश बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों के लिए कोटा प्रणाली को वापस ले लिया है। कोर्ट ने निचली अदालत के उस आदेश को ख़ारिज कर दिया है जिसमें आरक्षण को बहाल कर दिया गया था। नौकरियों में कमी और कोटा सिस्टम खत्म करने की मांग को लेकर देश के अधिकांश प्रमुख शहरों में छात्रों और पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों के बीच हिंसक झड़पें हुईं थी जिसमें में 174 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी, जबकि हजारों लोग घायल हुए थे। बांग्लादेश सरकार का मानना है कि आरक्षण के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन को दुष्ट तत्वों द्वारा हाईजैक कर लिया गया जिसके बाद आंदोलन हिंसक रूप ले लिया। हिंसक प्रदर्शन को देखते हुए 21 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण के मुद्दे को लेकर फैसला सुनाया। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों में 56 प्रतिशत आरक्षण देने के ढाका उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया है। न्यायालय ने कहा कि सरकारी नौकरियों में 93 फीसदी पद योग्यता के आधार पर भरे जाएंगे। स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए सिर्फ 5 प्रतिशत सीटें आरक्षित रहेंगी, बाकी 2 प्रतिशत सीटें जातीय अल्पसंख्यकों, ट्रांसजेंडरों और विकलांगों को दी जाएंगी। सरकार ने 2018 में अलग-अलग कैटेगरी को मिलने वाला 56 प्रतिशत आरक्षण खत्म कर दिया था, लेकिन इस साल 5 जून को वहां के हाईकोर्ट ने सरकार के फैसले को पलटते हुए दोबारा आरक्षण लागू कर दिया था। जिसके बाद से ही बांग्लादेश में हिंसा का दौर शुरू हो गया।
हालातों को देखते हुए देश में पुलिस की जगह सेना तैनात की गई थी। जिनके साथ छात्रों की झड़पें देखीं गई। रिपोर्ट अनुसार हिंसा में अब तक 174 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। वहीं 2500 से ज्यादा लोग घायल हो चुकें हैं। इंडिया टूडे की एक खबर अनुसार वहां हिंसा इतनी बढ़ चुकी है कि शवों को पेड़ों से लटका दिया गया। पड़ोसी मुल्क में हो रही हिंसा पर भारत भी नजर रखे हुए है। बांग्लादेश में कुल भारतीय नागरिकों की संख्या लगभग 15,000 होने का अनुमान है, जिसमें लगभग 8,500 छात्र शामिल हैं। इस हिंसक प्रदर्शन के बीच बांग्लादेश से करीब 978 भारतीय छात्र घर वापस लौट आए हैं। इसके अलावा नेपाल, भूटान के कुछ छात्रों को भी निकाला गया है। भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार, वहां फंसे और भारतीयों को वापस लाने के लिए सरकार बांग्लादेश के अधिकारियों के साथ मिलकर काम कर रही है। बांग्लादेश में रह रहे कई भारतीय सड़क मार्ग के जरिए भारत की सीमा तक पहुंचे हैं। बांग्लादेश की अशांति का असर पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर पड़ता है। ऐसे में बांग्लादेश में मानव संकट को देखते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य के दरवाजे खोल दिए हैं। अपने इस फैसले को न्यायोचित ठहराने के लिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के संकल्प का हवाला देते हुए कहा कि अशांत क्षेत्रों के आस-पास के इलाकों से शरणार्थियों को समायोजित करना संयुक्त राष्ट्र का एक संकल्प है। अंदेशा है कि अगर स्थिति को समझदारी से नहीं संभाला गया तो हसीना विरोधी आंदोलन भारत विरोधी आंदोलन में बदल सकता है। बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतें अगर मजबूत होती हैं तो यह भारत की सुरक्षा के लिए हानिकारक हो सकता है। विपक्षी पार्टियां लगातार इस मामले को लेकर शेख हसीना को हटाने की मांग कर रही हैं। बांग्लादेश नेशनल पार्टी द्वारा जमात-ए-इस्लामी की मदद से सरकार के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया गया है। हालांकि देश की सेना प्रधानमंत्री शेख हसीना का समर्थन कर रही है।
बांग्लादेश में 21 जुलाई को पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया गया था। हालात बिगड़ते हुए देख पुलिस को आदेश दिया गया कि उग्र प्रदर्शनकारियों देखते ही गोली मार दी जाए। इससे पहले गलत सूचना को रोकने का हवाला देते हुए पूरे देश में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई। विश्लेषकों का मानना है कि भले ही सरकार इस प्रदर्शन को बल से नियंत्रण कर ले लेकिन अंगारे सुलगते रहेंगे और भड़कने का खतरा बना रहेगा। इस आंदोलन को ‘कोटा आंदोलन’ कहा जा रहा है। सरकार ने 2018 में ही कोटा खत्म कर दिया था। लेकिन उच्च न्यायलय ने इसी साल जून में आरक्षण कोटा पहले की तरह बहाल कर दिया था। उच्च न्यायलय के इस फैसले के बाद से ही प्रदर्शन होने लगे।
ऐसे में एक सवाल उठता है कि यदि सरकार और छात्र दोनों ही चाहते हैं कि कोटा खत्म हो जाए, तो यह साफ नहीं हो पा रहा कि छात्र किस बात का विरोध कर रहे हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना के चौथी बार प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद नौकरियों में आरक्षण को लेकर ये सबसे बड़ा राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन देखने को मिला है। इसका एक बड़ा कारण बांग्लादेश के युवाओं के बीच बढ़ती बेरोजगारी माना जा रहा है, जिसमें 17 करोड़ आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा काम या शिक्षा से बाहर है। बांग्लादेश में युवाओं के बीच नौकरी को लेकर चिंताएं हैं। डी डब्लू के एक रिपोर्ट अनुसार बढ़ती महंगाई और नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होने के चलते युवाओं को सुरक्षित सरकारी नौकरियों से उम्मीद थी। लेकिन मौजूदा आरक्षण प्रणाली इसमें एक अनुचित बाधा उत्पन्न कर रही है। वहीं ‘द हिंदू’ की खबर के अनुसार भी प्रदर्शनकारी बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों के लिए समान अवसर की मांग कर रहे हैं, जहां मुक्ति संग्राम के सेनानियों, अल्पसंख्यकों और आदिवासी समुदायों के लिए विशेष आरक्षण की व्यवस्था है। प्रदर्शनकारियों का दावा है कि इस आरक्षण प्रणाली के कारण योग्य उम्मीदवारों को बड़ी संख्या में सरकारी रोजगार से वंचित किया गया।
आरक्षण के विरोध में जारी प्रदर्शनों को कुचलने के लिए अपनाई गई सख्ती शेख हसीना के खिलाफ रोष का कारण बन गया। ढाका यूनिवर्सिटी में ‘तूई के, आमी के रजाकार, रजाकार’ के नारे गूंजने लगे। बांग्लादेश के छात्रों का कहना है कि वे हसीना जैसी तानाशाह के बजाय ‘रजाकारों’ को अधिक पसंद करेंगे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार शेख हसीना के एक बयान ने इस आंदोलन को भड़काने का काम किया है। प्रधानमंत्री शेख हसीना द्वारा रजाकार संदर्भ के साथ दिए गए एक बयान ने आंदोलन की आग में ईंधन का काम किया। प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले ही स्वतंत्रता सेनानियों का पक्ष लेते हुए कहा था, ‘क्या स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चे और पोते प्रतिभाशाली नहीं हैं? क्या केवल रजाकारों के बच्चे और पोते ही प्रतिभाशाली हैं? उनमें स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति इतना आक्रोश क्यों है? यदि स्वतंत्रता सेनानियों के पोते-पोतियों को कोटा लाभ नहीं मिलता, तो क्या रजाकारों के पोते-पोतियों को इसका लाभ मिलना चाहिए? प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री के इस बयान को ‘अपमानजनक’ बताया। उन्होंने आरोप लगाया कि योग्यता की कीमत पर स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों को तरजीह दी जा रही है। गौरतलब है कि बांग्लादेश में इस शब्द को बदनामी या अपमान के तौर पर लिया जाता है। 1971 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना के साथ देने वाले लोगों को रजाकार कहा जाता है जो कि तत्कालीन समय में बांग्लादेश की स्वतंत्रा के विरोधी थे। 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान रजाकारों ने पाकिस्तानी सेना के साथ सहयोग करके और क्रूर अत्याचार करके अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे बंगालियों को धोखा दिया। उन्होंने छापे, सामूहिक बलात्कार, हत्याओं और यातना, आगजनी में पाकिस्तानी सेना की सहायता की। ऐसे में सेख हसीना द्वारा बांग्लादेश के छात्रों के लिए ये शब्द प्रयोग करने से छात्रों का रोष और बढ़ गया।
गौरतलब है कि छात्रों के पांच मांगों के अलावा भ्रष्टाचार तानाशाह जैसे कई मुद्दों के खिलाफ छात्र आंदोलन कर रहे हैं। शेख हसीना की सरकार चुनावी धांधली, भ्रष्टाचार जैसे आरोपों से घिरी हुई हैं। वहीं शेख हसीना पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे एक पार्टी का राज स्थापित कर तानाशाह बन गई हैं। बांग्लादेश के छात्र संगठनों द्वारा 18 जुलाई से देश बंद करने का ऐलान किया गया। इस दौरान छात्र नेताओं ने कहा था कि हॉस्पिटल और आपातकालीन सेवाओं को छोड़कर सभी चीजें बंद रहेंगी। हिंसक रूप को खत्म करने के लिए बांग्लादेश सरकार ने सेना को सड़कों पर तैनात किया, हालात इतने ज्यादा खराब हो गए कि ढाका सहित बांग्लादेश के अलग-अलग शहरों में शिक्षण संस्थानों को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया था। इस बीच भारत ने वहां रहने वाले अपने नागरिकों के लिए एडवाइजरी जारी की उन्हें बेवजह घरों से बाहर न निकलने को कहा। 1971 के दौरान से दिए गए आरक्षण को खत्म करने के अलावा छात्र संगठनों ने अपनी पांच सामने रखी थी। इन छात्रों का कहना है कि आरक्षण 56 प्रतिशत से घटाकर इसे 10 प्रतिशत किया जाए। अगर कोई आरक्षित सीटों से योग्य उम्मीदवार नहीं मिलता है तो भर्ती मेरिट लिस्ट से कि जाए। सभी के लिए एक समान परीक्षा हो। सभी उम्मीदवारों के लिए उम्र सामान हो। इसके अलावा कोई भी उम्मीदवार एक बार से ज्यादा आरक्षण का इस्तेमाल न करें।
बांग्लादेश में चल रही हिंसा को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आलोचना की जा रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो के प्रवक्ता स्टीफन डुजारिक द्वारा कहा गया कि हिंसा कभी भी समाधान नहीं है। हम सरकार से बातचीत के लिए अनुकूल माहौल सुनिश्चित करने का आग्रह करते हैं और प्रदर्शनकारियों को गतिरोध को सुलझाने के लिए उस बातचीत में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता वेदांत पटेल ने इस मामले को लेकर कहा, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण सभा किसी भी संपन्न लोकतंत्र का आधार है और हम बांग्लादेश में हिंसा के हालिया कृत्यों की निंदा करते हैं।
बांग्लादेश में क्या थी आरक्षण की व्यवस्था
पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश द्वारा मुक्ति संग्राम में लड़ने वाले लोगों को वॉर हीरो कहा जाता है। सर्वोच्च न्यायलय के फैसले से पहले बांग्लादेश में 30 फीसदी नौकरियां इन वॉर हीरो के बच्चों के लिए आरक्षित की गई थी। इसी आरक्षण के खिलाफ छात्रसंगठनों का गुस्सा भड़का हुआ है। बढ़ती हिंसा को देखते हुए प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 17 जुलाई को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि आरक्षण के खिलाफ आंदोलन में हुई मौतों की जांच के लिए न्यायिक जांच समिति गठित की जाएगी। विरोध प्रदर्शन में हुए जानमाल के नुकसान पर दुःख जताते हुए शेख हसीना ने छात्रों से अपील की वे उपद्रवियों को स्थिति का फायदा उठाने का मौका न दें। जिन लोगों ने हत्याएं की हैं, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया है, उन्हें कटघरे में लाया जाएगा, चाहे वे किसी भी पार्टी से जुड़े हों। इन प्रदर्शनों में 1971 में बांग्लादेश को आजादी दिलाने वाले लोगों के बच्चे भी शामिल हैं। गौरतलब है कि बांग्लादेश 1971 में आजाद हुआ था।
बांग्लादेशी अखबार द डेली स्टार की रिपोर्ट के मुताबिक इसी साल से वहां पर 80 फीसदी कोटा सिस्टम लागू हुआ। इसमें स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों को नौकरी में 30 प्रतिशत, पिछड़े जिलों के लिए 40 प्रतिशत, महिलाओं के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। सामान्य छात्रों के लिए सिर्फ 20 प्रतिशत सीटें रखी गईं। 1976 में पिछड़े जिलों के लिए आरक्षण को 20 प्रतिशत कर दिया गया। इससे सामान्य छात्रों को 40 प्रतिशत सीटें हो गईं। 1985 में पिछड़े जिलों का आरक्षण और घटा कर 10 प्रतिशत कर दिया गया और अल्पसंख्यकों के लिए 5 प्रतिशत कोटा जोड़ा गया। इससे सामान्य छात्रों के लिए 45 प्रतिशत सीटें हो गईं। शुरू में स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे-बेटियों को ही आरक्षण मिलता था, लेकिन 2009 से इसमें पोते-पोतियों को भी जोड़ दिया गया। 2012 में विकलांग छात्रों के लिए भी 1 प्रतिशत कोटा जोड़ दिया गया। इससे कुल कोटा 56 प्रतिशत हो गया।

