Editorial

मानवीय सरोकारों से ओत-प्रोत थे राजीव

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-120

वर्ष 1987 में देश के 21 राज्यों में भारी सूखा पड़ा था। राजीव सरकार ने इस सूखे से निपटने के लिए व्यापक स्तर पर राहत पहुंचाने और अन्न उत्पादन क्षमता को कम से कम नुकसान पहुंचाने की दिशा में सार्थक प्रयास किए, जिसका नतीजा रहा कि देश का सकल घरेलू उत्पाद इस भयानक प्राकृतिक आपदा के बावजूद 2-5 प्रतिशत की दर से बढा। अन्न उत्पादन में मात्र 18 मीट्रिक टन की कमी आई और भूख से होने वाली मौतें न्यूनतम रहीं। इस सफल प्रयास के बावजूद 1987 के सूखे को भी राजीव सरकार की विफलता के तौर पर प्रचारित करने में विपक्षी दल कामयाब रहे थे। नतीजा 1987-88 में पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल, हरियाणा, तमिलनाडु और त्रिपुरा में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के रूप में सामने आया था।

राजीव ने ऐसे समय में राजनीति में प्रवेश किया था, जब साम्प्रदायिकता एक बार फिर से समाज में अपनी पकड़ मजबूत करने लगी थी। बहुसंख्यक हिंदू को अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णु बनाने की जमीन पहले से ही तैयार थी, अब उसमें खाद- पानी देने का काम हिंदूवादी संगठन राम मंदिर के निर्माण के नाम पर करने लगे थे। पंजाब में सिखों का धर्म पर आधारित अलगाववाद तेजी पकड़ चुका था, तो पूर्वाेत्तर के राज्यों में भी पृथकतावादी ताकतें सक्रिय हो चली थीं। राजीव लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले और लोकतंत्र की जड़ों को अधिक मजबूती देने की मंशा रखने वाले व्यक्ति थे। उनका विश्वास था और प्रयास भी था कि युवाओं को राजनीति में लाया जाना चाहिए, ताकि नई सदी में भारत का प्रवेश एक समृद्ध और वैज्ञानिक सोच के राष्ट्र के तौर पर हो। मार्च, 1989 में 61वें संविधान संशोधन को इसी उद्देश्य के साथ लाया गया था। इस संशोधन के बाद वयस्क मताधिकार की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई थी। इस कानून की प्रस्तावना में कहा गया- ‘आज के युवा साक्षर और प्रबुद्ध हैं और मतदाता की उम्र कम होने से देश के गैर-प्रतिनिधित्व वाले युवाओं को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने में मदद करने का अवसर मिलेगा। आज के युवा  राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हैं, इसलिए मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करने का प्रस्ताव है।’

राजीव का दृढ़ मत था कि युवा सशक्तिकरण और सुलभ शिक्षा की उपलब्धता लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती देने का सबसे सशक्त माध्यम है। अपने नाना जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने आमजन तक शिक्षा सुलभ कराने के लिए भगीरथी प्रयास किए थे, राजीव ने भी देश के प्रत्येक जिले में नेहरू द्वारा स्थापित केंद्रीय विद्यालयों की तर्ज पर जवाहर नवोदय विद्यालय खोलने की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की। 1986 में लागू की गई नई शिक्षा नीति के जरिए इसकी शुरुआत हुई थी। वर्तमान में 661 आवासीय नवोदय विद्यालय देश के हरेक जिले में (तमिलनाडु को छोड़कर) स्थापित हैं।  युवा सशक्तिकरण को गति देने के उद्देश्य से 1985 में राजीव ने खेल मंत्रालय के अधीन एक अलग विभाग खेल एवं युवा मामलों की स्थापना की, जो वर्तमान में एक पूर्ण मंत्रालय बन चुका है।

राजीव राजनीति में मात्र 11 बरस सक्रिय रहे थे। बतौर प्रधानमंत्री वे लगभग साढ़े पांच बरस तक केंद्र की सत्ता पर काबिज रहे। किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ने के लिए इतना समय काफी नहीं होता, लेकिन राजीव ऐसा कर पाने में सफल रहे। उनके कार्यकाल (1984-1989) के दौरान कृषि उत्पादन 180 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष पहुंचा, जो एक कीर्तिमान है। औद्योगिक उत्पादन दर इस दौर में 12 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी थी और सकल राष्ट्रीय उत्पादन दर 6 प्रतिशत प्रति वर्ष पर स्थिर रही। 1987 में पडे़ भीषण सूखे के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद दर का 1988-89 में 9 प्रतिशत पर पहुंचना राजीव सरकार की बड़ी सफलता रही। दक्षिण अफ्रीका में चल रहे नस्ल विरोधी आंदोलन, जिसकी अगुवाई नेल्सन मंडेला कर रहे थे, को मदद देने के उद्देश्य से राजीव के नेतृत्व में एक बड़ी पहल की गई। फरवरी, 1987 में दिल्ली में अफ्रीकी देशों के राष्ट्राध्यक्षों के शिखर सम्मेलन में ‘अफ्रीका फंड’ (Africa Fund-Action for Resisting Invsaion, Colonialism and Apartheid) की स्थापना की गई। जाम्बिया, अल्जीरिया, कांगो, पेरू और युगोस्लाविया के साथ मिलकर बनाए गए इस अफ्रीका कोष में शिखर सम्मेलन के दौरान ही 65 मिलियन अमेरिकी डॉलर जमाकर दिए गए थे, जिसमें सबसे अधिक योगदान (40 मिलियन डॉलर) भारत का था। राजीव की इस पहल को अफ्रीकी देशों द्वारा आज तक याद किया और सराहा जाता है।

राजीव मानवीय सरोकारों से ओत-प्रोत व्यक्ति थे। भारतीय राजनीति में उनके समान उदार और कोमल हृदय राजनेता बेहद कम देखने को मिलते हैं। भारतीय जनता पार्टी के दो दिग्गज नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी द्वारा स्वयं राजीव की सहृदयता की बाबत कही गई बातें राजीव के व्यक्तित्व के इस पहलू को सामने लाने का काम करती हैं। 1988 में अटल बिहारी वाजपेयी किडनी की बीमारी के चलते गम्भीर रूप से अस्वस्थ चल रहे थे। राजीव गांधी को जब इसकी जानकारी मिली, तो एक दिन उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को अपने कार्यालय में आमंत्रित किया और उनसे कहा- ‘मैं आपका नाम इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ भेजे जा रहे भारतीय दल में शामिल कर रहा हूं, ताकि आप अमेरिका में अपना इलाज करा सकें।’ इतना ही नहीं, अटल जी के इलाज का सारा खर्चा भी राजीव के निर्देश पर भारत सरकार ने उठाया था। यह बात कभी भी राजीव ने किसी को नहीं बताई। उनकी निर्मम हत्या के पश्चात् अटल जी ने इसका खुलासा राजीव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए किया था।’

लालकृष्ण आडवाणी ने भी कुछ ऐसी ही बात राजीव गांधी की बाबत साझा की है। बकौल आडवाणी, 1989 में राजीव ने जब समयपूर्व लोकसभा चुनाव कराने का निर्णय लिया था तो कुछ दिनों के लिए संसद को भंग किए जाने को मात्र इसलिए स्थगित कर दिया कि आडवाणी अपनी बेटी के विवाह कार्यक्रम को बगैर किसी बाधा पूरा कर सकें। राजीव के मानवीय सरोकारों का एक अद्भुत उदाहरण उनके राजनीति में आने से बहुत पूर्व 1974 का है। युवा राजीव को एक दिन सड़क पर एक पालतू कुत्ता दर्द से तड़पता हुआ दिखाई दिया। राजीव उसे लेकर डॉक्टर के पास गए और उसका इलाज कराकर प्रधानमंत्री आवास ले आए। कुत्ता हिंदी की प्रख्यात लेखिका मृदुला गर्ग का था। मृदुला गर्ग राजीव गांधी को भावपूर्ण तरीके से याद करते हुए कहती हैं- ‘राजीव तब प्रधानमंत्री नहीं थे, प्रधानमत्री के पुत्र थे, जो अपनी मां के घर प्रधानमंत्री आवास में रहा करते थे और कुत्ता केवल एक कुत्ता था, खूबसूरत सुनहरे रंग का कॉकस स्पेनियल, जो एक सामान्य परिवार का हिस्सा था और उनके साथ ग्रीन पार्क, दक्षिण दिल्ली में रहता था। उसका नाम ‘सोनू’ था। एक दिन सोनू जंजीर तोड़कर घर से भाग गया। हमने उसे बहुत तलाशा, लेकिन वह नहीं मिला। मेरे दोनों बेटे, ग्यारह और आठ बरस के, अपने सोनू के लिए बेहद चिंतित हो उठे थे। अगले दिन हम उनकी तसल्ली के लिए सोनू के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराने थाने गए। वहां हमें सुखद समाचार मिला कि प्रधानमंत्री आवास से सूचना है कि एक गोल्डन कॉकस स्पेनियल प्रधानमंत्री के पुत्र राजीव को सड़क पर मिला है, जो अब उनके साथ प्रधानमंत्री आवास में है। पता चला कि राजीव सफदरजंग फ्लाई ओवर से जा रहे थे, तब उनकी नजर सोनू पर पड़ी जो सड़क किनारे पड़ा था और उसके मुख से झाग निकल रहा था। राजीव उसे सड़क से उठाकर रेसकोर्स स्थित जानवरों के अस्पताल लेकर गए। वहां उसका इलाज कराकर उसे अपने साथ प्रधानमंत्री आवास ले आए। जब मेरे पति सोनू को लेने प्रधानमंत्री आवास पहुंचे तो पूरा गांधी परिवार (इंदिरा, राजीव, सोनिया और संजय) बैठक में सोनू के साथ खेल रहे थे। सोनू गम्भीर रूप से बीमार था और उसे खाना खाने में दिक्कत हो रही थी। राजीव स्वयं उसे खाना खिला रहे थे।’

मृदुला गर्ग कहती हैं- ‘कुत्ता बेहद बीमार था और यह जानते हुए भी कि उसे ‘डिस्टेंपर’ जैसी घातक संक्रमण फैलाने वाली बीमारी है, राजीव स्वयं उसकी देखभाल कर रहे थे। आज भी उनकी सहृदयता को याद करती हूं, तो मेरी आंखें नम हो जाती हैं।’

21 मई, 1991 को चुनाव-प्रचार के दौरान तमिलनाडु के श्रीपेरमबदुर शहर में लिट्टे उग्रवादियों ने राजीव गांधी की निर्मम हत्या कर देश से ऐसे समय में एक दूरदर्शी और संवेदनशील प्रवृत्ति के राजनेता को छीन लिया जो अपनी गलतियों से सीख लेकर एक परिपक्व राजनेता में तब्दील हो चला था। बकौल कुलदीप नैयर- ‘भारत ने उन्हें ऐसे समय में खो दिया, जब वे बतौर राजनेता परिपक्व हो चले थे। अब उन्हें पता चल चुका था कि प्रधानमंत्री होना किसे कहते हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान था-पंचायतों को पुनर्जीवित करना, उनके नाना जवाहरलाल नेहरू इस सपने को जीते थे। राजीव तकनीकी रूप से दक्ष थे और उन्होंने सरकारी कार्यालयों में कम्प्यूटर्स की शुरुआत की। अपने मित्र सैम पित्रौदा की मदद से उन्होंने सॉफ्टवेयर क्रांति की शुरुआत की, जिसने भारत की आर्थिक प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।’

दलित चेतना के उभार और उग्र हिंदुत्व के पुनर्जागरण के दशक की शुरुआत विश्वनाथ प्रताप सिंह के भारत के सातवें प्रधानमंत्री के तौर पर 2 दिसम्बर, 1989 को शपथ ग्रहण के साथ हुई थी। उनके कार्यकाल की बाबत बात करने से पहले 80 के दशक में कट्टर हिंदूवादी ताकतों और दलित चेतना के उभार पर प्रकाश डालना आवश्यक है, क्योंकि इन दो मुद्दों ने 90 के दशक में भारतीय राजनीति और समाज को गहरा प्रभावित किया था। इतना गहरा कि वर्तमान समय में इसका प्रभाव चौतरफा पसर चुका है।

पहले बात साम्प्रदायिकता और राजनीति के मध्य दुरभि संधि की। प्रख्यात चिंतक और प्रगतिशील विचारक असगर अली इंजीनियर ने भारत में साम्प्रदायिकता का विस्तृत विश्लेषण अपनी पुस्तक- ‘Communalism in India, A Historical and Empirical Study’ में किया है। बकौल इंजीनियर- ‘यह गौरतलब है कि साम्प्रदायिकता किसी धर्म विशेष के सामुदयिक हितों की रक्षा नहीं करती है। इसके जरिए साम्प्रदायिक प्रश्नों के बजाए समूह विशेष को सुहाने वाले मुद्दों के लिए संघर्ष पैदा किया जाता है। निःसंदेह ऐसे समूह विशेष अक्सर धर्म के नाम पर आह्वान धार्मिक विश्वास के लिए नहीं, बल्कि अपने कृत्यों को धर्म के नाम पर वैध साबित करने के लिए करते हैं। 19वीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता जनता द्वारा नहीं, बल्कि शिक्षित अभिजात वर्ग के परस्पर विरोधी हितों के चलते उत्पन्न हुई है।’

ब्रिटिश सरकार ने अपने लम्बे शासनकाल के दौरान हिंदू- मुस्लिम के मध्य फूट डालकर शासन करने की नीति को बढ़ावा दे अपने हितों को साधा और तराशा था। भारतीय मुस्लिम लीग को कांग्रेस के खिलाफ करने में ब्रिटिश हुकूमत का बड़ा योगदान रहा। प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार और धर्मशास्त्री मौलाना शिबली नोमानी ने 1912 में अपने एक लेख में मुस्लिम लीग को स्वार्थी एवं ब्रिटिश चाटुकारों का ऐसा समूह करार दिया था, जिसका आम जनता से कोई लेना-देना नहीं था। मुस्लिम लीग का नेतृत्व आगे चलकर अभिजात्य शिक्षित वर्ग के हाथों में चला गया, लेकिन तब भी उसका आमजन के साथ कोई नाता नहीं बन पाया था। लीग से ठीक उलट कांग्रेस की पैठ सीधे आमजनता के बीच थी।

क्रमशः

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