Editorial

असमंजसता की जकड़ में अखिलेश

मेरी बात

आजाद भारत का पहला आम चुनाव अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के मध्य हुआ था। 489 सीटों के लिए हुए इस चुनाव में कांग्रेस को 364 सीटों पर जीत मिली। समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी मात्र 12 सीटें जीत पाई थी। मई 1952 में पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए डॉ. लोहिया ने कहा था- ‘सोशलिस्ट पार्टी को अस्थाई धक्का लगा है। अगर वह हताशा में हाथ-पैर मारेगी और कृत्रिम रूप से ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करेगी तो दूसरी कई पार्टियों की तरह ही बनेगी जिनके पास दिशा-निर्देशक नहीं हैं। पार्टी की परीक्षा विपत्ति के समय ही होती है। क्या सोशलिस्ट पार्टी इसका सामना कर सकती है? इसके लिए उसे समय की प्रतीक्षा और तैयारी करनी होगी, अपने आधार को मजबूत बनाना होगा तथा अपने उत्साह को प्रशिक्षित करना होगा…वर्तमान मानव सभ्यता टूट रही है और उसे केवल समाजवाद ही नया युग दे सकता है। जीत या तो बर्बरता की होगी या समाजवाद की। बीच का रास्ता नहीं है। समाजवाद को और भी पराजयों का सामना करना पड़ सकता है। जो लोग नई सभ्यता के निर्माण के लिए निकलते हैं उन्हें पराजयों के लिए तैयार रहना पड़ेगा, संघर्ष करने और पराजित होने तथा फिर संघर्ष करने के लिए तैयार होना पड़ेगा।’ डॉ. लोहिया की विचारधारा से पैदा हुई समाजवादी पार्टी के वर्तमान कर्णधार अखिलेश यादव इन दिनों गहरी असमंजसता से जूझते प्रतीत हो रहे हैं। उन्हें भारतीय जनता पार्टी की धर्म आधारित राजनीति के चक्रव्यूह से निकलने का मार्ग नजर नहीं आ रहा है। ‘धरती पुत्र’ कहलाए गए मुलायम सिंह यादव द्वारा स्थापित समाजवादी पार्टी अपने स्थापना काल (1992) से ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत को अपना मूल आधार और दर्शन बताती रही है। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। अगले वर्ष 1993 में हुए मध्यावधि चुनाव मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी संग गठबंधन कर लड़ा था। यह वह दौर था जब देश, विशेषकर उत्तरी भारत में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति अपने चरम पर जा पहुंची थी। धर्म और राजनीति के धालमेल की ताकत मुलायम सिंह समझते थे। उन्होंने इसकी काट के लिए ही बसपा संग गठजोड़ किया था। उन दिनों एक नारा खासा चर्चित हुआ था- ‘मिले मुलायम-कांशी राम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम’। इस नारे का इतना भारी असर रहा कि भाजपा उत्तर प्रदेश की सत्ता दोबारा पाने में विफल रही थी और सपा-बसपा ने राज्य में गठबंधन की सरकार बनाने में सफलता पाई थी। भाजपा की धर्म आधारित राजनीति से खुलकर मोर्चा लेने वाली समाजवादी पार्टी आज लेकिन भारी पशोपेश में है। वह अब कांग्रेस की तर्ज पर ‘नरम हिंदुत्व’ का मार्ग पकड़ती नजर आने लगी है। 22 जनवरी को अयोध्या में होने जा रहे प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में न्यौता मिलने पर खुद के अथवा समाजवादी पार्टी के किसी प्रतिनिधि के शामिल होने अथवा न होने को लेकर अखिलेश यादव की असमंजसता तो कम से कम यही इशारा कर रही है। मुलायम सिंह यादव वामपंथियों को अपना स्वभाविक मित्र मानते थे। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को लेकर वामपंथी दल दो टूक अपनी बात कह चुके हैं। इन दलों का मानना है कि यह एक धार्मिक कार्यक्रम न होकर भाजपा का राजनीतिक अनुष्ठान है इसलिए वे इसमें शामिल नहीं होंगे। अखिलेश लेकिन ऐसा कह पाने का साहस नहीं दिखा पार रहे हैं। लोहिया बीच के रास्ते अवधारणा के सख्त खिलाफ थे लेकिन उनकी विचारधारा के संवाहक अखिलेश आज इसी बीच के रास्ते को तलाशते नजर आ रहे हैं। इसे उनकी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्या के बयानों के बाद अखिलेश की असहजता से समझा जा सकता है। मौर्या ने पहले तो रामचरित्र मानस को लेकर भड़काऊ बयान दिया फिर गत् वर्ष दीपावली के समय लक्ष्मी को लेकर भी अनावश्यक बयानबाजी कर डाली। निश्चित ही राजनीतिक दृष्टि से स्वामी प्रसाद के बयान समाजवादी पार्टी के हित अनुरुप नहीं हैं। जब चौतरफा धर्म की आंधी बहुसंख्यक आबादी को अपनी चपेट में ले चुकी हो, उनके धर्म पर प्रहार करना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न लेकिन यह कि अखिलेश अपने साथी के बयानों को लेकर डिफेंसिव मोड़ में क्यों जाते नजर आ रहे हैं? प्रश्न यह भी कि क्योंकर वह भाजपा की धर्म आधारित राजनीति का खुलकर विरोध करने के बजाय नम्र हिंदुत्व की राह पर चलते नजर आ रहे हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि अखिलेश अपने कोर वोट बैंक पिछड़ा वर्ग को साधे रखने में विफल रहे हैं। भाजपा के आक्रमक हिंदुत्व ने मंडल की राजनीति के सबसे अभेद दुर्ग में दरार पैदा करने का काम कर दिखाया है। कभी स्वर्ण जातियों के प्रति विद्वेष की भावना रखने वाले इस वर्ग भीतर भी अब खुद के ‘हिंदू’ होने की भावना जागृत हो चली है जिसका सीधा नुकसान समाजवादी पार्टी को बीते दो विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव के दौरान उठाना पड़ा। यह एक बड़ा कारण है जिसके चलते अखिलेश यादव सपा की धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत के मार्ग को छोड़ नरम हिंदुत्व की पगडंडी पर चलने का प्रयास कर रही है। मेरी समझ से अखिलेश की यह असमंजसता समाजवादी विचारधारा के लिए और स्वयं समाजवादी पार्टी के लिए सही नहीं है। जो भूल कांग्रेस ने 1989 के चुनावों में की थी और उसके बाद लगातार करती रही है, वही भूल अखिलेश कर रहे हैं। कांग्रेस ने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल के दौरान पहले तो मुस्लिम तृष्टिकरण के लिए उच्चतम् न्यायालय द्वारा तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा करने वाला महत्वपूर्ण शाहबानो फैसला राजीव गांधी ने संसद में नया कानून बना पलट दिया था। इसके बाद हिंदुओं को साधने की नीतय से 1986 में बाबरी मस्जिद परिसर में दशकों से बंद पड़े राम मंदिर के ताले खुलवा नरम हिंदुत्व की राह पकड़ने की ऐतिहासिक भूल की जिसका नतीजा 80 के पूर्वाध में शुरु हुए राम मंदिर निर्माण आंदोलन के बतौर सामने आया। इस आंदोलन ने भाजपा को मजबूत जमीन देने का काम किया था और उत्तर प्रदेश और उसके बाद धीरे-धीरे हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में कांग्रेस की जमीन लगातार छिनती चली गई। यही हाल वर्तमान में समाजवादी पार्टी का है। वह भाजपा की धर्म आधारित राजनीति की काट के लिए खुद को कभी राम भक्त साबित करने, कभी कृष्ण मंदिर की बात करने, यहां तक की हिंदुत्व की राह पर चल परशुराम के नाम को जपने का काम कर कांग्रेस द्वारा अतीत में की गई गलती को दोहरा अपनी विचारधारा के साथ समझौता करती नजर आती है।

डॉ. लोहिया कहा करते थे कि कमजोर हड्डी से राजनीति नहीं की जा सकती। नरम हिंदुत्व की राह पकड़ समाजवादी पार्टी का केवल और केवल गर्त में जाना तय है। आज जरूरत ऐसे योद्धा की है जो धर्म और राजनीति के दलदल में पूरी तरह धस चुके समाज का ध्यान असल मुद्दों की तरफ वापस ले जाने की रणनीति बनाए। धर्म आधारित राजनीति का असर भले ही 2024 के लोकसभा चुनाव तक बना रहे, यह तय है कि आज नहीं तो कल जनता बुनियादी सवालों का जवाब अपने रहनुमाओं से मांगेगी जरूर। तब शायद सामाजिक समरसता की बात करने वालों को, साम्प्रदायिक सद्भाव पर भरोसा करने वालों को और समाजवाद के मूल्यों को ढोने वालों को सुना-समझा जाएगा। अखिलेश यादव को उस समय का इंतजार करना चाहिए और कृत्रिम रूप से ध्यान आकर्षित करने वाली प्रवृत्ति पर रोक लगानी चाहिए। समाजवादी पार्टी को पहले की अपेक्षा अधिक समृद्ध कार्यक्रमों के साथ जनता के पास जाना होगा। किसानों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों के लिए अपनी प्रतिबद्धता के साथ-साथ उसे आबादी के अन्य हिस्सों के प्रति, जैसे तेजी से उभर रहा मध्यम वर्ग, युवा वर्ग इत्यादि को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए नए विचारों को आत्मसात करना होगा। महिलाओं के प्रति अपनी रणनीति को ज्यादा प्रभावी बनाने की जरूरत समाजवादियों को है। लोहिया कहते थे ‘महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बिना समाजवादी सरकार, दुल्हन बगैर शादी जेसी है। न केवल महिलाएं नस्ल के स्वास्थ और नई पीढ़ियों के विकास के लिए सीधे जिम्मेदार होती हैं बल्कि वे शांतिपूर्ण सत्याग्रह की मुख्य शक्ति भी होती हैं।’
समाजवादी सोच के लिए यह बेहद कठिन समय है। पूंजीवाद की चमक लेकिन स्थाई नहीं रहेगी। तब तक अपने विचारों और अपने मूल्यों के प्रति आस्था बनाए रख यदि अखिलेश अपने संगठन को मजबूत करने का काम करेंगे तो ठीक वरना उनका हाल भी कांग्रेस और बसपा सरीखा होते देर नहीं लगेगी।

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