मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की एकतरफा जीत ने अहसास करा दिया है कि 2014 के बाद देश कितना बदल चुका है। अब चुनाव मुद्दों के बजाय व्यक्ति केंद्रित हो चले हैं। प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसा ब्रांड बन उभर चुके हैं जिसकी काट विपक्ष बीते नौ वर्षों में कर पाने में विफल रहा है। तेलंगाना में कांग्रेस की जीत के पीछे एक बड़ा कारण वहां भाजपा का जमीनी आधार न होना रहा। तीन राज्यों में मिली जीत के बाद यह तय है कि अब भाजपा 2024 का चुनाव सिर्फ और सिर्फ मोदी के नाम पर लड़ेगी। हर चुनाव में मोदी को रणभूमि में उतारने और बाकी मुद्दों को फोकस से बाहर करने की रणनीति दिल्ली छोड़ हर जगह कामयाब रही है। भाजपा के लिए चुनाव का मतलब मोदी हो गया है। दूसरी तरफ राहुल गांधी अपने अथक प्रयास के बावजूद सफल नहीं हो पा रहे हैं। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि राहुल द्वारा उठाए जा रहे अहम मुद्दे हिंदुत्व की आंधी के समक्ष टिक नहीं पा रहे हैं
हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को मिला प्रचंड बहुमत के बाद एक ओर जहां विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का भविष्य अंधेरे में जाता हुआ नजर आ रहा है वहीं दूसरी तरफ जिस तरह से हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा का ग्राफ बढ़ रहा है उसे लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या आम चुनाव 2024 में भाजपा की जीत तय है? क्या पीएम मोदी को जीत की हैट्रिक लगाने में कोई दिक्कत नहीं होगी? और क्या इन तीन राज्यों में जीत का सबसे बड़ा कारण मोदी की वह करिश्माई छवि है जिसे ध्वस्त कर पाने में विपक्ष नाकाम रहा है?
गौरतलब है कि भाजपा ने इन तीनों राज्यों में किसी को भी अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में घोषित नहीं किया था। यहां तक कि मुख्यमंत्री शिवराज और पूर्व मुख्यमंत्रियों रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया और उनके समर्थकों को भी सिर्फ टिकट दे जोड़े रखा।
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि कोई भी चुनाव किसी एक मुद्दे पर नहीं जीता जाता, लेकिन प्रधानमंत्री ने ही आगे बढ़कर अभियान का नेतृत्व किया। तो जाहिर है इन सभी राज्यों में उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है। अगर पार्टी एक ट्रेन है तो पीएम मोदी उसके इंजन है। भाजपा की रणनीति सभी राज्यों में प्रधानमंत्री के चेहरे को आगे रख वोट मांगने की रही। इन राज्यों में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह व अन्य स्टार प्रचारकों ने चुनावी रैलियों में बार-बार कहा कि अगर लोग 2024 में मोदी को चाहते हैं तो उन्हें राज्य चुनावों में भी उनके लिए वोट करना चाहिए। इस बार सीएम कौन होगा, इस मुद्दे को चर्चा का केंद्र बनने ही नहीं दिया गया। लोगों को आश्वासन दिया गया कि उनके वोट से पीएम मोदी मजबूत होंगे।
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान इन तीन प्रदेशों में भाजपा की एकतरफा जीत ने अहसास करा दिया है कि 2014 के बाद देश कितना बदल चुका है। अब चुनाव मुद्दों के बजाए व्यक्ति केंद्रित हो चले हैं। प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसा ब्रांड बन उभर चुके हैं जिसकी काट विपक्ष बीते नौ वर्षों में कर पाने में विफल रहा है। तेलंगाना में कांग्रेस की जीत के पीछे एक बड़ा कारण वहां भाजपा का जमीनी आधार न होना रहा। तीन राज्यों में मिली जीत के बाद यह तय है कि भाजपा 2024 का चुनाव सिर्फ मोदी के नाम पर लड़ेगी। हर चुनाव में मोदी को रणभूमि में उतारने और बाकी मुद्दों को फोकस से बाहर करने की रणनीति दिल्ली छोड़ हर जगह कामयाब रही है। भाजपा के लिए चुनाव का मतलब मोदी हो गया है।
मोदी सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं और राज्यों की सरकारों की भी विकास योजनाओं ने बड़ी तादाद में भाजपा का समर्थक वर्ग तैयार किया। महिलाओं ने खुलकर भाजपा का साथ दिया उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा जिस तरह सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की नीति पर काम कर रही है, वहीं भारत के अन्य राजनीतिक दल हिंदुओं की आस्था पर प्रहार करने और सनातन धर्म की आलोचना में अपनी शक्ति जाया कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी। किस काम को कब करना है, जब तक इस रणनीति पर वे काम नहीं करेंगे, तब तक वे
भाजपा का विजय रथ रोकने में कामयाब नहीं हो सकेंगे।
दूसरी तरफ राहुल गांधी अपने अथक प्रयास के बावजूद सफल नहीं हो पा रहे हैं, राजनीतिक पंडितों का मानना है कि राहुल द्वारा उठाए जा रहे अहम मुद्दे हिंदुत्व की आंधी के समक्ष टिक नहीं पा रहे हैं। उत्तर भारत की बात करें तो इन चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस की अब पूरे उत्तर भारत में सिर्फ हिमाचल प्रदेश में सरकार है। जबकि दक्षिण में कांग्रेस को कर्नाटक के बाद तेलंगाना में सरकार बनाने का मौका मिला है। यानी देशभर में कुल तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है। इसके अलावा, झारखंड, बिहार, तमिलनाडु की सरकार में कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा है। दूसरी तरफ उत्तर भारत और हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेश,उत्तराखण्ड, हरियाणा में बीजेपी की सरकार है। बीजेपी की असम, गोवा, गुजरात, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश में भी सरकार है। चार राज्यों महाराष्ट्र, नागालैंड, सिक्किम, मेघालय और पुडुचेरी में सत्तारूढ़ गठबंधन में है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बंपर जीत तो मिली, लेकिन दक्षिण के कई राज्यों में खाता तक नहीं खुल पाया, कर्नाटक एक अपवाद है, जहां बीजेपी को 29 में से 25 सीटों पर जीत मिली थी। दक्षिण के राज्यों में 130 लोकसभा सीटें हैं, जिसमें से फिलहाल बीजेपी के पास 29 सीटें हैं। जबकि कांग्रेस के पास 27 लोकसभा सीटें हैं।
तेलंगाना ने दी कांग्रेस को राहत
तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव के परिवारवाद और भ्रष्टाचार से तो जनता में नाराजगी थी ही, सत्ता विरोधी लहर भी उनके खिलाफ थी। कांग्रेस को तो बस अवसर मिल गया। भाजपा के शीर्ष नेताओं के चुनावी भाषणों ने भी राज्य में केसीआर की हालत पतली कर दी। 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन की कुछ खास नहीं कर पाई जबकि यहां की 44 सीटों पर मुस्लिम मतदाता अच्छा-खासा असर डालते रहे हैं। अक्टूबर में तेलंगाना में लक्ष्मी बैराज क्या ढहा, केसीआर की मुसीबतें बढ़ती चली गईं। उनकी बेटी का नाम दिल्ली के शराब घोटाले से भी जुड़ा, इन स्थितियों ने टीआरएस का नाम बदलकर बीआरएस करने और क्षेत्रीय राजनीति की बजाय राष्ट्रीय राजनीति में कदम बढ़ाने का खामियाजा भी केसीआर को इस चुनाव में शिकस्त के रूप में झेलना पड़ा है। यह और बात है कि कांग्रेस ने तेलंगाना में जातिगत जनगणना कराने और दलितों, पिछड़ों की आरक्षण सीमा बढ़ाने जैसी छह गारंटियां भी दी, जिसमें मुफ्त महिला बस पास, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, किसानों और बटाईदारों को 15 हजार रुपए प्रति एकड़ देने जैसे वादे भी शामिल थे।
उत्तर भारत में भाजपा की स्थिति
वर्ष 2019 में बीजेपी ने कई राज्यों की सभी लोकसभा सीटें जीतीं, इनमें गुजरात की सभी 26, हरियाणा की 10, हिमाचल की 4, उत्तराखण्ड की 5, दिल्ली की सातों सीटें जीतीं, राजस्थान की 25 में 24 सीटों पर जीत मिली, एक सीट पर सहयोगी दल को जीत हासिल हुई। बिहार की 17 सीटें, छत्तीसगढ़ की 11 में से 9 सीटें जीती, जम्मू-कश्मीर की 6 में से 3 सीटें जीती। झारखंड की 14 में से 11 सीटें, मध्य प्रदेश की 29 में से 28 सीटें, महाराष्ट्र की 48 में से 23 सीटें, उड़ीसा की 21 में से 8 सीटें, यूपी की 80 में से 62 सीटें, पश्चिम बंगाल की 42 में से 18 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली, नार्थ ईस्ट में त्रिपुरा की दोनों सीटों पर बीजेपी का कब्जा है। अरुणाचल प्रदेश की दोनों सीटों पर भी बीजेपी के ही सांसद हैं, आंकड़ों को देखने के बाद साफ जाहिर है कि बीजेपी उत्तर भारत के कई राज्यों में अपना दबदबा बना चुकी है।
दक्षिण से होगी नुकसान की भरपाई?
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के दरमियान उत्तर भारत के कुछ राज्यों में बीजेपी की सीटें कम हो सकती हैं। ऐसे में उस नुकसान की भरपाई सिर्फ दक्षिण भारत के राज्यों से ही हो सकती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में बीजेपी का प्रदर्शन काफी खराब रहा था। आंध्र प्रदेश की 25 सीटों में से वाईएसआरसीपी के खाते में 22 सीटें गई थी। जबकि तीन सीटों पर टीडीपी का कब्जा रहा था, बीजेपी का खाता भी नहीं खुल सका था। केरल में बीजेपी शून्य पर ही रही थी, लेकिन इस बार चुनाव से पहले केरल में सामाजिक समीकरणों को दुरुस्त किया जा रहा है। वहां बीजेपी क्रिश्चियन अल्पसंख्यकों पर फोकस कर रही है।
पिछली बार तेलगांना में बीजेपी को 4 सीटें मिली थीं, जिसके चलते इस राज्य से उम्मीद जगी। तमिलनाडु में 2021 के विधानसभा चुनाव में एआईएडीएमके के साथ गठबंधन में बीजेपी ने 4 सीटों पर जीत हासिल की थी। तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटें हैं। इसलिए भाजपा वन नेशन और राष्ट्रवाद के फॉर्मूले पर फोकस किए है। दक्षिण में पार्टी इस समय कल्चरल नेशनलिज्म यानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जोर, करप्शन पर चोट और दक्षिण के लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाने की कोशिश कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि भाजपा की कोशिश है कि जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत किया जाए। अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी लोकप्रिय हस्तियों को पार्टी से जोड़ा जाए और मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता स्थापित करना है। वे यह भी कहते हैं कि केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक की चार प्रमुख हस्तियों पीटी ऊषा, इलैयाराजा, वीरेंद्र हेग वी. विजयेंद्र प्रसाद को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जाना भी इसी रणनीति का हिस्सा है। तेलंगाना को छोड़कर आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस की हालत खस्ता है। कांग्रेस के कैडर, लीडर और वोटर तेजी से दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं।
हैट्रिक की तरफ इशारा करते नतीजे
जानकार कहते हैं कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में शानदार प्रदर्शन ने 2024 के आम चुनाव के लिए भी मंच तैयार कर दिया है। इस बीच पीएम मोदी ने अपने बयान में भी कहा कि चुनावों में बीजेपी की हैट्रिक 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की ‘हैट्रिक’ की गारंटी है। कुल मिलाकर हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा-संगठन की ताकत और मोदी के करिश्मे के सामने कांग्रेस लड़ नहीं पा रही है। मोदी भाजपा के समर्थकों के साथ नाता बनाकर रखते हैं और अमित शाह उन्हें संगठन की ताकत से पोलिंग बूथ तक पहुंचा देते हैं। ये जुगलबंदी कांग्रेस पर भारी पड़ती नजर आ रही है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पार्टी के अंदरूनी दबाव के बावजूद भाजपा ने किसी को भी सीएम का उम्मीदवार नहीं बनाया था। तीनों राज्यों के परिणाम देखकर कह सकते हैं कि मोदी की गारंटी मतदाताओं में विश्वास पैदा कर गई।
छत्तीसगढ़ के परिणाम तो सभी को चौंका गए। भाजपा के प्रभारी मनसुख मांडविया ने ‘महतारी वंदना योजना’ के तहत 43 लाख महिलाओं से फॉर्म भरवाए हैं। युवाओं को 1 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया गया है। किसानों को 3100 रुपए एमएसपी का भाव देने का वादा किया गया और ये सब वादे मोदी की गारंटी के साथ घर-घर पहुंचाए गए, जिससे बाजी पलट गई। कांग्रेस के लिए चिंता की बात ये है कि जहां भी भाजपा से उसका सीधा मुकाबला होता है, वहां मोदी का करिश्मा पार्टी को बढ़त दे देता है। इस बार चुनाव में रेवड़ी पॉलिटिक्स ने बड़ी भूमिका अदा की है। ये मानना पड़ेगा कि भारतीय राजनीति में गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त सरकारी सुविधाएं वोट दिलाती हैं। लेकिन लोग उन्हें कल्याणकारी योजना ज्यादा मानते हैं, मुफ्त की रेवड़ी नहीं। मोदी ने जबर्दस्त साहस ये किया कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान या किसी अन्य चेहरे की जगह दिल्ली से आकर विकास के काम करने की और कल्याणकारी योजनाओं के अमलीकरण की गारंटी दी और वोट मांगे और लोगों ने वोट दिए भी। जो एक बड़ा फर्क नजर आया है कि इन चुनावों ने भारतीय राजनीति में महिलाओं के मतों का मूल्य बढ़ा दिया है। अब उनको कोई नजरंदाज नहीं कर पाएगा। ‘लाडली बहना योजना’ ने शिवराज की डूबती नैया जिस तरह बचाई है, उसे भाजपा कभी भूल न पाएगी।
मध्य प्रदेश में महिलाओं का मतदान भी 2 फीसदी ज्यादा हुआ। इस चुनाव में देखा गया कि महिलाओं का मुद्दा मजबूत होने के कारण कांग्रेस के प्रचार में भी राहुल से ज्यादा प्रियंका का बोलबाला रहा। प्रियंका आम आदमी के मुद्दे उठाने में राहुल से ज्यादा सफल रही हैं।
कांग्रेस के लिए संकट की बात ये है कि जिन-जिन मुद्दों को राहुल ने बढ़-चढ़कर उठाया उनमें से किसी को भी मतदाताओं ने अपना नहीं समझा। जैसे कि जातिगणना का मुद्दा। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कहीं भी ये ना गर्म बना, ना वोट दिला पाया। यही हाल अडानी के खिलाफ चली मुहिम का हुआ। आम आदमी इन मुद्दों को समझता है। गंभीर भी मानता है लेकिन वोट करते समय वो खुद के और अपने परिजनों के भविष्य को नजर में रखता है। बहरहाल यह मोदी मैजिक ही है जिसने हिंदी पट्टी वाले राज्यों में विपक्ष या कहें कि नवगठित इंडिया गठबंधन के सपने धराशाई कर दिए हैं। ऐसे में सवाल है कि मध्य प्रदेश में ‘लाडली बहना योजना’ ने कमल के लिए कमाल का काम किया, लेकिन छत्तीसगढ़ में आखिर ऐसा क्या हुआ जो गाय, गोबर, गोठान, महतारी योजना, आत्मानन्द स्कूलों के बाद भी नतीजे एकदम उम्मीद से इतर आए? जबकि
राजस्थान में जादूगर अशोक गहलोत का चलते दिख रहे जादू पर भाजपा का जादू भारी पड़ गया। प्रधानमंत्री मोदी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग भी कदाचित मतदाताओं को रास नहीं आया। सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच राजनीतिक जंग कांग्रेस का पत्ता साफ करने में मील का पत्थर साबित हुई। सचिन पायलट की नाराजगी और बगावत को तो कुछ महीनों पहले कांग्रेस ने थाम जरूर लिया लेकिन दोनों नेताओं और उनके समर्थकों के मनोमालिन्य को दूर करने की दिशा में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व कुछ खास नहीं कर सका। इसका नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस का राज बदल गया लेकिन राजस्थान की हर पांच साल में सरकार बदलने का रिवाज यथावत कायम रही। भाजपा को पता था कि राजस्थान में मुख्यमंत्री को चेहरा घोषित करना उसके लिए भारी पड़ सकता है। इसलिए उसने कमल को ही सीएम चेहरा माना और यह उसके लिए बेहद फायदेमंद रहा।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने भी सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए कोशिश नहीं की। परन्तु सच्चाई यही है कि कांग्रेस संगठनात्मक तौर पर भाजपा के मुकाबले 19 नहीं, बल्कि 8-10 ही रह गई है। बरसों पुराने कार्यकर्ता, नई टीम का अभाव, लोगों से जुड़ाव पर ध्यान नहीं देना, हर गांव, शहर के छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भोपाल कनेक्ट दिखाना और प्रदेश के कई नेताओं के अनजान कस्बों में लगे होर्डिंग से कांग्रेस वैसा संपर्क नहीं कर पाई जो स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता नगर, वार्ड, बूथ और पन्ना प्रमुख कर सके। बस यही वह तमाम कारण थे जिस कारण कांग्रेस जनता से कनेक्ट नहीं कर पाई। उल्टा सरकार विरोधी लहर के जुमले के सहारे मनगढ़ंत और झूठे सपने देख बड़े-बड़े ख्वाब देखना तथा प्रदेश चुनाव संचालन को दिल्ली की टीम के हवाले करना भी कांग्रेस को इतना महंगा पड़ गया कि 2018 के आंकड़ों से भी पिछड़ गई और भाजपा 2003 जैसे सम्मानजनक स्थिति में पहुंच गई।
संकट में इंडिया गठबंधन
इंडिया गठबंधन के बिखराव का नतीजा भी सामने है। जागे बहुत कुछ और दिखेगा। किन-किन राज्यों में सपा, बसपा और आम आदमी पार्टी ने किस-किस को कितना नुकसान पहुंचाया और किसकी जीत-हार का अंतर कम किया। किसको जीतने से रोका तथा किसने अनजाने या जान-बूझकर भाजपा-कांग्रेस को जीत या हार दिलाई जैसी चर्चाएं और डिबेट आगे बहुत दिखेंगे। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव कांग्रेस से अपनी पार्टी के लिए कुछ सीटें चाहते थे लेकिन कमलनाथ ने अखिलेश-वखिलेश जैसी टिप्पणी कर न केवल अखिलेश यादव के क्रोध का पारा बढ़ा दिया, बल्कि उन्हें मध्य प्रदेश की 74 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने को भी विवश किया। बहरहाल अभी तो भाजपा ही सिवाय तेलंगाना के अजेय दिखती है और हिन्दी पट्टी में ऐसी जीत के बहुत बड़े मायने हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का अपना कोई आधार नहीं है और यहां लोकसभा की चुनावी वैतरणी पार करने के लिए उसे समाजवादी पार्टी की नौका पर ही सवार होना पड़ेगा। दूध का जला छांज भी फूंक कर पीता है। अखिलेश यादव भले ही मध्य प्रदेश में सियासी जंग हार गए हों लेकिन वैचारिक रूप से वे कांग्रेस को शिकस्त देने में सफल हो गए हैं। अखिलेश मजबूरी में भी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में उतनी सीटें तो देने से रहे जो राहुल के प्रधानमंत्री बनने की जरूरत पूरी कर सके। ममता बनर्जी का भी कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में कुछ ऐसा ही रवैया रहने वाला है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस को कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की अंदरूनी कलह से भी बड़ा नुकसान हुआ है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रति दोनों नेताओं के स्तर पर बोले गए अपशब्दों ने भी मध्य प्रदेश में खासकर चंबल परिक्षेत्र में कांग्रेस का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इन नतीजों से कांग्रेस के लोग ही विचलित होंगे, ऐसा नहीं है। लालू यादव के कुनबे और नीतीश कुमार की तैयारियों पर भी बल पड़ना स्वाभाविक है। जातिगत जनगणना कराकर राजनीतिक लीड लेने वाले नीतीश और लालू को लगा होगा कि वे पिछड़ों के बेताज बादशाह हो जाएंगे। कांग्रेस और सपा का शीर्ष नेतृत्व भी उनकी बिछाई पिच पर खेलने लगा था जिसकी जितनी आबादी, उतनी उसकी भागीदारी का राग देश के हर उस राज्य में अलापा जाने लगा था जहां गैर भाजपा सरकारें हैं लेकिन इसकी काट में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीब किसान-महिला और युवा को ही सबसे बड़ी जाति माना और उनके समग्र उत्थान की दिशा में बढ़ते रहे, तीन राज्यों में भाजपा के पक्ष में आए चुनाव नतीजे इसी सोच की परिणीति है।
इन चुनावों में जातीय जनगणना का मुद्दा भी कुछ खास असर डालने में विफल साबित हुआ है, ऐसे में नीतीश-लालू, और उन जैसी सोच के दूसरे नेताओं को वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में कुछ और तरकीब निकालनी होगी। वैसे भी हिंदी बहुल राज्यों में राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान नहीं चल पाई। लोगों ने विकास को तरजीह दी। पीएम मोदी की गारंटी पर यकीन किया। जातिगत आरक्षण के सहारे सामाजिक ताने-बाने को छेड़ने वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया। विपक्ष बार-बार एक ही प्रयोग दोहराने की जो भूल कर रहा है, मौजूदा चुनाव परिणाम उसका सटीक जवाब है।
तीन राज्यों में कांग्रेस के हार के कारण
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। 2024 के आम चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी के लिए यह जीत बड़े मायने रखती है। इस जीत के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपनी हार के बड़े कारणों पर जरूर सोच- विचार करेगी। यदि ऊपरी तौर पर देखा जाए तो कांग्रेस की हार के जो प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं उनमें सबसे पहला कारण है पार्टी का लचर संगठन।
कांग्रेस का लचर संगठन: जमीनी स्तर पर कांग्रेस का संगठन काफी कमजोर नजर आता है। एक समय था जब कांग्रेस सेवा दल, महिला कांग्रेस, सर्वोदय, यूथ कांग्रेस जैसे संगठन पार्टी के लिए खूब काम करते थे। उनका संपर्क सीधा लोगों से था और सरकार की नीतियों और योजनाओं को आम लोगों तक पहुंचना सरल हो जाता था। परंतु पिछले काफी समय से ये सभी संगठन सुस्त नजर आते हैं। राज्य में सरकार होने के बावजूद वोटरों तक बात न पहुंचा पाना यही बताता है।
नेतृत्व में विश्वास की कमी: सबसे बड़े कारणों में एक कारण यह भी है कि कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर दिखने लगा है। हालांकि ‘भारत जोड़ा यात्रा’ से राहुल गांधी को एक जननेता के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की गई। वह यात्रा जहां-जहां से गुजरी, वहां-वहां लोग जुड़ते भी दिखे, मगर जब तक भीड़ वोटों में तब्दील न हो, तब तक किसी भी नेता का जननेता बन पाना मुश्किल है। कांग्रेस के भीतरी संगठनों में ही नेतृत्व के प्रति विश्वास की कमी नजर आती है, जिसका लाभ सीधे तौर पर भाजपा को मिला है।
गुटबाजी: इस बार मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के अंदर ही बड़ी गुटबाजी देखने को मिली। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के गुटों में तकरार पहले दिन से ही उजागर थी। पूरे पांच सालों तक कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इसे ठीक करने में जुटा रहा। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कई छोटे नेताओं ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया, तब से वह खाली जगह भरी नहीं गई है।
कमजोर कम्युनिकेशन: सवाल है कि कांग्रेस के संगठन कमजोर क्यों हैं? दिखता है कि नेतृत्व की बात संगठन तक साफ- साफ नहीं पहुंच पा रही है। इस बार प्रियंका गांधी ने काफी प्रचार किया और कई तरह के वादे किए परंतु वे वादे लोगों को समझ नहीं आए। इसे दूसरी तरह से कहा जाए तो कह सकते हैं कि प्रियंका अपनी बात लोगों को समझा नहीं पाईं। कमोबेश यही स्थिति राहुल गांधी की भी रही है। उन्होंने प्रचार किया, मगर लोगों से सीधे कनेक्ट नहीं कर पाए। इसके उलट भाजपा में नरेंद्र मोदी समेत सभी नेताओं की बातें लोगों के समझ में आई और चुनाव के नतीजे भी इस बात की गवाही देते हैं।
उलटे पड़ते बयान: कांग्रेस के नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट करने की विफल कोशिश की। हर बार भाषाई सीमा लांघी गई और भाजपा ने इसे अपने पक्ष में मोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विवादित बयान दिया था। कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, ‘मोदी जी, झूठों के सरदार बन गए हैं।’ प्रधानमंत्री मोदी को लेकर इस तरह की बयानबाजी होने से हर बार भाजपा को ही लाभ पहुंचा है।

