अक्टूबर का महीना लगभग खत्म होने वाला है। फिर भी राजधानी दिल्ली में दिन का तापमान 32 डिग्री से ऊपर पहुंच रहा है। रात को छोड़ दें तो दिन में दिल्ली की धरती तप रही है। सिर्फ दिल्ली ही नहीं पूरे विश्व में तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसकी मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है। अगर पृथ्वी के ‘बुखार’ को बढ़ने से रोका नहीं गया तो जीवन पर बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। तीन साल के गहन शोध के बाद हाल में वैज्ञानिकों ने जो रिपोर्ट पेश किया है, उसका सार यही है।

वैज्ञानिकों ने शोध के बाद एक हफ्ते तक दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में तमाम सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ मंथन और बहस की। शोध पत्र और मंथन के बाद आला वैज्ञानिकों ने आशंका जाहिर की है कि यदि धरती के बढ़ते बुखार को कम नहीं किया गया तो प्रलय अवश्य है। वैज्ञानिकों ने इसे ‘आखिरी चेतावनी’ बताया है। संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी (आईपीसीसी) ने दक्षिण कोरिया में बठक के बाद इस रिपोर्ट को जारी किया है। इसमें कहा गया है कि खतरे को कम करने के लिए तापमान वृद्धि को 1 .5 डिग्री सेंटीग्रेट से कम पर रोकना होगा। इसके लिए अगले 12 साल यानी 2030 तक बहुत कुछ बदलना जरूरी है। ये रिपोर्ट आगाह करती है कि स्थितियां नहीं बदलीं तो दुनिया के कई हिस्सों में हालात भयावह हो जाएंगे। अगर तापमान इसी हिसाब से बढ़ता गया तो जीना हराम हो जाएगा। इससे खास तौर पर गरीब मुल्क और टापू देश सबसे पहले प्रभावित होंगे। आर्कटिक में तो लोग रह नहीं पाएंगे। वहां जीवन खत्म हो जाएगा।

इस रिपोर्ट में एक और महत्वपूर्ण बात कही गई है। उसके मुताबिक कार्बन उत्सर्जन घटाने से ही बात नहीं बनेगी। अब एक ऐसी तकनीक चाहिए जिससे वायुमंडल में पहुंच चुके कार्बन को भी सोखना होगा। उसे स्टोर करना होगा। अगर ये हो पाता है तो 1 .5 डिग्री का लक्ष्य शायद हासिल किया जा सकता है। इन सब उपायों को अमलीजामा पहनाने के लिए बहुत बड़े बजट की जरूरत है। इस पर खर्च होने वाले बजट के बारे में भी इस रिपोर्ट में जिक्र किया गया है। रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने इस काम के लिए ग्लोबल जीडीपी की 2 .5 फीसदी पैसा खर्च करने को कहा है। ग्लोबल जीडीपी का 2 ़5 फीसदी राशि 25 खरब डॉलर के करीब होती है। यानी विश्व समुदाय की सरकार इस पर तैयार हो जाए तो इतनी धनराशि हर साल खर्च होनी है। यह धनराशि कम नहीं है। मगर यहां भी कई तरह की दिक्कतें आएंगी। सबसे पहली दिक्कत तो यह होगी कि इसके लिए सभी देशों को तैयार करना होगा, खासकर विकसित राष्ट्र को। उसके बाद सभी देशों से उनके हिस्सा का बजट लेना। बजट इक्ट्ठा होने के बाद उसे ईमानदारी से खर्च करना भी कम मुश्किल नहीं है।

हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर बाधाओं की वजह से दुनिया अब भी आंखें बंद करके बैठेगी तो बाद में खर्च कई गुना और बढ़ जाएगा। तापमान बढ़ता रहा तो दुनिया के दोनों ध्रुवों पर बर्फ पिघलने की रफ्तार तेज होगी। समंदर का जलस्तर बढ़ जाएगा। मालदीव और प्रशांत क्षेत्र के कई द्वीपीय देशों का अस्तित्व खतरे में होगा। दिक्कतें अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी कम नहीं होंगी। लेकिन अफ्रीका और एशिया की विकासशील एवं गरीब देशों की चुनौतियां ज्यादा मुश्किल होंगी। गरीब देश, टापू देश या फिर अल्पविकसित देश ज्यादातर अफ्रीका और दक्षिण एशिया में हैं। इन देशों में इस हालात से निपटने की कोई तैयारी नहीं है, क्योंकि ये गरीब देश अभी अपने लोगों को दो वक्त की रोटी और बुनियादी जरूरतें उपलब्ध कराने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं। अमरीका को अगर इस तरह की दिक्कत का सामना करना पड़े तो वहां बजट है। वहां इससे जूझने की तैयारी होती है। लेकिन गरीब मुल्क में ये तैयारी और ये पैसा लाना बड़ी चुनौती है। इसीलिए वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि तापमान बढ़ने की सबसे ज्यादा मार ये गरीब देश खाएंगे।

भारत के बारे में बात करें तो भारत और इनके जैसे देश के लिए सबसे बड़ा संकट पानी का होगा। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी भारतीय उपमहाद्वीप में बसती है। यहां के अधिकतर देश कृषि पर निर्भर है। भारत सहित इन देशों की कृषि की जान मानसून नाम के तोते में फंसी रहती है। वैज्ञानिक बता चुके हैं कि मानसून में बारिश का ढर्रा बदल रहा है। अब रिमझिम बारिश के दिन कम हो रहे हैं। तेज बारिश के दिन बढ़ रहे हैं। यानी कम समय में ढेर सारा पानी गिर जाएगा। जो आपके तालाब, कुओं, नदी को भरने की बजाए बाढ़ का रूप लेगा। हम लगातार बाढ़ और सूखे का सामना करेंगे। पिछले कुछ सालों से भारत में ऐसा ही मानसून देखने को मिल रहा है। भारत के जिन हिस्सों में बहुत कम बारिश होती थी, वहां तेज बारिश हो रही है और जिस क्षेत्र को अत्यधिक बारिश के रूप में जाना जाता था, वहां बारिश बहुत कम हो गई है।

विशेषज्ञों का आकलन है कि मौजूदा रफ्तार बनी रही तो तापमान तीन से चार डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है। पर्यावरणविद् कहते हैं कि रिपोर्ट में जिन खतरों का जिक्र है, वो सामने दिख रहे हैं। जिस वक्त आईपीसीसी की रिपोर्ट जारी की गई तब दुनिया में सबसे ताकतवर समझे जाने वाला मुल्क अमेरिका माइकल तूफान से बचाव की कोशिश में जुटा था। इसके पहले सितंबर में आए फ्लोरेंस तूफान ने अमरीका में लाखों लोगों को प्रभावित किया था। कुदरत का बदलता मूड दुनिया के हर देश को डरा रहा है। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया में देख चुके हैं। ब्रिटेन में इस बार इतनी गर्मी हुई कि वहां की घास राख बन गई। यहां लोग इस बात से डर गए हैं कि ये स्थिति सब तरफ दिखने लगी है। इसके बाद भी पूरे विश्व की सरकारें नहीं चेती है।

साल 2015 में पेरिस में दुनिया भर के देशों में समहति बनी। जिसमें 21वीं शताब्दी के आखिर तक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य तय किया गया। पर साल 2017 में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने समझौते से किनारा कर लिया। ट्रंप ने चीन और भारत जैसे देशों का हवाला देते हुए समझौते की शर्तों पर सवाल उठाए। जब ज्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले ताकतवर देश ऐसा रुख दिखाएंगे तो क्या संयुक्त राष्ट्र की कोशिशों को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा? इस सवाल पर पर्यावरण मामलों के वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं, ‘हम सभी जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में जब इस बारे में बातचीत होती है तब सभी देशों की सरकारें ऐसे लोगों को भेजती हैं जो कूटनीति से बात करें। जिससे लगे कि वो सब सचेत हैं। लेकिन जब करने का मौका आए तो अपने ऊपर कम से कम जिम्मेदारी लें। करने का मौका आता है तो सभी देश ये कहते हैं कि हां, आपको करना चाहिए। खुद कोई करने को तैयार नहीं है।’

हालांकि बहुत से आम लोगों में जागरूकता आई है। मगर औसत के लिहाज से इनकी संख्या बहुत ही कम है। इसलिए लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार को बहुत काम करने की जरूरत है। वैज्ञानिकों की आम लोगों को सलाह है कि जिस तरह से जी रहे हैं, उसे ही बदलना है। आप खा क्या रहे हैं, उस पर भी ध्यान देना होगा। अगर आप मांस खा रहे हैं, जिसकी वजह से कार्बन उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है। इसलिए आपको अपनी खाने की आदतें भी बदलनी पड़ सकती हैं। आप गाड़ी का इस्तेमाल करते हैं तो उस पर भी ध्यान देना होगा। निजी गाड़ी का कम से कम इस्तेमाल करना होगा। ज्यादा से ज्यादा पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करना चाहिए।

 

‘जरूरी हो जल संरक्षण’

आईपीसीसी की रिपोर्ट और ग्लोबल वार्मिंग पर सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के क्लाइमेट चेंज डिवीजन की प्रोग्राम मैनेजर डॉक्टर विजेता रतानी से बातचीत

आईपीसीसी ने हाल में ही ग्लोबल वार्मिंग पर एक रिपोर्ट जारी की है। उसमें पर्यावरण पर अंतिम चेतावनी दी गई है। आप क्या कहेंगी?
ये रिपोर्ट पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। आईपीसीसी की रिपोर्ट हमें ये कह रही है कि एक डिग्री तापमान पार हो चुका है। अगर अभी दुनिया की ये हालत है तो 1 .5 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने पर स्थिति बहुत गंभीर रूप ले लेगी। रिपोर्ट ये भी कहती है कि अगर तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ता है तो फिर ये प्रलय की बात है। उसके बाद हम न अपने आपको बचा नहीं पाएंगे और न दुनिया को बचा पाएंगे।

रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने ‘अंतिम चेतावनी’ जैसे शब्द प्रयोग किये हैं। क्या वाकई स्थिति भयावह हो गई है?
देखिए, स्थिति भयावह है, इसे कोई नहीं नकार सकता। पर दिन-प्रतिदिन बढ़ते खतरे के बीच उस रिपोर्ट में बातें सिर्फ मायूसी की नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने उम्मीद की खिड़की की तरफ भी इशारा किया है। 1 .5 डिग्री का लक्ष्य हासिल करना बहुत मुश्किल है। लेकिन आईपीसीसी ने उम्मीद बंधाई है कि ये असंभव नहीं है। ये मुमकिन है। ये कितना मुमकिन है, इसका सही इशारा दिसंबर में तब मिलेगा जब दुनिया भर के देश पोलैंड में पेरिस समझौते की समीक्षा के लिए बैठेंगे।

2015 में पेरिस मीट हुई थी। जिसमें सभी देश कार्बन उत्सर्जन घटाने पर राजी हुए थे, पर अमेरिका जैसा देश उस समझौते से बाहर हो गया। इसका क्या असर पड़ेगा?
अेमरिका के समझौते से बाहर आने के बाद दूसरे देशों पर दबाव कई गुना बढ़ गया है। जब अमरीका समझौते से बाहर निकल गया है तो सामान्य सी बात है कि बाकी देशों के ऊपर बहुत दबाव है कि कौन उस जगह को भरेगा। तापमान को डेढ़ डिग्री से नीचे रखने की कोशिशों में दिक्कतें और भी हैं। वैज्ञानिक ऊर्जा हासिल करने और जमीन के इस्तेमाल के तरीकों में बड़े बदलाव की बात कर रहे हैं। शहरों की जीवन शैली के साथ उद्योगों को चलाने के तरीके में भी तब्दीली करनी होंगी। पर कौन आगे आकर करेगा, यह कोई नहीं कहता।

एक आम नागरिक क्या कर सकता है?
बहुत कुछ कर सकता है। हां, उनके प्रयास तत्काल नहीं दिखेंगे। मगर यदि एक-एक कर इंसान की सोच बदलती गई तो पूरा देश यूं ही बदल जाएगा। सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल आम लोग कर सकते हैं। हम बिजली व्यर्थ न करें। अपनी खपत कम करें। महात्मा गांधी का नजरिया था कि उतना ही लीजिए जितनी आपकी जरूरत है। उनकी सोच आज सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। यानी हम बर्बादी कम करें। अमरीका हर साल 40 फीसदी खाना बर्बाद कर देता है। अगर आप हर व्यक्ति की बात नहीं करेंगे तो हर इंसान अपने आपको इस समस्या से दूर समझेगा। उसे लगेगा कि ये हमसे संबंधित नहीं है।

 

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