हिमालयी राज्यों में हर साल जंगल जल रहे हैं। उत्तराखण्ड में तो यह आग कुछ ज्यादा ही बेकाबू है। लेकिन सरकार दावे कर रही है कि सब कुछ नियंत्रण में है

हिमालय के जंगल खूबसूरती, शीतलता और हरियाली के लिए जाने जाते हैं। मगर साल दर साल गर्मी का पारा चढ़ते ही ये जंगल धधकने लगते हैं। जिससे इनका वजूद संकट में है। इस साल उत्तराखण्ड के साथ हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के जंगल आग की चपेट में आ चुके हैं। हजारों हेक्टेयर जंगल जलकर स्वाहा हो गए। सिर्फ जंगल ही नहीं वन्य जीव, वानिकी, पारिस्थितिकी भी खतरे में है। अंग्रेज पहाड़ के जंगलों को हरा सोना मानते थे। अब यह हरा सोना संकट में है। अंग्रजों के शासनकाल में पहाड़ पर यातायात और संचार का विकास यहां की अकूत वन संपदा का दोहन करने के लिए जरूर किया गया था, पर अंग्रजों ने जंगलों का एकतरफा दोहन नहीं किया, बल्कि वे उनके संरक्षण के लिए भी ध्यान देते थे। मगर अब ऐसा नहीं हो रहा है। जिससे पहाड़ी जंगलों की पहचान और वजूद खतरे में है। उत्तराखण्ड में जंगल जगह-जगह धू-धू कर सुलग रहे हैं। २८ मई को आग लगने की २४१ नई द्घटनाएं सामने आई। इसके साथ ही इस सीजन में अब तक आग की द्घटनाएं बढ़कर १७७७ पर पहुंच गई हैं। अब तक ३८५६.४७६ हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। प्रदेश में जब तक बारिश नहीं होती तब तक इसे काबू करना सरकार के वश में नहीं है, क्योंकि सरकारों ने कभी इसका स्थाई समाधन ढूंढ़ा ही नहीं। वर्ष २०१६ में भी जंगलों में ऐसी ही आग फैली थी। उस वक्त आग बुझाने के लिए एमआई १७ हेलीकॉप्टर का प्रयोग किया गया था। तब नैनीताल होईकोर्ट ने इस पर सुनवाई करते हुए अपने निर्देश में कहा था कि आग स्थायी समस्या है। इसे रोकने का पहले से इंतजाम हो। जंगल के बीच में चाल-खाल बनाकर पानी रोकने की व्यवस्था होनी चाहिए। इस दो साल में कुछ हुआ हो, ऐसा लगता नहीं है। तभी तो फायर सीजन शुरू होते ही पहाड़ के जंगल धधकने लगते हैं। वर्ष २०१६ में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने राज्यसभा में एक सवाल का लिखित जवाब में कहा था कि पिछले दो वर्षों में देशभर में जंगलों में आग की ३४,९९१ द्घटनाएं हुई थी। वर्ष २०१४ में सबसे ज्यादा २५३६ द्घटनाएं असम में हुई थी तो २०१५ में मिजोरम में सर्वाधिक आग की २४६८ द्घटनाएं हुई थी। आंध्रप्रदेश जैसे दक्षिण के राज्यों में भी जंगल इसी प्रकार धधकते हैं। इसका सीधा अर्थ है कि जंगलों में आग केवल एक-दो प्रदेशों की समस्या नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय समस्या है। जिसे केंद्र सहित प्रदेश सरकारें बहुत ही हल्के में लेती हैं। पर्यावरण की स्थिति ऐसे ही भयावह है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण को नुकसान ही हो रहा है। ऐसे में जंगलों में आग इसे और बढ़ा रही है। पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखण्ड के जंगलों की आग के बेकाबू होने के कई कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण पहाड़ से लोगों का पलायन है। पहले गांव के लोग आग फैलने से पहले ही जंगलों में जाकर बुझा दिया करते थे। अब हजारों गांव आबादीविहीन हो चुके हैं। वन कर्मचारियों के पहुंचने तक आग बेकाबू हो जाती है। इसके अलावा पहले गांव के लोगों का जंगल पर अधिकार था। वे जंगलों को अपना मानते थे। यहां तक कि अंगेजों ने भी स्थानीय लोगों को जंगल से जोड़े रखने के लिए वन पंचायत जैसी संस्था बनाई। आम लोग तो वन पंचायत को भूल ही गए हैं। सरकार भी भूल गई है और वन अधिकारी भी। १९३१ में ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं पंचायत वन नियम बनाए थे। कहा जाता है कि उत्तराखण्ड में १२,६०० वन पचांयतें बनी हैं। इन्हें एक कानून के तहत अधिकार भी दिया गया है। असलियत यह है कि इन वन पंचायतों का कोई अता-पता नहीं है। अगर ये सक्रिय होती तो आज आग बुझाने के लिए हेलीकॉप्टर से पानी की बरसात नहीं करनी पड़ती। अगर सरकार वनों के लिए अपनी योजनाओं को इन वन पंचायतों के जरिए लागू कराती, इन्हें सक्रिय रखती तो वन अधिकारी, स्थानीय विभागों और वन पंचायत के जरिये आम लोगों के बीच एक रिश्ता जारी रहता। वन पंचायतें दिसंबर-जनवरी के महीने में ही आग बुझाने की तैयारी कर लेती थीं। ऐसा अब नहीं होता है। अंग्रेजों ने अपने समय में यातायात मार्गों के किनारे फायर लाइन बनानी शुरू की। पत्तियों को जमा कर वन विभाग नवंबर- दिसंबर में जला देता था। लोग भी पत्तियों को चुन लाते थे। मगर अब कानून का डर सताता है। बताया जाता है कि एक समय था जब उत्तराखण्ड के लोग चीड़ के पिरूल से कोयला बनाया करते थे। सूखे पत्तों के उपयोग को रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा तो वन विभाग कितने कर्मचारियों से इन पत्तों को चुनवाएंगे। एक गैर सरकारी संस्था ने बागेश्वर और पिथौरागढ़ के बेरीनाग में पिरूल से िबजली बनाना शुरू किया है पर वह काम संसाधनों की कमी के कारण विस्तार नहीं ले पा रहा है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी वैकल्पिक ऊर्जा के लिए पिरूल के इस्तेमाल पर बयान दिया है। देखना होगा कि यह बयान से आगे बढ़ पाता है या नहीं। पहाड़ के जंगलों में आग के लिए चीड़ को खलनायक के रूप में देखा जाता है। मगर चीड़ खलनायक क्यों और कैसे बना, इसे जानना भी दिलचस्प होगा। तीखी ढलान, चट्टानी इलाका, मिट्टी बहुत कम या ना के बराबर हो, पानी बहुत कम हो, तेज और सीधी धूप आती हो, ऐसे स्थानों के लिए चीड़ को प्रकूति ने तैयार किया था। चीड़ का व्यावसायिक इस्तेमाल भी खूब होता है। इस पेड़ की लकड़ी मकान बनाने और दूसरे कामों में इस्तेमाल होती है। चीड़ की कुछ प्रजातियों की लकड़ी कागज बनाने के काम भी आती है। चीड़ के लीसा के डिस्टिलेशन से टरपेंटाइन ऑयल बनता है। अब सवाल यह है कि इतने काम का पेड़ क्यों पहाड़ों के जंगलों में आग की एक वजह बन रहा है। दरअसल, अंग्रेजों ने व्यावसायिक कारणों से चीड़ का बड़े पैमाने पर प्लांटेशन किया। तब प्लांटेशन के साथ चीड़ को टिंबर के लिए काटा भी जाता था, लेकिन १९८१ के बाद १००० मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर हर तरह के पेड़ के काटने पर रोक लग गई। इसका सबसे ज्यादा फायदा चीड़ ने उठाया। चीड़ की एक खासियत ये है कि वो अपने आसपास किसी दूसरी प्रजाति के पेड़ को पनपने नहीं देता। वो बांज, बुरांस और देवदार जैसे मिश्रित वनस्पति के जंगलों में भी बस गया। धीरे-धीरे चीड़ ने बाकी प्रजातियों के पेड़ों की जगह लेना शुरू कर दिया। चीड़ के विस्तार की वजह से जंगलों में आग का भी विस्तार हुआ।

‘मानव जनित है यह आग’

जंगलों को बचाने और उत्तराखण्ड में पानी पर काम कर रहे गांधीवादी एवं पर्यावरणविद् सचिदानंद भारती से बातचीत

जंगलों में आग क्यों लगती है?
जंगलों में आग पेड़-पौधे नहीं लगाते हैं। आग तीली लगाती है। मतलब जंगलों की आग मानव जनित है। यदि समस्या मानव जनित है तो इसे दूर जरूर किया जा सकता है। उत्तराखण्ड के पहाड़ सूखे हैं, क्योंकि यहां पानी संरक्षण नहीं किया जाता। बारिश का पानी बह कर नीचे चला जाता है। जबकि हमें बारिश का पानी पहाड़ पर रोक कर रखना चाहिए। इससे जंगलों में नमी बनी रहेगी और आग फैलेगी नहीं। चीड़ के जंगलों में सबसे ज्यादा आग लगती है, क्योंकि उसकी नुकीली पत्ती में ऑयल होता है। चीड़ के जंगल में आग न लगे इसकी व्यवस्था सरकार या अधिकारी नहीं करते हैं। अभी एक सप्ताह पहले खबर आई है कि सरकार ने आग बुझाने के लिए साढ़े चार करोड़ का बजट जारी किया, जबकि आग का विकराल रूप लिए हुए भी १० दिन से ज्यादा समय हो गया। जो काम जनवरी में शुरू हो जाना चाहिए था, वह मई तक नहीं हुआ। आग क्यों नहीं फैलेगी।
आग बेकाबू न हो इसके लिए क्या किया जा सकता है?
पहाड़ पर कई लोगों के बड़े-बड़े बगीचे हैं। कभी आपने सुना है कि बगीचे जल गए हैं, क्यों? क्योंकि लोग अपने बगीचे को बचाते हैं। तो सवाल है, जंगल को क्यों नहीं बचाते? क्योंकि सरकार ने जंगल से लोगों को दूर कर दिया है। सरकार कहती है कि जंगल तुम्हारा नहीं है। इस पर सरकार और राज्य का हक है। इसलिए लोगों को लगता है कि जब जंगल हमारा है ही नहीं तो उसे क्यों बचाएं। जंगल से लाभ कमाने वाली सरकार खुद उसे बचाए। सरकार, राज्य और समाज में बहुत दूरी आ गई है। जबकि रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा था कि भारत की संस्कूति जंगलों की रही है। आज जंगल शून्य हो गया है। आग फैले नहीं इसके लिए जनवरी से ही काम शुरू हो जाना चाहिए। गांव के बेरोजगार युवाओं को अस्थाई रूप से (फायर सीजन) इस काम में लगा सकते हैं। सरकार को जंगल संरक्षित करने की समझ नहीं है।
जंगलों को आग से बचाने के लिए क्या केंद्र को एक्शन में आना चाहिए?
देश भर के जंगलों में आग लगती है। इसलिए यह सही है कि जब वन कानून देश में एक समान है तो वन सुरक्षा की नीति भी देश भर में एक जैसी होनी चाहिए। केंद्र इसके लिए एक संगठन या प्राधिकरण बना सकता है। मनरेगा का पैसा जंगलों को बचान में खर्च किया जाना चाहिए। इसके लिए सरकार को दो नीति बनानी होगी। एक दीर्घकालिक और दूसरी तात्कालिक। दीर्घकालिक नीति में जल संचयन पर काम होना चाहिए, ताकि सूखे जंगल नमीदार बनें। नमीदार जंगल में आग लगेगी पर वह फैलेगा नहीं।

‘आग पर काब’

वन मंत्री हरक सिंह रावत से बातचीत

पंद्रह दिन हो गए हैं मगर जंगलों की आग को काबू नहीं किया जा सका है, क्यों?
ऐसा नहीं है। हमारे अधिकारी और कर्मचारी आग बुझाने में लगे हुए हैं। बहुत स्थानों पर इसे काबू कर लिया गया है। कुछ जगलों में लगी आग को भी बुझाने में विभाग जुटा हुआ है।
फायर लाइन ठीक करने एवं सीजन के लिए अस्थाई नियुक्ति की जाती है। अब ऐसा क्यों नहीं किया जा रहा है?
आपको गलत जानकरी है। फायर सीजन के लिए गांव के लोगों को प्रशिक्षित भी किया गया है। उनसे काम भी लिया जा रहा है। कर्मचारियों और उन प्रशिक्षित लोगों के बल पर ही इतने बड़े लेवल पर लगी आग को काबू किया जा सका है।
इसका स्थाई समाधान क्यों नहीं निकाला जा रहा है?
सरकार इस पर भी काम कर रही है। जंगलों में पानी संरक्षण के लिए भी काम हो रहा है। आग का सबसे बड़ा कारण चीड. के पिरूल को एकत्रित करने लिए भी सरकार काम कर रही है।
आग बुझाने के लिए बजट एक सप्ताह पहले जारी हुआ, क्यों?
नहीं, ऐसा नहीं है।

Leave a Comment

Your email address will not be published.

You may also like

MERA DDDD DDD DD