Editorial

बिखरने लगा था इंदिरा का जादू

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-79
 

पुपुल जयकर लिखती हैं जब मैं उठने लगी तो इंदिरा ने मुझसे कहा-‘ The present holds the plast and one has to have the capacity to feel the present and place it in relation to the future. I move with the flow of events, that is why people are apt to misunderstood me’ I saw that all doubts, all enquiry had ceased. A euphoria filled her, leaving little space for any other emotion . It was a dangerous situation for a human being, more so for a Prime Minister… without sensitivity and awareness, contradictions could drive Indira to a self destructive future. I feared for her. But I sensed that this was not the day when dialogue was possible.’ (‘वर्तमान अतीत संग जुड़ा होता है। हममें वर्तमान को महसूस करते हुए उसके जरिए भविष्य को समझने की क्षमता होनी चाहिए। मैं वर्तमान के प्रवाह संग चलती हूं शायद इसी कारण लोग मुझे समझ नहीं पाते हैं।’ मैंने देखा कि उनके भीतर सभी प्रकार के सन्देह और उन्हें समझने की इच्छा समाप्त हो गई है। एक अजब किस्म के उत्साह से वह भर उठी हैं जिस चलते किसी अन्य मानवीय भावनाओं के लिए कोई स्थान बचा नहीं है। यह किसी भी मनुष्य के लिए बेहद घातक स्थिति होती है, एक प्रधानमंत्री के लिए तो और भी ज्यादा घातक …संवेदनशीलता और जागरूकता का ऐसा अभाव इंदिरा को विरोधाभाषी बना विनाशकारी भविष्य की तरफ धकेल सकता है। मैं उनके लिए भयभीत हो उठी लेकिन मुझे लगा आज वह समय नहीं जब उनके साथ इस बारे में संवाद किया जा सके)।

1971 में मिली चुनावी जीत और 72 में पाकिस्तान के दो फाड़ से पैदा हुई ‘इंदिरा लहर’ लेकिन जल्द ही कमजोर होने लगी थी। प्रकृति भी शायद इंदिरा शासन से नाराज हो अपना कहर बरपाने लगी। 72 में भीषण गर्मी पड़ी और कई बरसों से कृपा बरसा रहे वरुण भगवान भी कुपित हो उठे। नतीजा खराब मानसून के रूप में सामने आया जिसका सीधा असर खेती पर पड़ा। आवश्यक वस्तुओं के दाम तेजी से बढ़ने लगे, खाद्य सामग्री की कालाबाजारी ने चौतरफा हाहाकार पैदा कर डाला। नागपुर, मुम्बई, मणिपुर, केरल आदि में दंगे शुरू हो गए। एक बार फिर से भीषण आकाल जैसी स्थिति पैदा होने लगी। 15 अगस्त, 1972 के दिन भारत की आजादी के पच्चीस बरस पूरे होने का जश्न देश भर में मनाया गया था। इस अवसर पर 14 अगस्त की रात संसद का एक विशेष सत्र आधी रात को आयोजित किया गया। प्रधानमंत्री ने इस विशेष सत्र को सम्बोधित करते हुए आजादी उपरान्त हासिल की गई उपलब्धियों की बात कही। अगले दिन उन्होंने लाल किले की प्राचीर से देश को भी सम्बोधित किया जिसमें उन्होंने बीते पच्चीस बरस के दौरान लोकतंत्र के मजबूत होने और विभिन्न क्षेत्रों में उसके आत्मनिर्भर होने सरीखी बातों पर बल दिया। इंदिरा लेकिन देश की आर्थिकी और अपने घोषित लक्ष्य ‘गरीबी हटाओ’ पर कुछ नहीं बोलीं। रामचन्द्र गुहा ने इसका सम्भावित कारण 1971 में आई एक आर्थिक रिपोर्ट को माना है। दो अर्थशास्त्रियों वीएम दांडेर और नीलकंठ रथ की इस रिपोर्ट ‘पावर्टी इन इंडिया’ (भारत में गरीबी) में रेखांकित किया गया था कि ग्रामीण भारत की चालीस प्रतिशत और शहरी भारत की पचास प्रतिशत जनता के पास सामान्य गुजर-बसर तक की व्यवस्था नहीं है। उन्होंने इस पैमाने के लिए प्रति व्यक्ति आय को आधार बनाया था जो उस दौरान ग्रामीण भारत के लिए 324 रुपया और शहरी भारत के लिए 489 रुपया थी। दांडेकर और रथ के अनुसार 1970 में लगभग 23 करोड़ (कुल जनंख्या के चालीस प्रतिशत) लोग गरीबी रेखा के नीचे थे।’ केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा 1972-73 के लिए जारी किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे दबाव के लिए उत्पाद के हर क्षेत्र में आई कमजोरी का मुख्य कारण बताया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार कृषि उत्पादन में वर्ष 1970-71 में 7 ़3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी जो खराब मानसून के कारण 72-73 में 1 ़7 प्रतिशत घट गई। 1970-71 में भारत ने 108 ़4 मिलियन टन खाद्य सामग्री का उत्पादन कर एक रिकॉर्ड स्थापित किया था जो अगले ही वर्ष घटकर 1047 मिलियन टन रह गया। सरकारी खाद्य भंडारों में तेजी से कमी आने का एक बड़ा कारण भारत- पाक युद्ध और लाखों की तादात में भारत में शरण लेने वाले बंगाली पाकिस्तानी भी थे। सरकारी बजट का एक हिस्सा इन शरणार्थियों के लिए खर्च किया गया जिसका सीधा असर अर्थव्यवस्था में तनाव बढ़ाने के रूप में सामने आया। 1970-71 में राष्ट्रीय आय में 4 ़6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी जो 72-73 में मात्र 2 प्रतिशत रह गई। मई 1972 में दैनिक उपभोग की वस्तुओं में भारी वृद्धि चलते जनता की बैचेनी बढ़ने लगी थी। अपने आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने स्वीकारा की-‘The steep rise in prices since May 1972 is a matter of legitimate public concern, more so because prices of important basic necessities of life such as foodgraines, vegetable oils and sugar have risen sharply. Among foodgrains, prices of coarse grains have risen more than those of rice and wheat.’ (मई 1972 के बाद से कीमतों में तेजी से वृद्धि आमजन की चिंताओं में इजाफा कर रही है। यह ठीक भी है क्योंकि खाद्यान्न, वनस्पति तेल और चीनी जैसी जीवन की बुनियादी जरूरत की वस्तुओं की कीमतों में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। खाद्यान्नों में, चावल और गेहूं की तुलना में मोटे अनाज की कीमतों में वृद्धि अधिक हुई है) ‘हरित क्रांति’ की सफलता के बाद भारत ने अमेरिका से गेहूं आयात बन्द कर दिया था। अब अकाल की आशंका और घटते खाद्यान्न संकट को देखते हुए एक बार फिर से अनाज आयात करने की जरूरत आ पड़ी थी। इंदिरा गांधी की घोषित अमेरिका विरोधी नीतियों से खिन्न अमेरिकी प्रेस ने भारत पर मंडरा रहे अन्न संकट की बाबत नकारात्मक समाचार जमकर प्रकाशित करने शुरू कर दिए थे। 18, मार्च, 1973 में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में प्रकाशित एक समाचार इसकी बानगी भर है। इस समाचार में लिखा गया था- ‘…India, always on the verge of  hunger, always at the whim of nature, faces a critical food shortage… The irony is that the 12-month period of July 1, 1970 to June 30, 1971 Indian farmers produced 107.8 million tons of food grain-atleast three million tons more than it had been expected. The buoyant Government decided to fulfill its promise to halt food grain imports from the United States, an egoboost to a nation embarrassed by its parenrially needy condition. Now let down by nature, India is expected to produce only 100 million ton of foodgrain in the 1972-73 term year, nolwhere near enough to feed buying, and is her people two million tons, mostly from the United States.'(…भारत, हमेशा भूखमरी की कगार पर और प्रकृति के कहर पर रहने चलते गम्भीर खाद्य संकट का सामना करता है। विडम्बना यह कि 1 जुलाई, 1970 से 30 जून, 1971 के 12 महीनों में भारतीय किसानों ने 107 ़8 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन किया जो उसकी अपेक्षा से लगभग 3 मिलियन टन अधिक था। भारत सरकार ने इस उपलब्धि को राष्ट्रवाद से जोड़ते हुए संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से खाद्यान्न आयात को समाप्त कर अपने संकल्प को पूरा करने का फैसला ले लिया। अब लेकिन 1972-73 के कृषि वर्ष में केवल 100 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन की आशंका चलते उसे एक बार फिर से संयुक्त राज्य अमेरिका से खाद्यान्न आयात करना पड़ा है ताकि उसकी जनता को खाद्यान्न उपलब्ध हो सके)।
इंदिरा गांधी आजाद भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। सत्ता के शीर्ष पद पर एक महिला की उपस्थिति महिला सशक्तीकरण और भारतीय लोकतंत्र के निरन्तर मजबूत होने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। लेकिन यह महिला सशक्तीकरण की असल स्थिति से कोसों दूर एक सांकेतिक उपलब्धि कहीं ज्यादा थी। 1971 में भारत सरकार के शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट्र संघ के आग्रह पर भारतीय समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति जानने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति ने आर्थिकी, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून समेत 75 विषयों पर महिलाओं की स्थिति बाबत अध्ययन कर 1974 में एक रिपोर्ट ‘समानता की ओर’ (Towards Equality) जारी की। इस रिपोर्ट के आंकड़े बहुत आश्वस्तकारी और उत्साहजनक नहीं थे। रिपोर्ट को 1971 की जनगणना के आधार पर बनाया गया था। महिलाओं की स्थिति विशेषरूप से खासी निराशाजनक इस रिपोर्ट में बताई गई। प्रत्येक हजार पुरुष पर नौ सौ इक्कीस महिलाओं का लिंग अनुपात विभिन्न क्षेत्रों में उनकी कम हिस्सेदारी का एक कारण था। औद्योगिक श्रमिकों के बतौर महिलाओं की भागीदारी मात्र 17.35 प्रतिशत थी। पुरुष साक्षारता दर 39.5 प्रतिशत तो महिलाओं में यह मात्र 18.4 प्रतिशत थी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी आजादी बाद से वर्तमान तक उत्साहजनक नहीं रह पाई है। 1952 से 2019 तक के आम चुनावों में पुरुषों का वर्चस्व लगातार बना रहा है। इस दौरान हालांकि महिला मतदाताओं की संख्या में बड़ा इजाफा देखने को मिलता है, किंतु भारतीय संसद और गणराज्य की विभिन्न विधानसभाओं में महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या न्यूनतम बनी रही है। 1952 में महिला मतदाताओं की संख्या 9.6 करोड़ थी जो 2014 के आम चुनाव में बढ़कर 43.6 करोड़ जा पहुंची। इस अनुपात में लेकिन महिला जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति का नगण्य होना आज भी भारतीय समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति को सामने रखता है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि बीते पिचहत्तर बरसों के दौरान राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं को आगे बढ़ने और कुल जनसंख्या के अनुपात में वाजिब हिस्सेदारी से उन्हें वंचित रखा गया है।
क्रमशः

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