पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन के जोन लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पहाड़ दरक रहे हैं और भूमि धंस रही है। पिछले दिनों जोशीमठ का जो दृश्य सामने आया था उसके बाद सरकार ऐसे मामलों में सक्रिय हुई है। लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे गांव हैं जो आपदा की जद में होने के चलते विस्थापन की राह देख रहे हैं

उत्तराखण्ड में मानसून अब विदाई की तरफ है। हर वर्ष की भांति इस बार भी जान-माल का काफी नुकसान हुआ। पूरे बरसात जमीनें खिसकती रही और लोग सिसकते रहे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मानसून शुरू होने से लेकर अब तक 93 लोगों की मौत हो गई तो 16 लोग अब भी लापता चल रहे हैं। 51 लोग घायल हुए हैं। 1914 घरों को नुकसान पहुंचा है। इसमें से 56 घर पूरी तरह ध्वस्त हो गए है। अभी तक 181 लोगों के पास रहने लायक घर नहीं हैं। वर्षाकाल में पशुधन की भी भारी कीमत राज्यवासियों को चुकानी पड़ी। 7798 मवेशी आपदा की भेंट चढ़ गए। इसके अलावा पेयजल, सड़कों, विद्युत लाइनों को भी सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा। इसके अलावा पूरे उत्तराखण्ड में अभी भी 3584 परिवार खतरे की जद में हैं। गढ़वाल में 3000 तो कुमाऊं में 584 परिवार भूस्खलन से प्रभावित हुए हैं। 152 मार्ग अब भी बंद चल रहे हैं तो 400 से अधिक गांव अलग-थलग पड़े हुए हैं।

अब प्रदेश सरकार को आपदा से मिले जख्मों को भरने के लिए एक बड़े राजस्व की जरूरत है। बगैर केंद्र सरकार के सहयोग से यह संभव नहीं है। अब तक पूरे प्रदेश में 1335 करोड़ रुपए की क्षति हुई है। राज्य सरकार के राज्य आपदा मोचन निधि में मात्र 323 करोड़ रुपए हैं। शेष 1000 करोड़ रुपए के लिए वह केंद्र पर निर्भर है। इस बार सर्वाधिक क्षति गन्ना, लोनिवि व प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना को पहुंची। गन्ना विभाग को 464.49, लोनिवि को 364.24, प्रधानमंत्री सड़क योजना को 132.13 करोड़ की क्षति हुई। इसके अलावा वन विभाग को 20.41, ग्राम्य विकास को 18.28, कृषि विभाग को 13.91, ऊर्जा निगम को 28.71, पेयजल को 10.96, सिंचाई विभाग को 76.42, राष्ट्रीय राजमार्ग को 52.85, पंचायती राज को 44.49, पारेशण निगम को 39.53, शहरी विकास को 23.43 करोड़ रुपए की क्षति पहुंची। अब आपदा से निपटने के लिए सरकार प्रदेश में भूमि बैंक बनाने की तैयारी कर रही है। विधानसभा के मानसून सत्र में सरकार की तरफ से जानकारी दी गई थी कि प्रदेश सरकार आपदा प्रभावितों के पुनर्वास के लिए भूमि बैंक बनाने जा रही है। प्रदेश में पुनर्वास के लिए 1316 परिवार चयनित किए गए हैं। जिसमें से 1146 के लिए भूमि का चयन कर लिया गया है। अभी तक प्रदेश में 1835 परिवारों का पुर्नवास किया जा चुका है।

इन सबके बीच प्रदेश में जो सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण मुद्दा सामने आ रहा है वह है भूस्खलन का। वर्ष 2015 से अब तक 3601 भूस्खलन के मामले सामने आ चुके हैं। इसमें से अकेले वर्ष 2023 में 1173 भूस्खलन हुए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने, बाढ़ व भूस्खलन जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क निर्माण ने उन भूस्खलन क्षेत्रांे को फिर सक्रिय कर दिया है जो प्राकृतिक स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थे।

भूस्खलन बना सबसे बड़ा संकट
वैसे तो अब आपदाएं केवल मानसून तक सीमित नहीं हैं। जलवायु परिर्वतन ने आपदाओं के स्वरूप में परिवर्तन कर दिया है। नदियां अपना मार्ग बदल रही हैं जो जनधन की हानि कर रही है। आपदा न्यूनीकरण कैसे किया जाए, यह राज्य की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुकी है। जनधन की हानि कम करने के वैज्ञानिक प्रयास भी सफल नहीं हो पा रहे हैं। उत्तराखण्ड में अगर भूस्खलन के इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1988 से 2022 तक 11,219 भूस्खलन की घटनाएं हो चुकी हैं। वर्ष 2015 से अब तक 300 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार प्रदेश में पहला भूस्खलन वर्ष 1866 में नैनीताल के अल्मा पहाड़ी में हुआ था। इसी जगह पर वर्ष 1879 में दूसरा बड़ा भूस्खलन हुआ था। अभी हाल में प्रदेश के लोक निर्माण विभाग ने उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में 360 भूस्खलन के खतरे (डंेजर स्लिप जोन) वाले क्षेत्रों की पहचान की है जो मानसून काल में सक्रिय हो जाते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि सड़क व सुरंग जैसे निर्माण कार्यों से भी पहाड़ों को काफी नुकसान पहुंचा है। चूंकि पूरा हिमालयी क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है। इस पर विस्तृत अध्ययन होना जरूरी है कि भूस्खलन से वास्तविक नुकसान कितना हो रहा है? कितनी आबादी को वह प्रभावित कर रहा है? इसी आधार पर योजना बननी चाहिए।

वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि पहाड़ों के विकास के लिए योजनाएं बनाते समय बेहद सावधानी बरतने की जरूरत है। प्रदेश के पर्वतीय ढलानों में चट्टानों की बनावट, उसके मिश्रित कण, मिट्टी का प्रकार हर जगह अलग होता है। पर्वतीय क्षेत्र मंे ढलानों पर निर्माण से बचा जाना चाहिए। बारिश के पैटर्न में बदलाव, बादल फटने, अचानक बाढ़ और मूसलाधार बारिश जैसी मौसमी घटनाओं में वृद्धि भूस्खलन का एक बड़ा कारण माना जाता है। ऊपर से कोढ़ में खाज वाली स्थिति यह है कि यहां पर सड़क व सुरंगों का काम हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के चलते जिस तरह से बारिश के पैटर्न में बदलाव आ रहा है उससे भी भूस्खलन की घटनायें बढ़ रही हैं। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि बारिश का पानी पहाड़ों में रिसकर भूस्खलन का कारण बन रहा है। उत्तराखण्ड में भूस्खलन की घटनाएं कितनी भयावह रूप ले रही हैं, इसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार समझा जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड का 72 प्रतिशत यानी 39 हजार वर्ग किमी ़ क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित है। राज्य का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां पर भूस्खलन की घटनाएं न घटती हों। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) व राष्ट्रीय सुदूर संवेदी केंद्र के भूस्खलन पर आधारित मानचित्र रिपोर्ट में तो प्रदेश के सभी जिलों को भूस्खलन के खतरे में बताया गया है। यह माना जा रहा है कि प्रदेश में आपदाओं में जो मौत होती है उसमें से 80 प्रतिशत मौतों के लिए भूस्खलन जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम परिवर्तन व पहाड़ों में मानवीय गतिविधियों के बढ़ने की वजह से इसका आकार व इसके ढलानों में परिवर्तन हो रहा है। वहीं मौसम विज्ञानियों का कहना है कि उत्तराखण्ड में पिछले 10 वर्षों से भारी वर्षा की घटनाएं बढ़ रही हैं। इससे कमजोर भूगर्भीय स्थिति को खतरा पैदा हो रहा है।

पहाड़ लगातार दरक रहे हैं। भूमि धंसती जा रही है। जोशीमठ सहित कई उदाहरण सामने हैं। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भूस्खलन ने पहाड़ों के लोगों के जीवन पर संकट पैदा कर दिया है। इसके चलते पिछले पंाच सालों के दौरान 80 गांवों के 1423 परिवारों को सरकार दूसरी जगह विस्थापित कर चुकी है। अभी दर्जनों गांवों के हजारों लोग विस्थापन की राह देख रहे हैं। ये लोग अस्थाई कैंपों में अपना जीवन निर्वहन करने को मजबूर हैं। पूरे राज्य में भूस्खलन के चलते ढाई सौ से अधिक गांवों का विस्थापन होना है। भूस्खलन ने प्रदेश में पलायन व विस्थापन की नई चुनौतियां पैदा कर दी हैं। भूमि धंसाव से निपटना सरकार के लिए खासा चुनौतीपूर्ण कार्य बन चुका है। पिछले एक दशक में प्रदेश में भूस्खलन की घटनाओं में 10 गुना वृद्धि हुई है। अगर 2015 से अब तक के आंकड़ांे पर नजर डालें तो वर्ष 2015 में 33 घटनाएं हुई जिसमें 12 लोगों की मौत हुई। वहीं 2016 में 18 घटनाओं में 24 मौत, वर्ष 2017 में 19 घटनाओं में 16 लोगों की मौत हुई। वर्ष 2018 में 496 घटनाओं में 47 मौत, वर्ष 2019 में 291 घटनाओं में 25 मौत, वर्ष 2020 में 972 घटनाओं में 25 मौत व वर्ष 2021 में 132 घटनाओं में 12 की मौत हुई। वर्ष 2022 में 245 घटनाओं में 26 की मौत व वर्ष 2023 में 1123 घटनाओं में अब तक 93 लोगों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा हजारों हेक्टेयर उपजाऊ जमीन मरूस्थलीकरण में तब्दील हो गई है।

प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन के जोन लगातार बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन संवेदनशील जोनों की निगरानी का कोई तंत्र अभी तक नहीं बन पाया है। अर्ली वार्निग सिस्टम लगाने के मामले में भी प्रदेश अभी पिछड़ा हुआ है। सिर्फ आपदा की दृष्टि से संवेदनशील कुछ ग्लेशियरों पर ही यह सिस्टम लगाए गए हैं। भूस्खलन से लोगों की जान तो जा ही रही है, उसके जीने का सहारा रही खेती व पशुपालन व अन्य आजीविका के साधनों को भी क्षति पहुंच रही है। हर साल अरबों रुपयों की संपत्ति का नुकसान हो रहा है। यूं तो प्रदेश में भूस्खलन के कई कारण हैं लेकिन वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की मानें तो हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली बर्फबारी के बाद जब गर्मी में बर्फ पिघलती है तो चट्टानों और मिट्टी को यह मुलायम बना देती है। वैज्ञानिक इसके बीच गुरूत्वाकर्षण बल को जिम्मेदार मानते हैं। इनका कहना है कि ढलानों पर गुरूत्वाकर्षण बल अधिक होने की वजह से चट्टानें व मिट्टी नीचे खिसकनी लगती है। यही भूस्खलन का कारण बनते हैं। इसके अलावा कम समय में बहुत अधिक बारिश भी भूस्खलन का कारण बनती है। हिमालयी क्षेत्रों में अंधाधुंध तरीके से सड़कों का निर्माण, वनों की कटाई व जलाशयों के पानी का रिसाव भी बड़ा कारण बन रहे हैं। वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि भूस्खलन की जितनी भी बड़ी घटनाएं अब तक हुई हैं उनकी गति 260 फीट प्रति सेकेंड के आस-पास रही है जो भूस्खलन के लिए जिम्मेदार है।

 

उत्तराखण्ड में भूस्खलन के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। जिसमें एक क्लाइमेटिक फैक्टर है। ग्लोबल वार्मिग से क्लाइमेंट चेंज हो रहा है जो भूस्खलन को बढ़ावा दे रहा है। इसके अलावा एनवायमेंटल डिग्रेडेशन एक अहम कारक है। पर्यावरण क्षरण से भूस्खलन को बढ़ावा मिलता है। एक अहम कारक एंथ्रोपोजेनिक एक्टिविटी है। मानवीय गतिविधियों के चलते भूस्खलन की संभावनाएं बढ़ी हैं। एक्सेसिव रेनफॉल भी एक कारण है। जलवायु परिवर्तन से मौसम चक्र में बदलाव आ रहा है। जिससे अत्यधिक मात्रा में भारी बारिश हो रही है, जो भूस्खलन के लिए जिम्मेदार बन रही है। इसके अलावा नेचुरल एक्टिविटी भी भूस्खलन का एक कारण बन रहा है। उत्तराखण्ड सिस्मिक जोन 4 व 5 में आता है। इसकी वजह से यहां छोटे-छाटे भूकंप आते रहते हैं जो पहाड़ों की चट्टानों को कमजोर करते हैं।
कालाचंद साई, निदेशक, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी

 

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

  •    भूस्खलन संभावित इलाकों में कमजोर संरचनाओं को मजबूत किया जाए।
    पर्वतीय क्षेत्रों में जल निकासी के पर्याप्त उपाय किए जाएं।
    पर्वतीय क्षेत्रों में वनों को कटने से रोका जाए, अधिक से अधिक वृक्षारोपण किए जाएं।
    भूस्खलन संभावित जोनों को चिन्ह्ति कर ट्रीटमेंट किया जाए।
    भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में अधिक से अधिक रिटेनिंग वॉल का निर्माण जरूरी।
    भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों से लोगों को दूसरी जगह विस्थापित किया जाए।
    विकास की गति को विकेंद्रीकृत किया जाए, एक ही स्थान पर अधिक निर्माण नहीं होना चाहिए।

 

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