इतिहास खुद को दोहराता है। विडंबना लेकिन यह कि इससे न तो कोई सबक लेता है, न ही इसकी तरफ झांकता है। सत्ता के संदर्भ में यह ज्यादा प्रभावी है। इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो बड़ी तादात में ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहां सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे जननायकों, क्रांति दूतों और राजनेताओं को गहरे अहंकार बोध ने अपनी चपेट में ले लिया। इस अहंकार के गर्भ से जन्मी तानाशाही जिसका अंत भयावह हुआ। चाहे बोल्शेविक क्रांति के नायक स्टालिन हों या फिर हिटलर, इदी अमीन, रॉबर्ट मुगाबे, सद्दाम हुसैन आदि-आदि। सभी अपने समय के पहले नायक बन उभरे फिर खलनायक बन बैठे। ऐसे सभी ने माना कि वे ही सही हैं, उनकी सोच ही सत्य है। ऐसे सभी को यह भ्रम रहा कि वे श्रेष्ठ हैं, अजेय हैं। वक्त ने जब करवट ली तो सभी ध्वस्त हो गए। आजाद भारत के सत्तर बरस में एक सबसे अच्छी बात लोकतंत्र का अपनी जड़ें मजबूत करना रहा, तानाशाही का ट्रेलर लेकिन हमने इसी लोकतंत्र की आड़ में देखा-भोगा। इसकी शुरुआत हुई इंदिरा गांधी से। जवाहरलाल नेहरू जैसे विराट व्यक्तित्व और लोकतांत्रिक मूल्यों के घोर समर्थक पिता की इकलौती संतान इंदिरा ने 1972 में बांग्लादेश गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी नेतृत्व क्षमता को स्थापित तो किया, साथ ही साथ उनके भीतर तानाशाह के बीज भी अंकुरित हो गए। नतीजा रहा आपातकाल का खौफनाक दौर। इंदिरा जी को यह भ्रम रहा कि वे ही मुल्क के लिए सबसे मुफीद लीडर हैं। उनके चाटुकारों ने इस भ्रम को ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ जैसे जुमलों को ईजाद कर पुख्ता किया। न्यायपालिका, फौज और प्रेस पर पहली बार प्रहार इसी दौर में हुआ। नतीजा 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय के रूप में सामने आया। नेहरू-गांधी परिवार खुद अपनी सीटें तक न बचा सका।
वर्तमान दौर भी कुछ ऐसा ही है। भारी जनअपेक्षाओं के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हुए नरेंद्र मोदी और उनके चाणक्य कहे जाने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दे अपनी पारी की शुरुआत की। कांग्रेस एक के बाद एक चुनाव पिछले साढ़े चार बरसों में भाजपा से हारती गई। मोदी-शाह की जोड़ी अजेय है का भ्रम तेजी से स्थापित किया गया। लगातार चुनावी सफलता ने निश्चित ही भाजपा को मजबूती देने का काम किया। लेकिन इसी सफलता ने उसे अहंकार की जकड़ में भी ला दिया। एक प्रकार की अघोषित तानाशाही का दौर शुरू हो गया। आपातकाल से कहीं ज्यादा इस दौर में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होते हम सभी ने देखा- महसूसा है। न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार कुछ ऐसा हुआ कि चार वरिष्ठ न्यायाधीशों को खुली बगावत करनी पड़ी। सीबीआई, रॉ और आईबी सरीखी प्रमुख एजेंसियों का पूरी तरह राजनीतिकरण हो गया। सरकार पर इन एजेंसियों के जरिए अपने राजनीतिक विरोधियों को भयभीत करने के आरोप हों या फिर अपनी पसंद के पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के, नरेंद्र मोदी स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर जाते दिखे। कालेधन को समाप्त करने के घोषित उद्देश्य के नाम पर उन्होंने नोटबंदी कर डाली। बगैर इस पर विचार किए कि उनके इस कदम से आमजन और देश की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा। नोटबंदी पूरी तरह से विफल रही। इसे भले ही मोदी सरकार न स्वीकारे, देश स्वीकार भी रहा है और प्रचंड बहुमत से देश की कमान मोदी को सौंपने के अपने निर्णय पर पछता भी रहा है। तीन राज्यों, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की हार के पीछे यही पछतावा है। राजनीतिक विश्लेषकों ने इन चुनावों को 2019 के आम चुनाव का सेमीफाइनल कह पुकारा है। इस सेमीफाइनल में भाजपा की हार विपक्षी दलों में जान फूंकने का काम करेगी, ऐसा मेरा मानना है। कांग्रेस मुक्त भारत का सपना जो मोदी-शाह द्वय ने देखा है, वह इन चुनाव नतीजों के बाद पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। हालांकि इन चुनाव नतीजों में भाजपा की हार का मेरी समझ से कतई यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि मोदी मैजिक पूरी तरह समाप्त हो चुका है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले पंद्रह बरसों से भाजपा का एकछत्र राज रहा है। जनता इन पंद्रह वर्षों के दौरान पूरे न किए गए ढेर सारे वायदों और भ्रष्टाचार के चलते नाराज थी। इसके बावजूद मध्य प्रदेश में कांग्रेस को भाजपा ने कड़ी टक्कर यदि दी है तो इससे स्पष्ट होता है कि जनता का वोट कहीं न कहीं राज्य नेतृत्व से नाराजगी के चलते कांग्रेस की झोली में गिरा है। राजस्थान में तो कांग्रेस से कहीं बेहतर प्रदर्शन की अपेक्षा थी। वहां भी वसुंधरा राजे सरकार से जनता बेहद नाखुश थी। नतीजे लेकिन भाजपा के लिए बहुत खराब नहीं रहे। सरकार भले ही चली गई लेकिन लोकसभा में भी ऐसा ही होगा कहा नहीं जा सकता। तब प्रश्न केंद्र की सत्ता का होगा जब चेहरा पूरी तरह से नरेंद्र मोदी का सामने होगा। कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष की सीधी टक्कर मोदी से होगी। मेरा मानना है कि यदि विपक्षी गठबंधन में सपा-बसपा शामिल हो जाती हैं तो भाजपा के लिए संकट गहरा जाएगा। उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति में भाजपा को बड़ा नुकसान होना तय लगता है। कम से कम पचास लोकसभा सीटों का नुकसान अकेले उत्तर प्रदेश से भाजपा को हो सकता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में यदि ऐसा ही माहौल रहा तो तीस सीटों से भाजपा को हाथ धोना पड़ेगा। यानी अकेले इन चार राज्यों से ही 80 सीटें कम हो सकती हैं।
तेलगुदेशम एनडीए से बाहर हो चुकी है। बिहार में राजनीतिक समीकरण तेजी से बदले हैं। अन्नाद्रमुक की स्थिति जयललिता के निधन बाद कमजोर हो चुकी है। भाजपा यहां अन्नाद्रमुक संग गठबंधन कर सकती है लेकिन उसे इसका शायद ही कुछ खास लाभ मिल सके। करुणानिधि के निधन के पश्चात पार्टी की कमान संभालने वाले एमके स्टालिन का झुकाव विपक्षी गठबंधन की तरह है। यदि वे चुनाव पूर्व इस प्रकार का समझौता कांग्रेस संग करते हैं तो निश्चित ही तमिलनाडु की सभी सैंतीस सीटें जीतने वाली अन्नाद्रमुक को 2019 में बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। जिन-जिन राज्यों में भाजपा सरकार है वहां डबल इंजन के नारे का असर शून्य होने के चलते जनता नाराज है। स्वयं मोदी सरकार हर मोर्चे पर जुमलेबाजी तक सिमटी नजर आने लगी है। नोटबंदी के चलते बेरोजगारी में भारी इजाफा हुआ है। वायदा हर वर्ष दो करोड़ नौकरियां देने का था। कालाधन सफेद हो गया तो पंद्रह लाख गरीब-गुरवा के खातों में अभी तक नहीं पहुंचे, न पहुंचने की उम्मीद है। उज्ज्वला योजना के जरिए हर घर में गैस सिलेंडर पहुंचाने का सपना गैस की कीमतों में आई उछाल के चलते ध्वस्त हो गया है। डीजल और पेट्रोल की कीमत में बेतहाशा वृद्धि ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। उद्योग धंधों में नोटबंदी और जीएसटी की भयंकर मार पड़ी है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि चारों तरफ त्राहि-त्राहि है। विपक्षी एकता यदि इसको भुना पाए तो अगले आम चुनावों में एनडीए आता नजर नहीं आ रहा। हां, एक बात अवश्य ऐसी मैंने देखी-समझी है जो शायद भाजपा के लिए कुछ चमत्कार कर सके। इन साढ़े चार सालों में धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण जबरदस्त हुआ है। जिसे उदार हिंदू कहा जाता है, वह भी अब कट्टरपंथियों सरीखी भाषा बोलने लगा है। इसका पूरा श्रेय भाजपा और संघ को जाता है। हालांकि धर्म के नाम पर चमत्कार होगा या नहीं, यह कह पाना कठिन है, इतना मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आने वाले चार महीनों के दौरान बजरिए मीडिया, सोशल मीडिया धर्म को हथियार बना जनमानस को प्रभावित करने का काम जोरों पर होगा।
बहरहाल, इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने एक बात फिर से स्थापित करने का काम किया है कि भले ही कितनी व्याधियों ने हमारे लोकतंत्र को जकड़ लिया हो, जड़ें उसकी मजबूत हैं। धोखा भले ही वह खा जाए, तानाशाही को इस देश का लोक कतई बर्दाश्त नहीं करता। भाजपा यदि अगले लोकसभा चुनावों में पराजित होती है तो इसके मूल में पार्टी नेतृत्व का अहंकार और तानाशाहीपूर्ण रवैया सबसे बड़े कारण होंगे। यहां यह भी समझा जाना महत्वपूर्ण है कि स्वयं भाजपा के भीतर पार्टी आलाकमान को लेकर तेजी से नाराजगी बढ़ रही है। पार्टी भीतर आंतरिक लोकतंत्र की कमी का जिक्र केंद्र सरकार के मंत्रियों से लेकर आम पार्टी कार्यकर्ता करने लगा है। तीन राज्यों में सत्ता खोने के बाद अब शायद राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और सुषमा स्वराज जैसे वरिष्ठ नेता सक्रिय होंगे। मोदी-शाह के दौर में सभी स्थापित नेताओं को हाशिए में डालने का जो प्रयोग किया गया, अब उसके खिलाफ आवाज उठनी शुरू हो सकती है। दूसरी तरफ राहुल गांधी के लिए तीन राज्यों में मिली जीत इस मायने में ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है कि उनकी नेतृत्व क्षमता पर अब प्रश्न-चिन्ह लगना बंद हो जाएगा। साथ ही ममता बनर्जी सरीखे विपक्षी नेताओं को भी मन मारकर ही सही कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकारना होगा।