Editorial

हिंदुत्ववादी शक्तियों के उभार का दौर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-114

 

हालांकि बतौर वित्तमंत्री वी.पी. सिंह के ‘रेड राज’ से नाराज उद्योगपतियों और उनके समर्थक वर्ग ने वी.पी. के इस्तीफे को सही ठहराया था और राहत की सांस ली थी। अंग्रेजी दैनिक ‘दि टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने ऐसों की तरफ से टिप्पणी करते हुए लिखा था- ‘अब इसमें बित्ते भर का संदेह बाकी नहीं रह गया है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी को कमजोर करना चाहते थे। राजीव के पास उन्हें हटाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था।’कांग्रेस और राजीव गांधी की समस्याएं वी.पी. सिंह के मंत्रिमंडल से विदाई के बाद भी लेकिन कम नहीं होने वाली थीं। 16 अप्रैल, 1987 को स्वीडन से आए एक समाचार ने भारतीय राजनीति में भूचाल लाने और उसकी दशा-दिशा बदलने का काम कर दिखाया। स्वीडिश रेडियो (स्वीडन का सरकारी संस्थान) ने खुलासा किया कि मार्च, 1986 में भारत के साथ हुए एक तोप सौदे में बतौर रिश्वत भारी रकम दी गई थी। राजीव सरकार ने स्वीडन की शस्त्र-निर्माता कम्पनी बोफोर्स एबी से दूर तक मार करने वाली 410 अत्याधुनिक होइटसर तोपों को खरीदने का करार किया था। 1,437 करोड़ के इस सौदे में बकौल स्वीडिश रेडियो 6 करोड़ रुपए की रिश्वत अथवा बिचौलियों को कमीशन दिया गया था। राजीव सरकार रक्षा सौदों में बिचौलियों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर चुकी थी। इस सौदे को अंतिम रूप दिए जाने के समय रक्षा मंत्रालय राजीव गांधी के पास था। पहले से ही जर्मन पनडुब्बी मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों से त्रस्त राजीव के लिए यह समाचार भारी दिक्कतें पैदा करने का कारण बन उभरा। भारत सरकार ने इस खुलासे के तुरंत बाद इसे सिरे से खारिज करते हुए स्वीडिश सरकार से जांच करने का आग्रह किया। स्वीडिश सरकार ने अपनी सरकारी एजेंसी नेशनल ऑडिट ब्यूरो को जांच का जिम्मा सौंपा। इस जांच में 6 करोड़ से कहीं ज्यादा, लगभग 65 करोड़ रुपए दलाली के तौर पर दिए जाने की पुष्टि ने राजीव सरकार को कटघरे में ला खड़ा किया। हालांकि स्वीडिश जांच एजेंसी ने किसी भी भारतीय के इस दलाली में शामिल न होने की बात भी अपनी रिपोर्ट में कही थी लेकिन इस रिपोर्ट के साथ-साथ ही दो भारतीय अखबारों ‘द हिंदू’ तथा ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ ने इस घोटाले की बाबत अपनी खोजी पत्रकारिता के जरिए राजीव सरकार को चौतरफा घेर डाला था। इस सबके मध्य सरकार से इस्तीफा देने बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को विपक्षी दलों ने साधने की कवायद तत्काल ही शुरू कर दी थी, लेकिन विश्वनाथ कांग्रेस के प्रति मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे थे।

16 मई, 1987 के दिन दिल्ली में कांग्रेस ने एक बड़ी जनसभा का आयोजन किया था। वी.पी. सिंह बतौर एक सामान्य कार्यकर्ता इस जनसभा में शामिल हुए। इस रैली में राजीव गांधी ने कुछ ऐसा कह डाला, जो वी.पी. सिंह को खासा आहत करने और कांग्रेस के प्रति मोहभंग का कारण बना। राजीव ने वी.पी. को निशाने पर रखते हुए कहा- ‘भारत की आजादी कब छिनी? जब मीरजाफर और राजा जयचंद जैसे गद्दारों ने विदेशी ताकतों से हाथ मिलाया, आप ऐसे लोगों से सतर्क रहें, यह लोग विदेशी ताकतों से हाथ मिलाकर देश के हितों को बेच रहे हैं।’

वी.पी. के अति विश्वस्त और निकट सहयोगी संतोष भारतीय के अनुसार, ‘जयचंद का उदाहरण कभी राजा जयचंद कहकर नहीं किया जाता। राजीव गांधी ने राजा शब्द पर जोर डाला था। वे राजा और गद्दार जैसे शब्दों का वी.पी. सिंह के लिए कर रहे थे और विदेशी ताकतों से उनका मतलब फेयरफैक्स से था। राजीव गांधी के इस रुख ने वी.पी. सिंह को बहुत निरुत्साहित कर दिया। उन्होंने तय कर लिया कि वे राजनीति से दूर चले जाएंगे, पर राजीव गांधी ने एक ऐसी बात की, जिसने दोनों की किस्मत के रास्ते मोड़ दिए और दोनों आमने-सामने आकर खडे़ हो गए…यह खतरनाक बातचीत 22 मई, 1987 को राजीव गांधी के घर पर हुई थी… बातचीत बडे़ तनावपूर्ण, लेकिन सद्भावना के माहौल में शुरू हुई। राजीव गांधी उन्हें देखकर मुस्कराए और कटाक्ष करते हुए कहा, ‘अभी तुम जा रहे हो, आज तक तो बहुत जय-जयकार हो रही है, तुम्हारी आशाएं बढ़ गई हैं, क्या करने का इरादा है?’ …वी.पी. सिंह ने जवाब दिया, ‘मैं कांग्रेस में हूं और आप अगर कहेंगे, तो मैं राजनीति छोड़कर इलाहाबाद जाकर चुपचाप पढंूगा-लिखूंगा… और अगर आप मुझे काम देना चाहे, तो मुझे साउथ भेज दीजिए, आंध्र और कर्नाटक में पार्टी का काम मुझे सौंप दीजिए। दोनों राज्य आपके हाथ से निकल गए हैं, मैं उन्हें वापस लाने में जी-जान लगा दूंगा।’ लेकिन राजीव गांधी के दिमाग में वी.पी. सिंह को लेकर संदेह का घना कोहरा भरा था। उन्होंने इस प्रस्ताव का उत्तर फिर कटाक्ष भरी भाषा से दिया। उन्होंने वी.पी. सिंह से मुस्कराते हुए कहा, ‘यह जय-जयकार दो दिनों में खत्म हो जाएगी। तब तुम भी उसी तरह वापस लौटकर आओगे, जैसे प्रणब आए हैं।’ उनका मतलब प्रणब मुखर्जी से था.. फिर राजीव ने कहा, ‘तुम तीन महीने भी सस्टेन नहीं कर पाओगे।’ और तब वी.पी. सिंह ने दृढ़ता से जवाब दिया, राजीव जी, अगर मैं तीन महीने सस्टेन कर गया तो फिर रुकने वाला नहीं। आपका अगर यही चैलेंज है तो मैं स्वीकार करता हूं और उसे पूरा कर दिखाऊंगा।’

विश्वनाथ प्रताप सिंह इसके बाद विपक्षी राजनीति की तरफ मुड़ गए और आने वाले दिनों में राजीव गांधी की छवि धूल- धूसरित करने में सफल रहे। 1987 का वर्ष कांग्रेस और उसके नेता राजीव गांधी के लिए नाना प्रकार की चुनौतियों और मुसीबतों का वर्ष रहा था। देश के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े दक्षिणपंथी संगठन भाजपा की राजनीतिक जमीन को मजबूती देने के लिए हिंदुओं की घेराबंदी करना शुरू कर ही चुके थे। जनवरी, 1987 में ‘दूरदर्शन’ पर एक धारावाहिक ‘रामायण’ के प्रसारण ने हिंदुत्व की भावना को गहराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का काम किया। यह धारावाहिक भगवान राम के जीवन पर आधारित था, जिसका प्रसारण प्रत्येक रविवार सुबह किया जाता था। इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि जनवरी, 1987 से जुलाई, 1988 तक चले इस धारावाहिक के प्रसारण के समय में सड़कों पर यातायात शून्य के बराबर रहने लगा था और बाजारों को भी इसके प्रसारण के बाद ही खोला जाता था। मानव विज्ञानी फिलिप लटगेंडार्फ के अनुसार- ‘इससे पहले कभी भी दक्षिणी एशिया की आबादी का इतना विशाल हिस्सा एक ही गतिविधि में एकजुट नहीं हुआ था और पहले कभी भी कोई संदेश तुरंत इतनी बड़ी संख्या में दर्शकों तक नहीं पहुंचा था।’

इस धारावाहिक ने भारतीय हिंदू जनमानस के मध्य हिंदुत्व की अवधारणा को मजबूत करने और अयोध्या में ठीक एक बरस पहले बाबरी मस्जिद के भीतर बने राम मंदिर के ताले खोले जाने से पैदा हुए धार्मिक जागरण को राजनीतिक दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामायण के निर्माता रामानंद सागर का भले ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ सीधा वास्ता न रहा हो, लेकिन इस धारावाहिक की अपार सफलता के बाद सागर संघ के करीबी हो गए थे। 28, 29 अगस्त, 1989 को ब्रिटेन के शहर मिल्टन रीन्स में अप्रवासी ब्रिटिश भारतीयों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मिलकर एक ‘विराट हिंदू सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था, जिसमें रामानंद सागर मौजूद थे। इस सम्मेलन में ही पार्श्व गायिका लता मंगेशकर ने अप्रवासी भारतीयों से हिंदू होने पर गर्व करने का आह्वान किया था। अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए इसी सम्मेलन में ईंटों को मंत्रोच्चार के जरिए पवित्र कर उन्हें मंदिर के निर्माण में प्रयोग किए जाने की घोषणा भी की गई थी। संघ के अनुवांशिक संगठन विश्व हिंदू परिषद् के नेता अशोक सिंघल ने ‘रामायण’ धारावाहिक की बाबत एक साक्षात्कार में कहा था- हमारे आंदोलन के लिए यह सर्वाेत्तम उपहार है।

‘पॉलिटिक्स ऑफ्टर टेलीविजन: हिंदू नेशनलिज्म एंड द रिशेपिंग ऑफ दि पब्लिक इन इंडिया’ के लेखक अरविंद राजगोपाल के अनुसार- ‘जन्मभूमि मुद्दे ने राम को उग्र अभियान का प्रतीक-चिह्न बनाने का काम किया था। रामानंद सागर अपने धारावाहिक के चलते पैदा होने वाले तूफान से अनजान नहीं थे। इस धारावाहिक को लिखते समय उन्होंने न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को इसमें शामिल किया, बल्कि उन्होंने ‘जन्मभूमि’ का विचार भी पैदा करने का काम कर दिखाया।’

राजीव के शासनकाल के दौरान दो बार भारत ने अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन कर खुद को दक्षिण एशिया की महाशक्ति दर्शाने का प्रयास किया। पहला प्रयास भारतीय थल सेना द्वारा शुरू किए गए एक सैन्य अभ्यास के जरिए किया गया, जिसने भारत और पाकिस्तान को युद्ध की कगार पर ला खड़ा किया था। जुलाई, 1986 में भारतीय थल सेना द्वारा शुरू किया गया यह सैन्य अभ्यास ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ आज तक का सबसे बडा भारतीय सैन्य अभ्यास है। तत्कालीन सेनाप्रमुख जनरल के. सुंदरजी द्वारा शुरू किए गए इस सैन्य अभ्यास ने पाकिस्तान को भारतीय इरादों के प्रति सशंकित करने का काम किया था। इस अभ्यास के दौरान बड़े स्तर पर थल सेना का जमावड़ा पाकिस्तान से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर किया गया था। जनरल सुंदरजी के निर्देश पर थल सेना को हवाई मार्ग से सीमा पर तैनात किए जाने और बड़ी मात्रा में अस्त्र- शस्त्र के आवागमन ने पाकिस्तान में भारी खलबली पैदा कर दी। हालात इस कदर बिगड़े कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया-उल -हक को प्रधानमंत्री राजीव गांधी से दूरभाष पर वार्ता कर शांति बनाए रखने की अपील करनी पड़ी। इस सैन्य अभ्यास ने भारत और पाकिस्तान को परमाणु युद्ध की कगार पर ला खड़ा किया था। हालांकि तब तक पाकिस्तान घोषित तौर पर परमाणु शक्ति नहीं बना था। इस अभ्यास के चलते पहली बार पाकिस्तान ने खुद के पास परमाणु बम होने की बात स्वीकारी थी। बकौल वजाहत हबीबुल्लाह, इस सैन्य अभ्यास की बाबत प्रधानमंत्री राजीव गांधी को पूरी तरह से अंधेरे में रखा गया था, यहां तक कि सेना के वरिष्ठ कमांडरों की सलाह को भी दरकिनार कर जनरल के. सुंदरजी ने इस सैन्य अभ्यास को शुरू कर भारत-पाकिस्तान को युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा करने की मूर्खता की थी। पत्रकार कुलदीप नैयर ने फरवरी, 1987 में पाकिस्तानी परमाणु बम के जनक डॉ. अब्दुल कादिर खान से एक साक्षात्कार लिया था, जिसके जरिए पहली बार पाकिस्तानी परमाणु बम की बात सामने आई थी। नैयर का यह सनसनीखेज खुलासा ‘ऑब्जर्वर’ समाचार-पत्र में प्रकाशित हुआ था।

दक्षिण एशिया की महाशक्ति बनने का दूसरा प्रयास जून, 1987 में देखने को मिलता है। 4 जून, 1987 को भारतीय वायुसेना ने श्रीलंका की हवाई सीमा का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करते हुए वहां के तमिलभाषी इलाके जाफना में खाना और दवाइयों के रूप में राहत सामग्री को एयर ड्रॉप कराकर अपनी सामरिक शक्ति का प्रदर्शन मानवीय सहायता के नाम पर कर डाला। श्रीलंका में लम्बे अर्से से तमिलभाषी नागरिक अलग राष्ट्र बनाए जाने के लिए आंदोलन कर रहे थे। सिंहली बहुसंख्यक आबादी वाले श्रीलंका में तमिलभाषियों के साथ भेदभाव किया जाता रहा था। धीरे-धीरे यह आंदोलन हिंसक होने लगा था। श्रीलंकाई सेना द्वारा इस आंदोलन को बलपूर्वक दबाए जाने के दौरान बड़े पैमाने पर तमिलों की हत्या और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने के बाद यहां हालात तेजी से बिगड़ने लगे थे। अलग राष्ट्र ‘तमिल ईलम’ की मांग को सशस्त्र क्रांति के जरिए हासिल करने का काम ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम’ (लिट्टे) नामक संगगठन कर रहा था। श्रीलंका की सरकार का मानना था कि इस संगठन को भारत की खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ द्वारा ट्रेनिंग दी जाती है। 1987 में श्रीलंका सेना द्वारा जाफना इलाके की चौतरफा घेराबंदी चलते वहां खाद्य सामग्री और दवाइयों का भारी अकाल पड़ गया था। राजीव सरकार ने तमिलभाषी श्रीलंकाई नागरिकों की सहायता के लिए बड़ी मात्रा में खाद्य सामग्री और दवाइयां इत्यादि समुद्री मार्ग से भेजी, लेकिन श्रीलंका की जलसेना ने भारतीय जलपोतों को अपनी सीमा के भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। इससे नाराज राजीव गांधी ने 22 टन राहत सामग्री को भारतीय वायुसेना के विमानों द्वारा जाफना में एयर ड्रॉप कराकर श्रीलंका के आंतरिक मामले में सीधा हस्तक्षेप कर दिखाया। हालांकि विश्व समुदाय ने इसे मानवीय सहायता के रूप देखा, लेकिन भारत के पड़ोसी देशों में इसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया रही। भूटान और मालद्वीप सरीखे छोटे पड़ोसी देशों ने अंतरराष्ट्रीय सीमा के इस हनन को दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की भावना के विपरीत करार दिया था। श्रीलंका के राष्ट्रपति जुनिअस जयवर्धने ने हताशा व्यक्त करते हुए कहा था- ‘श्रीलंका सरकार के पास भारत के इस एकतरफा कदम का प्रतिरोध करने की न तो अभी क्षमता है, न ही भविष्य में हम ऐसा कर पाएंगे।’

क्रमशः

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