शायद कुछ लोग इस समरस महात्मा को तस्वीर और उनके नाम से पहचानने में भूल कर जाएं पर जो इन्होंने कहा है और लिखा है वह लगभग हर हिंदुस्तानी को याद है। खासकर यह नज्म:
मुसलमां और हिन्दू की जान
कहाँ है मेरा हिंदुस्तान
मैं उस को ढूंढ रहा हूँ…….
२९ जनवरी, २०२० को ९७ वर्षीय शायर अजमल सुल्तानपुरी का गंभीर बीमारी की वजह से निधन हो गया। पिछले कई महीनों से वह कोमा में थे। दिन बुधवार शाम लगभग साढ़े सात बजे उन्होंने अंतिम साँस ली।
राष्ट्रीयता की भावना इस संत के रगों में बसी थी, न हिन्दू न मुस्लिम, न जाति न क्षेत्र, न भाषा, न वर्ण, न ही अन्य किसी तरह का बंधन। हाँ, बंधन था तो दिलों से दिलों को जोड़ने वाला बंधन। इंसानियत के प्रति बेइंतहा मुहब्बत और देश के लिए जान लुटा देने वाला प्यार, जिस चकाचौंध की नगरी मुम्बई में प्रसिद्ध होने हेतु बड़े-बड़े लोग छटपटाते हैं, उसे इस मनीषी ने लाख मनुहार के बावजूद स्वीकार नहीं किया।
“मुझ जैसे निहायत ही बौने, अयोग्य द्वारा जब आप पर लिखने का अनुरोध आज से 4 साल पहले किया गया तो गदगद हो गए, फिर जब पुस्तक भेट करने गया तो लिपटा कर चूमने लगे, फिर तो बराबर उनका दर्शन करने जाने लगा और हर बार यही कहते इतना देर से न आया करो। पिछली भेट के बाद जब मम्मी ने चलने हेतु आज्ञा मांगी तो बाबा रोने लगे थे और आज मुझे रुला दिए बाबा….।”- मृगेंद्र राज पांडेय, किताब ‘चिराग, अजमल सुल्तानपुरी ‘ के लेखक
किस्सा मजरूह सुल्तानपुरी और अजमल सुल्तानपुरी का
कहा जाता है कि प्रसिद्ध शायर मजरूह सुल्तानपुरी और अजमल सुल्तानपुरी ने मुम्बई में अपनी यात्रा एक साथ शुरू की थी। उस वक्त हर कोई अजमल सुल्तानपुरी को २१ और मजरूह सुल्तानपुरी को २० मानता था। पर दो दोस्तों की किस्मत अलग-अलग लिखी गयी थी। उत्तर प्रदेश के निजामाबाद से निकल कर मजरूह सुल्तानपुरी आगे चलकर काफी लोकप्रिय हुए पर सुल्तानपुर से निकले अजमल सुल्तानपुरी की किस्मत मुम्बई में नहीं चमकी और वो वापस अपने गाँव आ जाते हैं।
अजमल सुल्तानपुरी का जन्म हरखपुर गांव, सुल्तानपुर में १९२३ में एक साधारण परिवार में हुआ। शुरू से ही अजमल सुल्तानपुरी अपने आस-पास समाज में व्याप्त बुराइयों और रूढिवादिताओं का विरोध करते थे। १९६७ की बात है, एक बार इन्हीं विरोधों के चलते उन्हीं के गाँव के लोगों ने उन्हें बहुत मारा-पीटा और अधमरा समझ कर गाँव के बाहर फेंक दिया गया। किसी तरह पुलिस की मदद से इन्हें अस्पताल में भरती कराया गया और सुल्तानपुर से लेकर मुम्बई के अस्पतालों में इनका इलाज हुआ।
उत्तर प्रदेश की उर्दू अकादमी ने उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया था पर किसी ने भी आगे आकर उनके जीवन के संघर्षों में मदद नहीं की। अंतिम समय तक वह आर्थिक बोझ से झुझते रहे। उनके जीवन में समय की विसंगतियां हावी रही। भारत की साँझा संस्कृति, उनकी गीतों में अवधी बोली बानी में झलकता है।
अदब के शायर अजमल सुल्तानपुरी ने सिर्फ देश में ही नहीं विदेशों में भी जैसे दुबई, सऊदिया, कुवैद में कवि सम्मेलनों की शोभा बढ़ाई है। पर आप उस शायर के देश प्रेम को समझिए जिन्होंने पाकिस्तान से कवि सम्मेलन का आफर यह कहकर ठुकरा दिया था कि जब पाकिस्तान हमसे अलग हो गया है तो मैं वहां कैसे जा सकता हूं। उन्होंने फिल्मों से आए ऑफर्स को भी ठुकरा दिया। उन्होंने ताउम्र वही लिखा जो उन्होंने जिया।
पेश हैं उनकी प्रसिद्द रचना ‘कहाँ हैं मेरा हिंदुस्तान…
मुसलमाँ और हिन्दू की जान
कहाँ है मेरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मेरे बचपन का हिन्दोस्तान
न बंगलादेश न पाकिस्तान
मेरी आशा मेरा अरमान
वो पूरा पूरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो मेरा बचपन वो स्कूल
वो कच्ची सड़कें उड़ती धूल
लहकते बाग़ महकते फूल
वो मेरे खेत मिरे खलियान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो उर्दू ग़ज़लें हिन्दी गीत
कहीं वो प्यार कहीं वो प्रीत
पहाड़ी झरनों के संगीत
देहाती लहरा पुर्बी तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
जहाँ के कृष्ण जहाँ के राम
जहाँ की शाम सलोनी शाम
जहाँ की सुब्ह बनारस धाम
जहाँ भगवान करें अश्नान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
जहाँ थे ‘तुलसी’ और ‘कबीर’
‘जायसी’ जैसे पीर फ़क़ीर
जहाँ थे ‘मोमिन’ ‘ग़ालिब’ ‘मीर
‘ जहाँ थे ‘रहमन’ और ‘रसखा़न’
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
वो मेरे पुरखों की जागीर
कराची लाहौर ओ कश्मीर
वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर
वो पूरा पूरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
जहाँ की पाक पवित्र ज़मीन
जहाँ की मिट्टी ख़ुल्द-नशीन
जहाँ महांराज ‘मोईनुद्दीन’
ग़रीब-नवाज़ हिन्द सुल्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मुझे है वो लीडर तस्लीम
जो दे यक-जेहती की ता’लीम
मिटा कर कुम्बों की तक़्सीम
जो कर दे हर क़ालिब इक जान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
ये भूका शाइर प्यासा कवी
सिसकता चाँद सुलगता रवी
हो जिस मुद्रा में ऐसी छवी
करा दे ‘अजमल’ को जलपान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ
मुसलमाँ और हिन्दू की जान
कहाँ है मेरा हिन्दोस्तान
मैं उस को ढूँढ रहा हूँ