हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस और पृथक हिमालयी मंत्रालय जैसे मुद्दे पहले से उठते रहे हैं। जब मसूरी कॉन्क्लेव में भी यही घिसी-पिटी बातें होनी थी तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस कार्यक्रम के नाम पर करोड़ों रुपये बहाने की भला क्या जरूरत थी? त्रिवेंद्र रावत सरकार की इसलिए भी आलोचना हो रही है कि पूर्व में वह ‘रैबार’ कार्यक्रम आयोजित कर लाखों रुपए बर्बाद कर चुकी है। उस कार्यक्रम में विशेषज्ञों ने क्या सुझाव दिए और उन पर क्या नीतियां सरकार ने बनाई, इसका जनता को आज तक पता नहीं 
करीब दो वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड सरकार ने लाखों खर्च करके ‘रैबार’ कार्यक्रम किया था। इसमें देश भर से हर क्षेत्र के जाने-माने विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया था। सभी ने उत्तराखण्ड के विकास के लिए विचार प्रस्तुत किए और सरकार को सुझाव भी दिए। तत्कालीन राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष अजीत डोभाल के सुपुत्र और इंडिया फाउंडेशन के अध्यक्ष शौर्य डोभाल, कवि और गीतकार प्रसून जोशी, थल सेना अध्यक्ष जनरल विपिन रावत, प्रधानमंत्री के सचिव भास्कर खुल्वे, रेलवे वोर्ड के चेयरमैन अश्विनी लोहानी, कोस्टगार्ड के निदेशक राजेंद्र सिंह, पलायन आयोग के अध्यक्ष एस एस नेगी, आलोक अतिताभ डिमरी संयुक्त सचिव विदेश मामले, आचार्य बालकøष्ण मुख्य कार्यकारी पतंजलि, नेहरू मांउटनेरिंग संस्थान के कर्नल अजय कोठियाल, हैस्को के संचालक पर्यावरणविद् अनिल जोशी, मुख्य सचिव उत्प्पल कुमार सिंह के अलावा सरकार के कई नौकरशाहों ने इस कार्यक्रम में  शिरकत कर अपने-अपने सुझाव रखे थे।
हालांकि सरकार ने रैबार में विशेषज्ञों द्वारा व्यक्त विचारों और सुझावों को कभी स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक नहीं किया। कार्यक्रम को अति गोपनीय रखते हुए स्थानीय मीडिया को भी इससे दूर ही रखा। केवल फोटो सेशन तक ही मीडिया की भूमिका रही। मुख्यमंत्री ने स्वयं प्रेस वार्ता करके बताया कि कार्यक्रम में सुझाव मिले, लेकिन किसने क्या कहा, इस पर गोपनीयता का आवरण बना रहा। मीडिया के जरिए ही अगले दिन रैबार को लेकर कुछ खबरें आई। मसलन, राज्य में हवाई और सड़क संपर्क बेहतर होने, हर क्षेत्र की आवश्यकतानुसार योजनाएं बनाए जाने, प्रत्येक जनपद में दस वर्ष की मैपिंग किए जाने, नए हिल स्टेशनों की स्थापना, स्कूली पाठ्यक्रमों में पर्यटन, कøषि और बागवानी को शामिल करना, सीमांत गांवों में शिक्षा ओैर शिक्षकां की उपस्थिति, कौशल विकास को बढ़ावा देना, सड़कों की हालत में सुधार, हिमालय विकास के लिए नया मॉडल जिसमें पृथक हिमालय विकास मंत्रालय का गठन किए जाने तथा पर्वतीय क्षत्रों में मानव संसाधनों को बढ़ावा देने के साथ-साथ रोजगार के साधन पैदा करना जेसे अहम सुझाव विशेषज्ञों द्वारा सरकार को दिए गए। यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि तकरीबन 90 लाख के खर्च पर सरकार ने यह रैबार आयोजन किया था।
अब प्रदेश सरकार द्वारा ठीक दो वर्ष बाद पहाड़ों की रानी मसूरी में करोड़ों खर्च करके हिमालय कॉन्क्लेव का कार्यक्रम किया गया। इसमें हिमालयी क्षेत्र के 11 राज्यों के प्रतिनिधियों के अलावा केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार, केंद्रीय वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह तथा केंद्रीय पेयजल सचिव परमेश्वर अय्यर भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए। कॉन्क्लेव में 11 हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के आने की घोषणा की गई थी, लेकिन महज तीन राज्यों हिमाचल, नागालैंड और मेघालय के ही मुख्यमंत्री कार्यक्रम में पहुंचे। उत्तराखण्ड राज्य इसकी मेजबानी कर रहा था जिससे मुख्यमंत्रियों की तादाद चार तक पहुंच पाई। हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, नागालैंड के सीएम नेफ्यूरियो तथा मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड कांगकल संगमा ही कार्यक्रम में शामिल हुए। शेष मुख्यमंत्री नहीं आ पाए। उनके प्रतिनिधि जरूर शामिल हुए। इनमें जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के सलाहकार केके शर्मा, अरुणाचल के उपमुख्यमंत्री चोवना मेन, मिजोरम के मंत्री लालनुनल्लुन्गा, सिक्किम से डॉक्टर महेंद्र पी लामा उपस्थित थे। असम, त्रिपुरा, और मणिपुर से न तो मुख्यमंत्री आए और न ही उनके कोई प्रतिनिधि। कॉन्क्लेव में तकरीबन वही सब बातें सामने आई हैं, जो पूर्व से सुनी जा रही हैं। मसलन, हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिए केंद्र सरकार एक मंत्रालय का गठन करे। आश्चर्यजनक यह है कि राज्य बनने से पूर्व और राज्य बनने के बाद से लेकर आज तक यहां यूं कहा जाए कि विगत 18 वर्षों में सबसे ज्यादा प्रिय विषय पृथक हिमालयी विकास मंत्रालय ही रहा है। राज्य की पहली निर्वाचित तिवारी सरकार के दौरान यह बात सामने आई थी और खण्डूड़ी तथा निश्ांक सरकार के दौरान भी दोहराई गई। अब त्रिवेंद्र सरकार ने करोड़ों खर्च किए तो फिर भी वही बात दोहराई गई है।
ऐसे में अब सवाल उठ रहे हैं कि आखिर पूर्व की रटी-रटाई बातों को उठाने के लिए करोड़ों खर्च करने की क्या जरूरत थी? क्या कॉन्क्लेव में जो मुद्दे उठे हैं, उनको लेकर कोई ठोस नीति बन पाएगी? सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि दो वर्ष पूर्व रैबार कार्यक्रम में जो मसले उठे थे, उन पर भी सरकार कुछ नहीं कर पाई है। आश्चर्य की बात है कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण हिमालयी राज्यों के सीमांत क्षेत्रों को और विकसित करने की बात कॉन्क्लेव में कहती हैं, जबकि मोदी सरकार के पहले टर्म में सीतारमण रक्षामंत्री रही हैं और हिमालय के सीमांत क्षेत्रों में पलायन बहुत तेजी से हुआ है। उत्तराखण्ड में सीमांत क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर पलायन होना अति गंभीर मसला है। उत्तराखण्ड दो देशां नेपाल और चीन सीमा से सटा हुआ है। इसके अलावा पिछली मोदी सरकार में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सामने उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों से तकरीबन 20 लाख लोगों के पलायन करने की बात उठी थी। तब भी सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया था और न ही केंद्र सरकार द्वारा इस पर कोई ठोस कदम उठाए जाने की बात कही गई।
हिमालयी कॉन्क्लेव में तकरीबन छह घंटे की मैराथन बैठक के बाद आठ बिंदुओं पर सहमति बनी। इनमें पर्यावरणीय सुरक्षा, जैविक खेती पर ज्यादा जोर, सीमांत क्षेत्रों का ज्यादा विकास, राज्यों की वन, वन्यजीव और जैव संपदा तथा ग्लेशियरों का संरक्षण, नदियों का सरंक्षण और पुनर्जीवन, नए पर्यटक स्थलों का चयन, आपदा प्रबंधन के लिए ओैर भी मजबूत तंत्र को विकसित करना, हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस दिए जाने जेसे आठ बिंदुओं पर सहमति बनी बताई जा रही है। इसके अलावा पर्वतीय क्षेत्रों के लिए विशेष परिस्थितियों के अनुसार योजनाओं का निर्धारण तथा प्रति वर्ष हिमालयी कॉन्क्लेव का आयोजन करने पर सभी की सहमति बनी है। इसी कड़ी में अगले वर्ष होने वाले हिमालयी कॉन्क्लेव का आयोजन करने का जिम्मा हिमाचल प्रदेश ने लिया है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि जिस  तरह से सरकारी कामकाज में मीटिंग खत्म होने पर अगली मीटिंग का स्थान और विषय तय होता है, उसी तरह से यह भी इसी बैठक में तय हो गया कि अगले वर्ष हिमालयी कॉन्क्लेव कहां पर होगी।
इस बैठक में जिन बिंदुओं पर चर्चा और सहमति बनी है वह बिंदु पूर्व में भी सामने आ चुके हैं, तो फिर करोड़ां खर्च करके सरकार ने क्या नया फॉर्मूला रखा। यह सवाल सबके मन में उठ रहा है। रैबार कार्यक्रम में भी यही कहा गया था और पलायन आयोग के गठन के दौरान भी सरकार ने यही बातें सामने रखी थी। फिर इसमें ऐसा क्या है? जानकारों की मानें तो इस कार्यक्रम में केवल इतना हुआ कि हिमालयी क्षेत्र की जो चर्चाएं अलग- अलग प्रदेशों में होती थी वह पहली बार एक मंच पर हुई हैं और इसमें केंद्र सरकार के वित्त मंत्री, वित्त आयोग के अध्यक्ष और नीति आयोग के उपाध्यक्ष मौजूद रहे।
अब देखना होगा कि कॉन्क्लेव के बाद उत्तराखण्ड सरकार प्रदेश के विकास के लिए क्या ठोस नीति बनाती है और उस पर कब तक अमल करती है। पूर्व में सरकार को प्रदेश के विकास के नए मॉडल के लिए इस तरह के सुझाव मिल चुके हैं। लेकिन दो वर्ष बीत जाने के बावजूद प्रदेश में खासतौर पर पर्वतीय क्षेत्रों और सीमांत क्षेत्रां के हालात बद से बदतर बने हुए हैं। आज भी इन क्षेत्रों की जनता बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी से जूझ रही है। लोग बड़े पैमाने पर पलायन  को मजबूर हैं।
हाल ही में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जिसमें सरकार और सरकारी मशीनरी की उदासीनता से गर्भवती स्त्रियों की मौतें समय पर इलाज न मिल पाने के कारण हो चुकी हैं। दो माह में निरंतर पर्वतीय क्षेत्रों में वाहन दुर्घटनाएं हैं जिसमें दर्जनों लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन सरकार इस दिशा में मजबूत इच्छा शक्ति नहीं दिखा पाई।

बात अपनी-अपनी

वर्ष 2009 में हिमाचल में कॉन्क्लेव का आयोजन हुआ था। उसमें हिमालयी क्षेत्रों में काम करने वाले कई जानकार और विशेषज्ञ शामिल हुए थे। सबने मिलकर एक एजेंडा बनाया था, जबकि मसूरी कॉन्क्लेव में वह सब नहीं हुआ। इसमें न तो किसी जानकार या तकनीकी विशेषज्ञ को शामिल किया गया और न ही हिमालयी क्षेत्रों में काम करने वाले विशेषज्ञों को। कार्यक्रम की आड़ में सरकार ने सिर्फ अपनी लचर और कमजोर नीति को ढकने की असफल कोशिश की है। राज्य को कर्ज में डुबो देने वाली सरकार अपने लिए ग्रीन बोनस मांग रही है। उसकी कोई दृष्टि नहीं है। वनाधिकार 2006 को राज्य में लागू करने से सरकार परहेज कर रही है। अलग हिमालयी विकास मंत्रालय की मांग तो कई दशकों से चली आ रही है, फिर इसमें नया क्या है? सरकार असल मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय विकास की चिंता करने का ढोंग कर रही है।
किशोर उपाध्याय, पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष 
अलग हिमालयी विकास मंत्रालय की मांग नई नहीं है। पूर्व में हिमालयी दिवस कार्यक्रम में पीए संगमा जी ने भी हिमालय के विकास के लिए अलग मंत्रालय की बात कही थी। जहां तक ग्रीन बोनस की मांग का सवाल है, तो यह सरकार अपने संसाधानों के बूते उठा पा रही है। हमारा मानना है कि जब आपके संसाधन ही नहीं रहेंगे तो फिर आप क्या मांग पाओगे। मौजूदा हालत क्या है, इस पर बात होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।  ग्रॉस इन्वायरमेंट प्रोडक्ट (सकल पर्यावरण उत्पाद) को इसमें शामिल किया जाता तो बेहतर होता।
अनिल जोशी, अध्यक्ष हैस्को
वर्ष 2012 में सिक्किम में इंटीग्रेटिड माउंटेनिंग इनीशिएटिव (आईएमआई) का अधिवेशन हुआ था तो उसमें पर्वतीय राज्यों के लिए अलग मंत्रालय बनाए जाने की मांग हुई थी। जहां तक ग्रीन बोनस की बात है, तो अभी भारत सरकार ही अपने लिए विश्व से ग्रीन बोनस नहीं मांग पा पाई है। पर्वतीय राज्यों को तो इसके लिए बहुत इंतजार करना पड़ेगा।
रतन सिंह असवाल, संयोजक पलायन एक चिंतन कार्यक्रम
सबसे पहले तो ईको सेंसेटिव जोन को समाप्त करने के मुद्दे पर बात होनी चाहिए थी। इसके कारण हम अपने प्रदेश का विकास नहीं कर पा रहे हैं। ग्रीन बोनस सरकार केवल इसलिए मांग रही है कि वह अपने खर्च चला सके। सरकार ने अपने मंत्रियों और दायित्वधारियों पर ही इसको खर्च करना है। अभी सरकार ने अपने दायित्वधारियों की तनख्वाह तीन गुना बढ़ा दी है। सरकार की नीयत साफ नहीं है। मेरी नजर में यह हिमालयी कॉन्क्लेव पूरी तरह से फेल है। जब आप अपने राज्य की असल मांग और जरूरत को ही नहीं रख पा रहे हैं, तो काहे का कॉन्क्लेव।
अवधेश कौशल, अध्यक्ष रूरल संस्था

Leave a Comment

Your email address will not be published.

You may also like

MERA DDDD DDD DD