Uttarakhand

उत्तराखण्ड में बन रहा थर्ड फ्रंट

महज छह माह पूर्व उत्तराखण्ड क्रांति दल से निकलकर बनी राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी सूबे में तीसरी शक्ति बनने की ओर बढ़ रही है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवप्रसाद सेमवाल दशकों तक प्रदेश के जनमुद्दों पर पत्रकारिता करते रहे हैं। अपनी पैनी कलम से जनता की आवाज उठाकर सरकार को चेताने वाले शिवप्रसाद सेमवाल अब अपनी पार्टी के जरिए प्रदेश के जनमुद्दों को उठा रहे हैं। अंकिता भंडारी को न्याय दिलाने के लिए पौड़ी में हुई रैली के साथ ही उनकी पार्टी ने देहरादून में बेरोजगारी के मुद्दे पर कई बार विधानसभा घेराव किया। 26 फरवरी को देहरादून में हुए पार्टी के अधिवेशन और रोड शो में उमड़ा जनसैलाब इस नए दल के बड़ी ताकत बन उभरने का संकेत दे रहा है

‘प्रोफेशनल नेताओं की राजनीति से प्रथक उत्तराखण्ड में एक ऐसी राजनीति की जरूरत है, जो हर समय जनता के बीच रहने वाले विभिन्न समाजसेवियों के माध्यम से संचालित हो। जिसमें प्रदेश के जमीन से जुड़े मुद्दे शामिल हो। जनता की बात हो और इसके नेता जनता के लिए हर वक्त तैयार हो क्योंकि दिल्ली से संचालित आधे दर्जन राजनीतिक दल और उत्तराखण्ड के चार दर्जन से भी अधिक क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का पंजीकरण होने के बावजूद भी सूबे की जनता अकेले ही विभिन्न समस्याओं से जूझने को मजबूर है। प्रदेश को आज ऐसे पॉलिटिकल प्रेशर ग्रुप की जरूरत है जो सरकार को जनता के जमीनी मुद्दों की तरफ न केवल ध्यान दिलाए बल्कि उन मुद्दों का कुछ सार्थक समाधान भी हो सके। पहले यह उम्मीद यूकेडी से थी। उसके बाद आम आदमी पार्टी से हुई। लेकिन दोनों ही दलों से प्रदेश की जनता को मायूसी हाथ लगी। फिलहाल राष्ट्रीय रीजनल पार्टी इस मामले में फ्रंट फुट पर आकर जनता के हित में काम करती नजर आ रही है। अगर किसी दल में प्रदेश के सबसे बड़े मुद्दे मूल निवास और भू कानून पर लड़ाई लड़ी जा रही है तो वह राष्ट्रीय रीजनल पार्टी ही है। यह पार्टी ऐसे ही ये काम करती रही तो बहुत जल्द थर्ड फ्रंट के रूप में सामने आएगी।’

यह कहना है देहरादून निवासी विनोद थपलियाल का। थपलियाल राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी के आए दिन होने वाले धरना-प्रदर्शन, सम्मेलन, अधिवेशन आदि से गदगद नजर आए। वह बताते हैं कि 26 फरवरी को देहरादून में हुए अधिवेशन और रोड शो के दौरान उन्होंने राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी के जन सैलाब को देखा है। जिसे देखकर उन्हें राष्ट्रीय रीजनल पार्टी में उत्तराखण्ड की जनता का भविष्य उज्ज्वल नजर आ रहा है।

ऐसे में एक सवाल हर किसी के जेहन में है कि क्या उत्तराखण्ड को राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी (आरआरपी) के रूप में एक सशक्त क्षेत्रीय दल मिल गया है?

इसका जवाब तो आने वाला समय ही देगा, लेकिन लोगों को इतना जरूर आभास हो रहा है कि यह पार्टी स्थानीय मुद्दों के लिए असामान्य रूप से संघर्ष करने को तैयार दिख रही है। उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की अगर बात करें तो वे अधिकतर टूट बिखराव और वर्चस्व की राजनीति का शिकार होकर दम तोड़ रहे हैं। वैसे तो राज्य बनने से बहुत पहले ही क्षेत्रीय दल उत्तराखण्ड क्रांति दल यानी यूकेडी वजूद में आ गया था। इस दल ने पृथक राज्य की मांग को जन आन्दोलन का रूप देने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन 2002 में हुए उत्तराखण्ड के पहले विधानसभा चुनाव में चार सीटें जीतने वाली यूकेडी 2022 में एक भी सीट नहीं जीत सकी और एक फीसदी से भी कम वोटों में सिमट गई। आंतरिक गुटबाजी, संगठन में कलह और लीडरशिप की खामियों का आलम यह है कि यूकेडी अपना सामाजिक प्रभाव भी खत्म करती जा रही है। कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी के पिछलग्गू बनने की वजह से भी यूकेडी के राजनीतिक विकल्प बनने की संभावनाओं को झटका लगा। गत चुनावों में दल के दो धड़े सामने आ गए और पार्टी राज्य स्तरीय दल की मान्यता गवाने के साथ ही अपने चुनाव चिह्न ‘कुर्सी’ को भी खो चुकी है। असली-नकली के झगड़े में यह पार्टी ऐसी उलझी कि अपने अस्तित्व पर ही जूझने लगी। यूकेडी जैसी एक समय की मुखर पार्टी ने इस तरह अपने हाथों ही अपनी जमीन गंवा दी है।

यूकेडी के अलावा उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी भी पिछले दो दशक से जमीनी मुद्दों पर संघर्ष कर रही है। इस पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी ने अपना पूरा जीवन ही पहाड़ की जनता और पहाड़ के जनमुद्दों पर समर्पित कर दिया है। जन मुद्दों पर उनकी पार्टी आज भी सड़कों पर उतरती रहती है। अस्सी के दशक में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जैसे जन आंदोलनों से पहाड़ की सामाजिक व्यस्था परिवर्तन का शंखनाद करने वाले पीसी दा को लेकिन जनता ने चुनावों में कभी गंभीरता से नहीं लिया।

रामनगर के पोर्टल न्यूज ‘एटम बम’ के संपादक खुशाल रावत की अगर मानें तो उत्तराखण्ड की तेईस वर्षों की विकास नीतियां सबके सामने हैं, जिनके केंद्र में हिमालय के जीव, वनस्पति और प्रकृति का संरक्षण कोई मुद्दा नहीं रहा। हिमालयी जन के लिए मूलभूत शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार भी मुद्दा नहीं। यहां के भाजपा और कांग्रेस के नेता पूरे उत्तराखण्ड को पर्यटन केंद्र, ऐशगाह और सफारी में बदल रहे हैं। रावत कहते हैं कि प्रदेश में सरकारें चाहे जिसकी रही हों, भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियों का रवैया एक ही रहा है। दरअसल, इन्होंने कभी उत्तराखण्ड को राज्य समझा ही नहीं। इनके लिए राज्य एक औपनिवेशक बनकर रह गया है। उसमें यही स्थितियां बनेंगी जब तक गंभीरता से नहीं लिया जाएगा। इसलिए हमारा मानना है कि पर्वतीय राज्य की राजधानी गैरसैंण बने और प्रदेश की जनता क्षेत्रीय दल को प्रमुखता दे। यूकेडी की नीतियों को सब देख चुके हैं। फिलहाल प्रदेश के लिए राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी ज्यादा हितकर दिखाई दे रही है।

हरिद्वार के अतुल शर्मा कहते हैं कि उत्तराखण्ड बनने से एक फायदा ये हुआ है कि पानी, पलायन, पर्यावरण, पर्यटन और पहचान जैसे सवाल सामने आए हैं। हां ये जरूर हुआ कि राजनीतिक दृष्टि से और राजनीतिक इच्छाशक्ति न होने से वे सारी की सारी बातें नेपथ्य में चली गई हैं। राज्य बन जाने के बाद एकदम दूसरी तरह के लोग उसे चलाने के लिए आगे आ गए हैं। फिलहाल राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हुआ है और लोगों की आकांक्षाएं अधूरी रह गई हैं। उत्तराखण्ड के साथ भी यही हुआ है।

ऊधमसिंह नगर की अध्यापिका अनीता पंत के अनुसार वर्ष 2000 में तीन नए राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखण्ड का गठन हुआ था। झारखंड में जहां क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने शुरू से ही खुद को एक मजबूत राजनीतिक ताकत के तौर पर स्थापित कर लिया तो वहीं छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय दल इतने सालों में कोई खास राजनीतिक प्रभाव नहीं छोड़ पाए। उत्तराखण्ड में पहले से ही क्षेत्रीय दल की कमी महसूस की जा रही है। पिछले दो दशक में उत्तराखण्ड में लोग राष्ट्रीय दलों से ऊब चुके हैं। प्रदेश में आम आदमी पार्टी की एंट्री ने लोगों को यह भी दिखा दिया है कि उन्हें उत्तराखण्ड में दिल्ली की एक और पार्टी को पैठ क्यों नहीं बनाने देनी चाहिए। यूकेडी की आपसी राजनीति के बाद मुझे उत्तराखण्ड में एकमात्र क्षेत्रीय दल राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी नजर आती है जो राज्य की चिंताओं को समझते हैं। ‘आप’ के आने और पिछले विधानसभा में बुरी तरह पस्त हो जाने के बाद प्रदेश में इस बात को लेकर भी सुगबुगाहट तेज हुई है कि बाहरी लोगों के बजाय क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करना चाहिए।

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