बीते पांच वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में हुए बदलावों के बीच आम चुनाव को लेकर चर्चा है कि भावनाओं के ज्वार और असल मुद्दों के बीच उलझी जमीनी सियासत दिलचस्प हो गई है। जातीय और अस्मिता से जुड़ा सवाल भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाएगा। कहा जा रहा है कि बेहद पेचीदा जमीनी समीकरणों में सिकंदर कौन होगा अभी कहना मुश्किल है लेकिन इस चुनाव में उद्धव ठाकरे और शरद पवार का भविष्य भी दांव पर है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस बार का चुनाव ‘मोदी को जिताओ या मोदी को हराओ’ तक सीमित नहीं है, बल्कि इस चुनाव से क्षेत्रीय क्षत्रपों की पहचान और अस्मिता भी जुड़ी है। मसलन बारामती से तय होगा कि सीनियर या जूनियर किस पवार को जनता अपना नेता मानती है। बारामती में उम्मीदवार के नाम पर चेहरे भले ही पवार परिवार की बेटी या बहू हों, लेकिन यहां एनसीपी का असली वारिस जनता तय करेगी। अगर शरद पवार बनाम अजित पवार की लड़ाई हुई तो शरद पवार का पलड़ा भारी पड़ सकता है, लेकिन लड़ाई सुप्रिया बनाम अजित की हुई तो अजित का भारी पड़ना तय है। इसी तरह अन्य सीटों पर शिवसेना के दो धड़ों के बीच भी असली वारिस का फैसला जनता को करना है। महाराष्ट्र में 48 सीटों पर एनडीए बनाम इंडिया की लड़ाई है। एनडीए में भाजपा, शिवसेना (शिंदे गुट), एनसीपी (अजित पवार गुट) हैं। वहीं इंडिया में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव गुट), एनसीपी (शरद पवार गुट) शामिल हैं। नए राजनीतिक गठबंधन ने अभी तक मिलकर कोई चुनाव नहीं लड़ा है इसलिए चुनाव में उसकी परीक्षा होनी है। मार्च 2023 में चिंचवड़ और कसबा पेठ में उपचुनाव हुए। कांग्रेस उम्मीदवार ने लगभग तीन दशकों से लगातार विजयी रही भाजपा को कसबा पेठ से सत्ता से बाहर कर दिया, जबकि भाजपा ने चिंचवड़ को बरकरार रखा। लेकिन अजित पवार उस समय एमवीए के साथ थे। शिंदे और अजित पवार दोनों को ज्यादातर विधायकों और सांसदों का समर्थन प्राप्त है, लेकिन क्या उन्हें कैडर और कोर शिवसेना-एनसीपी मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है? यह चुनाव इसका जवाब देगा। 2019 के चुनाव में एनडीए को 51.3 प्रतिशत और इंडिया उस समय यूपीए को 35.6 फीसदी वोट मिले थे। राजनीतिक विश्लेषकों के एक वर्ग का मानना है कि उद्धव और शरद पवार के पक्ष में सहानुभूति बड़ा फैक्टर है, लेकिन दूसरा वर्ग यह भी मानता है कि कुछ समर्थक कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने और अपनी कट्टर हिंदुत्व विचारधारा से समझौता करने के लिए उद्धव ठाकरे से नाराज हो सकते हैं। हालांकि पांच सालों में महाराष्ट्र का सियासी गणित काफी बदल चुका है।

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