Editorial

अलोकतांत्रिक लोकशाही और ट्रम्प

मेरी बात

संयुक्त राज्य अमेरिका इस वर्ष के अंत में अपना नया राष्ट्रपति चुनेगा। इन दिनों विश्व भर की निगाहें इस अति महत्वपूर्ण चुनाव पर यूं ही नहीं टिकी हैं। अमेरिका न केवल सबसे विशाल लोकतंत्र है, सबसे ताकतवर सैन्य शक्ति वाला राष्ट्र है बल्कि आर्थिक और सामरिक शक्ति होने चलते विश्व को दो धुर्वों में विभाजित करने वाला राष्ट्र भी अमेरिका ही है। पूंजीवाद के खिलाफ जीवन पर्यंत संघर्षरत् रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनीतिक विचारक मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिकी पूंजीवाद की बाबत कहा था- ‘Capitalism does not permit an even flow of economic resources. With this system a small priviledged few are rich beyond conscience and almost all others are doomed to be poor at some level. That’s the way the sysem works’ (पूंजीवाद अर्थिक संसाधनों के एक समान वितरण की अनुमति नहीं देता है। इस व्यवस्था के चलते चंद लोग विवेक से परे अमीर हैं और लगभग अन्य सभी गरीब होने के लिए अभिशप्त हैं। यह व्यवस्था इसी तरह काम करती है।) अमेरिका इस व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक है और वहां के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस व्यवस्था से पैदा हुए ऐसे खरबपति हैं जिनके शब्दकोष में नैतिकता, मानवीयता, सहिष्णुता और सहृदयता जैसे शब्द नदारत हैं। फिर भी यदि रिपब्लिकन पार्टी के इस नेता को अमेरिकी जनता का भरपूर समर्थन मिल रहा हो और उनके दोबारा राष्ट्रपति बनने की संभावना प्रबल हो, तब उनकी राजनीति पर, उनकी विचारधारा पर, उनके व्यवहार पर टिप्पणी इसलिए जरूरी हो जाती है क्योंकि ट्रम्प यदि जीतते हैं तो इसका बहुत नकारात्मक असर पूरी दुनिया पर पड़ना तय है। तो चलिए शुरूआत अमेरिकी इतिहास के सबसे विवादित इस पूर्व राष्ट्रपति के ताजातरीन उस बयान से करते हैं जिसमें हर उस शख्स की चिंताओं में भारी इजाफा कर दिया है जो दक्षिणपंथी ताकतों के विश्व स्तर पर बढ़ रहे प्रभाव से चिंतित और व्यथित है।

गत् पखवाड़े ट्रम्प ने प्लोरिडा राज्य की एक चुनावी रैली में गरजते हुए अमेरिकी इसाई समाज से कहा- ‘इसाईयों बाहर निकलो और सिर्फ इस बार वोट दो। फिर आपको वोट डालने की जरूरत नहीं होगी। चार साल में सब सही कर दिया जाएगा। मेरे प्यारे ईसाईयों, आपको फिर वोट डालने की जरूरत नहीं होगी। मैं आपसे प्यार करता हूं।’

कितना घातक संबोधन है यह। अमेरिका अपने लोकतंत्र पर गर्व करता आया है। अब उसी अमेरिका का एक पूर्व राष्ट्रपति खुलकर एक धर्म विशेष की भावनाओं को न केवल उकसा रहा है बल्कि पूरी लोकतंत्रिक व्यवस्था को समाप्त करने का इशारा भी पूरी दबंगई के साथ कर रहा है। स्मरण रहे 2020 में जब ट्रम्प को राष्ट्रपति चुनाव में हार मिली थी तब उन्होंने हर कीमत सत्ता से चिपके रहने का प्रयास किया था। उनके समर्थकों ने तो अमेरिकी संसद पर हमला तक बोल दिया था। यही कारण है अब इसाई समाज की भावनाओं को उकसाने का काम कर रहे ट्रम्प की मंशा को लेकर न केवल अमेरिका बल्कि पूरे विश्व में बहस शुरू हो चली है। उनके आलोचकों को आशंका है कि वे लोकतांत्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता को समाप्त कर अमेरिका को इसाई देश बनाने की मंशा पाल बैठे हैं। उनका यह कहना कि ‘सिर्फ इस बार वोट दो, फिर आपको वोट डालने की जरूरत नहीं पड़ेगी’ उनके इरादों को साफ कर देता है। हर चार वर्ष में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होते हैं और कोई भी व्यक्ति दो बार से ज्यादा अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं रह सकता है। यदि ट्रम्प इस बार चुनाव जीत जाते हैं तो वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थानुसार यह उनका अंतिम कार्यकाल होगा। ऐसे में उनका यह कहना कि अगली बार वोट देने की जरूरत नहीं पड़ेगी उन आशंकाओं को गहराता है जो ट्रम्प के पुतिन समान जीवन पर्यंत सत्ता में बने रहने की प्रवृति तरह इशारा करती हैं। यही वह आशंका है जो डेमोक्रेटिक पार्टी समेत अमेरिका के एक बड़े वर्ग से यह कहला रही है कि यदि ट्रम्प जीते तो लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा। डोनाल्ड ट्रम्प निरकुंश प्रवृति के हैं यह निर्विवाद सत्य है। गत् वर्ष दिसंबर में उन्होंने एक न्यूज चैनल को दिए साक्षात्कार के दौरान कहा भी था कि वे यदि दोबारा राष्ट्रपति बने तो एक दिन के लिए तानाशाह बन कुछ कड़े फैसले लेंगे। ट्रम्प कई मर्तबा ऐसे अंतरराष्ट्रीय नेताओं की तारीफ कर चुके हैं जो घोषित तौर पर तानाशाह थे या हैं। ट्रम्प जिन नेताओं को सहराते हैं उनमें रूसी राष्ट्रपति पुतिन और उत्तर कोरिया के क्रूर तानाशाह किम जोंग शामिल हैं। हिटलर भी उन तानाशाहों में शामिल है जिन्हें ट्रम्प पसंद करते हैं। सोचिए ऐसी प्रवृति वाले व्यक्ति का दोबारा विश्व की सबसे बड़ी शक्ति की कमान संभालना कितना घातक होगा? ट्रम्प अब धर्म को हथियार बना अमेरिका को ईसाई राष्ट्र बनाने की बात भी करने लगे हैं। पूरा विश्व इस समय उग्र  राष्ट्रवादियों के प्रभाव में है। फिर चाहे वह दुनिया का सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश अमेरिका हो या फिर जनसंख्या के आधार पर सबसे विशाल लोकतंत्र भारत हो। ट्रम्प समर्थक ‘मेक अमेरिका क्रिश्च्यिन अगेन’ का नारा लगाते हिचकिचाते नहीं हैं। अमेरिका में सत्तर फीसदी जनता ईसाई हैं जिन्हें ईसाईयत के नाम पर गोलबंद किया जा रहा है। ऐसे में यदि ट्रम्प दोबारा राष्ट्रपति बनने में सफल हो जाते हैं और यदि वे अमेरिकी संविधान का विधान बदल जीवन पर्यंत राष्ट्रपति बने रहने की तरफ कदम बढ़ाते हैं तो सोचिए इसका पूरे विश्व में क्या संदेश जाएगा? और लोकतंत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष व्यवस्थाओं का क्या हश्र होगा? रूस कभी भी लोकतंत्रिक राष्ट्र नहीं रहा, फिर भी पुतिन ने लगातार वहां के संविधान को बदल सत्ता की असल कमान अपने हाथों में सीमित कर हर ऐसे राजनेता का मार्गदर्शन किया है जो खुद को श्रेष्ठ मानते हुए सत्ता पर बने रहना अपना अधिकार समझता हो। ट्रम्प यदि पुतिन समान ही कुछ ऐसा करने का प्रयास दोबारा राष्ट्रपति बनने बाद करते हैं तो विश्व भर में तानाशाही प्रवृति को विस्तार मिलेगा। स्मरण रहे धर्म को हथियार बना राजशक्ति हासिल करने का काम हमारे देश में भी लगातार हो रहा है। ‘लोकतंत्र खतरे में है’ की बात भाजपा विरोधी दलों के साथ-साथ देश की उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश तक कह चुके हैं। हालिया संपन्न लोकसभा चुनावों की मतगणना से ठीक पहले 3 जून को उच्च न्यायालयों के कुछ सेवानिवृत न्यायाधीशों ने तो राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को पत्र तक लिखकर यह आशंका व्यक्त कर डाली थी कि यदि नतीजे सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ आते हैं तो सत्ता का हस्तांतरण आसानी से नहीं होगा और संवैधानिक संकट पैदा हो जाएगा। सोचिए न्यायपालिका से जुड़े पूर्व न्यायाधीशों को ऐसा पत्र लिखने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा होगा? ऐसा इसलिए क्योंकि वे समझ रहे थे कि तानाशाही मनोवृति सत्ता में हर कीमत बने रहना चाहती है और यह कि इस प्रकार की मनोवृति का यह देश पहले शिकार बन चुका है। 1971 में पाकिस्तान के दो फाड़ करने वाली तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इसी मनोवृति का शिकार हो चलीं थीं। उन्हें यह भारी मुगालता हो गया था कि भारत का भविष्य उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है। नतीजा 1975 में आपातकाल के रूप में सामने आया था। लोकतंत्रिक व्यवस्थाओं में अटूट भरोसा रखने वालों को ऐसा ही खतरा वर्तमान प्रधानमंत्री से है। यही कारण है कि लगातार ‘लोकतंत्र खतरे में है’ की बात कही जा रही है। एक नई किस्म की तानाशाही तेजी से विस्तार कर रही है। इसे आप ‘अलोकतांत्रिक लोकशाही’ कह सकते हैं। रूस, ईरान, इराक, वेनिजुएला, मिस्र, तुर्की, जार्जिया इत्यादि इसके उदाहरण हैं। इन सभी देशों में कहने को तो सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई है लेकिन व्यवस्था पूरी तरह तानाशाही है।

ट्रम्प की संभावित जीत इस प्रकार की ‘अलोकतांत्रिक लोकशाही’ को विश्वभर में विस्तार देने का काम करेगी। इस व्यवस्था के अंतर्गत मीडिया पर लोकतांत्रिक तानाशाह का कब्जा होता है, अर्थव्यवस्था चंद के हाथों गिरवी रहती है, विपक्षी दलों को सरकारी एजेंसियों के जरिए निशाने पर रखा जाता है, धर्म और राजसत्ता में अद्भुत गठजोड़ रहता है और न्यायपालिका भी पूरी तरह सत्ता समक्ष नतमस्तक रहती है। फिर भी इसे लोकतंत्र कह पुकारा जाता है। इसलिए जरूरी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी कमला हैरिस जीतें ताकि विश्वभर में जहां कभी भी लोकतंत्र है, उसे मजबूती मिल सके। बाकी अमेरिका तो अमेरिका है, जीते कोई भी, अमेरिकी दादागिरी तो यथावत रहेगी ही रहेगी।

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