मेरी बात

हमारा संविधान स्पष्ट कहता है कि हम एक पंथनिरपेक्ष राज्य है। यह देश सभी धर्मों को एक समान मान्यता और सम्मान देने वाला देश हैं। हमारे संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27 और 28 में धार्मिक स्वतंत्रता की व्याख्या करते हुए इसकी गारंटी दी गई है। फिर भी, आजादी के तुरंत बाद से ही धार्मिक कट्टरवाद का उभार हमारी धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देने लगा था। आधीरात मिली आजादी अपने साथ धर्म के आधार पर हुए विभाजन को साथ लेकर आई। इस विभाजन ने दंगों को जन्म दिया जिसकी भेंट हिंदू और मुसलमान, दोनों ही चढ़े थे।

धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को पहला और घातक धक्का इस धर्म आधारित विभाजन ने देने का काम किया, ऐसा धक्का जिसमें यह राष्ट्र कभी संभल नहीं पाया। स्मरण रहे हमारे संविधान निर्माताओं ने विभिन्न धार्मिक समूहों के मध्य समरसता बनाए रखने की नीयत से सभी को अनुच्छेद 14 के जरिए समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 के अंतर्गत धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के दृष्टिगत भेदभाव की रोकथाम का आधार, अनुच्छेद 25 के तहत् धार्मिक  उपासना की स्वतंत्रता का अधिकार तो अनुच्छेद 26, 27 और 28 के जरिए धार्मिक संस्थानों को स्वतंत्रता का अधिकार सौंपा लेकिन आजादी के ठीक बाद से ही इन संवैधानिक आदर्शों को धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक हस्तक्षेप और सांप्रदायिक विभाजन ने आघात पहुंचाना शुरू कर दिया। यह आघात वर्तमान दौर में भीषण हो चला है। उत्तर प्रदेश के संभल में हुई घटना और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश महोदय के कथन बरअक्स समझने का प्रयास करिए कि 1947 से शुरू हुई यात्रा आज कहां जा पहुंची है? न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से एक है। इस स्तंभ को यदि जंक लग जाए तो लोकतंत्र की इमारत का क्या होगा? वर्तमान समय में न्यायपालिका भी धार्मिक धु्रवीकरण का शिकार हो चली है। इसे 2019 में उच्चतम् न्यायालय की एक पीठ द्वारा बाबरी मस्जिद-राम मंदिर प्रकरण पर दिए गए फैसले से भी समझा जा सकता है और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के ताजातरीन विवादित बयान से भी। राम मंदिर निर्माण की राह प्रशस्त करने वाले सुर्प्रीम कोर्ट के फैसले पर बहुत कुछ कहा-सुना, लिखा जा चुका है। देश की शीर्ष अदालत के उक्त फैसले से ही प्रेरणा लेते हुए गत् दिनों न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने समान नागरिक संहिता पर प्रयागराज में विश्व हिंदू परिषद्  द्वारा आयोजित एक संवाद के दौरान यह कहने का दुस्साहस कर दिखाया कि यह देश बहुसंख्यक आबादी के हिसाब से ही चलेगा। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद फैसले से वे प्रभावित हैं, इसका प्रमाण अक्टूबर 2021 में उनके द्वारा दिया गया एक फैसला है जिनमें उन्होंने कहा था कि ‘सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों बाद रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले में राम के अनुयायिों के पक्ष में फैसला दिया जो इस बात को दर्शाता है कि राम इस देश के हर नागरिक के दिल में रहते हैं।’ उनका ताजा कथन न केवल संविधान के पंथनिरपेक्ष सिद्धांत का उल्लंघन करता है, बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल खड़ा करता है। बकौल न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव- ‘भारत में देश की नीतियां और कानून बहुसंख्यक समुदाय की इच्छाओं के अनुसार चलने चाहिए।’ न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव का यह कथन न केवल संविधान प्रदत्त समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन् करता है, बल्कि नफरती भाषणों, नारों और धार्मिक उन्माद के माहौल को भी सही साबित करने का प्रयास करता है क्योंकि वर्तमान समय में ऐसे भाषण, नारे और उन्माद के पीछे वही ताकतें हैं जो इस देश को बहुसंख्यकों का राष्ट्र मानती आईं हैं। शेखर कुमार यादव इन्हीं ताकतों की जमात का हिस्सा हैं। इसी वर्ष सितम्बर महीने में उन्होंने ब्रिटेन के हाऊस ऑफ लॉर्ड्स में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था कि ‘सत्ता, बदलने के बावजूद भारत उस गति से प्रगति नहीं कर सका, जिस गति से उसे करनी चाहिए थी, लेकिन 2014 से यह हमारा ‘अमृतकाल’ है।’

न्यायाधीश बनने से पहले न्यायमूर्ति यादव इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। दिसंबर 2019 में उन्हें हाईकोर्ट का अतिरिक्त जज बनाया गया था और मार्च, 2021 में स्थाई जज बतौर उनकी पुष्टि की गई। यह वही जज हैं जिन्होंने अक्टूबर 2021 में, राम, कृष्ण, रामायण, गीता और इसके रचनाकारों, महर्षि वाल्मीकि और वेदव्यास को विशेष कानून बना राष्ट्रीय सम्मान दिए जाने की बात अपने एक फैसले में कही। सितंबर 2021 में अपने एक फैसले में न्यायमूर्ति यादव ने गाय को ‘राष्ट्रीय पशु’ घोषित करने के लिए कानून बनाए जाने की बात कही और गायों को नुकसान पहुंचाने वालों के खिलाफ कड़े कानून बनाने का समर्थन करते हुए यहंा तक कह डाला कि वैज्ञानिकों के अनुसार गाय ही एक ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन को ग्रहण करता है और छोड़ता है। स्पष्ट है कि न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव साहब उस हिंदुत्व की अवधारणा पर यकीन करने वाले व्यक्ति हैं जो इस राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र घोषित किए जाने की वकालत करता है। संकट लेकिन उनके ताजा बयान से गहरा जाता है जब वे खुलेतौर पर एक धर्म विशेष  की तरफ इशारा करते हुए कह डालते हैं कि  ‘कटमुल्ले…देश के लिए घातक हैं।’ इसे मैं ‘घृणा भाषण’ (हेट स्पीच) की श्रेणी में रखता हूं। उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश जब यह कहे कि उनके बच्चे दयालु और सहनशील कैसे बनेंगे, जब बचपन से ही उनके सामने जानवरों को काटा जाता है…इस समुदाय के सभी लोग बुरे नहीं लेकिन कटमुल्ले देश के लिए घातक हैं।’ यह सोचकर ही सिरहन सी होती है कि मात्र 75 बरस की यात्रा के दौरान यह देश किस रसातल में जा पहुंचा है। सोचिए जब लोकतंत्र के इस सबसे मजबूत स्तम्भ- न्यायापालिका में इस प्रकार की सोच वाले न्यायाधीश बहुतायत में हो जाएंगे तो क्या होगा हमारा और हमारे संविधान का? सोचिए एक न्यायाधीश के इन वचनों का क्या असर अल्पसंख्यक समाज पर पड़ा होगा और वे कितना असहाय और भयभीत स्वयं को महसूस रहे होंगे? विश्व हिंदू परिषद् के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में एक न्यायाधीश का शामिल होगा ही मेरी दृष्टि में पूरी तरह गलत है। कौन नहीं जानता कि विश्व हिंदू परिषद उग्र हिंदुत्व की वकालत करने वाला ऐसा संगठन है जो समाज में विभाजनकारी माहौल बनाने का काम दशकों से करता आया है?

‘तेल लगाओ डाबर का, नाम मिटा दो बाबर का’ जैसे नारे लगाने वाली विश्व हिंदू परिषद् के कार्यक्रम में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव का सम्मिलित होना मेरी उस आशंका को पुष्ट करता है जो न्यायपालिका के भी कट्टरवाद की राह का बगलगीर होने की तरह इशारा कर रही है।

न्यायाधीश सामान्य व्यक्ति समान आचरण नहीं कर सकते हैं। उनके ऊपर संविधान की मर्यादाओं का बोझा है जो उनसे पूरी तरह निष्पक्षता और संवैधानिक दायरे में रहकर काम करने की अपेक्षा करता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी यूं तो अब पूरी तरह भुला दिए गए हैं फिर भी मुझ सरीखों को वो भूल से भी भुलाए नहीं जाते। गांधी का मानना था कि न्यायपालिका का कर्तव्य केवल कानूनों का पालन सुरक्षित करना भर नहीं है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि न्याय सदभाव और नैतिकता के सिद्धांतों पर आधारित हो। उच्चतम् न्यायालय के ख्याति प्राप्त  न्यायाधीश, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने गांधी के विचारों को विस्तार देते हुए कहा था-

‘न्यायपालिका का अंतिम उद्देश्य संविधान के मूल्यों को जीवंत रखना है।’ हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारतीय न्यायपालिका कट्टरवाद की ओर जा चुकी है परंतु यह स्पष्ट है कि समय-समय पर उच्चतम् और उच्च न्यायालय के कुछ फैसलों ने इस आशंका को बलवती करने का काम किया है। उदाहरण के लिए 1995 में ‘आरसी पाल बनाम चुनाव आयोग’ मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने ‘हिदुत्व ने जीवन का तरीका’ कह परिभाषित किया था जो धार्मिक भेदभाव के तरफ जाता है। इसी प्रकार 2019 में ‘रामजन्म भूमि – बाबरी मस्जिद’ मामले में एक तरफ तो उच्चतम न्यायालय ने मस्जिद के विध्वंस को अवैध करार दिया तो दूसरी तरफ राममंदिर निर्माण के लिए ध्वस्त की गई मस्जिद की जमीन ही राम जन्म भूमि ट्रस्ट को सौंप दी। निश्चित तौर पर यह फैसला बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं के आधार पर किया गया फैसला था जिसने बहुसंख्यकवाद को बढ़ाने का काम किया है। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति यादव के इस ‘प्रलाप’ को सख्ती से लिया है और इस पर आंतरिक जांच भी बैठा दी है लेकिन न्यायमूर्ति यादव मेरी चिंता का विषय नहीं हैं। मैं चिंतित हूं कि क्या हमारा समाज, हमारा पूरा राष्ट्र इस कदर चेतनाशून्य हो चला है कि धार्मिक कट्टरवाद के खतरों को समझ-बूझ पाने में विफल हो चला है? क्या वाकई गांधी का यह देश अब गोडसे का देश बनने की राह पकड़ चुका है? यदि ऐसा है तो समझ लीजिए हमारा गर्त में जाना तय है।

गत् 14 दिसम्बर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान ‘संविधान के 75 वर्ष की गौरवशाली याात्रा’  पर चर्चा के दौरान लगभग ढाई घंटे बोले। उन्होंने अपने इस लम्बे भाषण के दौरान बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर, सर्वपल्ली राधा कृष्णन और पुरुषोत्तम दास टंडन के संविधान सभा में दिए भाषणों का उल्लेख करते हुए इस बात पर बल दिया कि भारत लोकतंत्र की जननी है और यह भी कि भारत में लोकतंत्र फल-फूल रहा है। क्या वाकई? प्रधानमंत्री जी के भाषण को केंद्र बिंदु बना आजाद भारत के 75 बरस की यात्रा पर चर्चा अगले अंक में…

क्रमशः

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