लोसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मियां जोरों पर हैं। सभी दल जनता को लुभाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं और जनता को साधने के लिए जुटे हुए हैं वहीं एनसीपी नेता शरद पवार के एक बयान से महाराष्ट्र की राजनीति में उबाल आ गया है। राजनीतिक हल्कों में चर्चा हो रही है कि क्या लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद शरद पवार घर वापसी जैसा बड़ा निर्णय ले सकते हैं।
असल में शरद ने एक बयान में कहा कि आम चुनाव के बाद कई क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस में विलय हो जाएगा या वह कांग्रेस के करीब आ जाएंगी। चुनाव के बीच उनके इस यह बयान के बाद सवाल उठ रहे हैं कि आखिर पवार ने यह बयान क्यों दिया? क्या उनका इशारा कांग्रेस में एनसीपी के विलय से है?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि 83 साल के पवार अपने राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। पिछले साल उनके भतीजे अजित पवार ने पार्टी के दो फाड़ कर दिए। इसके बाद पवार के साथ सिर्फ कुछ मुट्ठीभर नेता रह गए हैं। पार्टी टूटने का असर पवार के मनोबल पर भी पड़ा है। उधर, शुगर को-ऑपरेटिव और बैंक जैसे फाइनेंशियल स्रोत अब अजीत पवार के कंट्रोल में आ गए हैं। ऐसे में पवार का बयान इस बात का संकेत हो सकता है कि लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद उन्होंने कांग्रेस में अपनी पार्टी के विलय के बारे में सोचा होगा। खासकर तब जब उन्होंने यह भी कहा है कि उनकी पार्टी और कांग्रेस की विचारधारा एक है। दोनों दलों का भरोसा गांधी-नेहरू के सिद्धांतों में है। पवार ने 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने पर सवाल जरूर उठाए थे लेकिन अब इस मामले को दशकों बीत चुके हैं।
पवार कांग्रेस से जरूर अलग हुए थे, लेकिन उनकी अगुवाई वाली एनसीपी शुरुआत से यूपीए का हिस्सा रही है। महाराष्ट्र की सियासत शरद पवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। वो सत्ता में हों या न हों, लेकिन सूबे की राजनीति में शरद पवार ‘फैक्टर’ सबसे अहम रहा है। वे महाराष्ट्र की राजनीति को अपने लिहाज से चलाते रहे, लेकिन समय का पहिया ऐसा घूमा कि शरद पवार सियासी तौर पर अब असहाय नजर आ रहे हैं। भतीजे अजित पवार ने ऐसा सियासी दांव चला कि शरद पवार चारों खाने चित्त हो गए। उनके हाथों से पार्टी छिन गई नेता भी साथ छोड़ गए। ऐसे में शरद पवार के लिए नई पार्टी बनाकर दोबारा से उसे खड़ा करना आसान नहीं है, जिसके चलते उनकी पार्टी के कांग्रेस में विलय किए जाने की आशंका सच भी हो सकती है।
गौरतलब है कि शरद ने 25 साल पहले कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी का गठन किया था और उस समय में वो युवा अवस्था में थे, जिसके चलते वो मशक्कत कर अपनी पार्टी को महाराष्ट्र में स्थापित करने में कामयाब रहे। लेकिन अब उम्र के ऐसे पड़ाव पर हैं, जहां न पहले की तरह मेहनत कर सकते हैं और न ही उस तरह की लोकप्रियता बची है। दूसरा शरद के सामने बेटी सुप्रिया सुले को अपने सियासी वारिस के तौर पर स्थापित करने की चुनौती खड़ी हो गई तो अब उनके लिए नई पार्टी को दोबारा से खड़ा करना आसान नहीं लग रहा है। ऐसे में शरद पवार फिर वहीं दस्तक दे सकते हैं जहां से उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी का आगाज किया। दूसरी तरफ अन्य क्षेत्रीय दलों की बात करें तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे पवार के इस बयान से सहमत होंगे?
करीब पांच दशक तक कांग्रेस और शिवसेना में राजनीति प्रतिद्वंद्विता रही है। दोनों की विचारधारा भी मेल नहीं खाती। शिवसेना जहां हिंदुत्व को लेकर आक्रामक सोच रखती है, वहीं कांग्रेस की विचारधारा धर्मनिरपेक्षता की रही है। हालांकि 2019 में पवार की पहल से महाअघाड़ी वजूद में आया था जिसमें कांग्रेस के साथ शिवसेना भी शामिल है। लेकिन तब उसका मकसद महाराष्ट्र में सरकार बनाना था। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष महाविकास अघाड़ी के लिए तैयार नहीं थे लेकिन पवार ने उनकी मां सोनिया गांधी को इसके लिए राजी कर लिया था।
महाविकास अगाड़ी ने महाराष्ट्र में करीब ढाई साल तक सरकार चलाई। हालांकि इस दौरान राम मंदिर और वीर सावरकर सहित कुछ मसलों को लेकर दलों के बीच आपसी मतभेद नजर आए। मिलिंद देवड़ा और संजय निरूपम जैसे नेताओं को कांग्रेस छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, क्योंकि उन्हें लगा कि महाविकास अगाड़ी में शिवसेना का प्रभुत्व बढ़ रहा है। इसके बाद लोकसभा चुनाव से पहले टिकट बंटवारे को लेकर भी दलों में मतभेद देखने को मिला था। लेकिन यह साफ है कि पवार के इस बयान से भाजपा को शिवसेना पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। उधर शिवसेना ने अपनी प्रतिक्रिया जताने में सावधानी बरती है। उसने कहा है कि यह पवार की निजी राय हो सकती है। शिवसेना के कांग्रेस के साथ अच्छे रिश्ते हो सकते हैं। लेकिन ऐसा दूसरे दलों के बारे में नहीं कहा जा सकता। तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति कांग्रेस की धुर विरोधी है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का कांग्रेस के साथ छत्तीस का आंकड़ा है। महाराष्ट्र, हरियाणा और पंजाब में भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस को लेकर सहज नहीं हैं। ऐसे में देखना होगा कि चुनाव के बाद पवार की बात कितना सच साबित होती है।