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साल 2022 :न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले,जिसने महिलाओं को सशक्त बनाया

साल 2022 अब अपने अंतिम पड़ाव पर है और लोग नई उम्मीदों के साथ 2023 का इंतजार कर रहे हैं। पिछले एक साल के दौरान न्यायालय ने महिलाओं के लिए कई प्रगतिशील फैसले लिए ,जो आने वाले समय में महिलाओं के लिए बहुत अच्छे है। इतना ही नहीं सरकार और प्रशासन को कड़ी फटकार लगाई है। एक नज़र ऐसे ही फैसलों पर, जिन्होंने न्याय व्यवस्था में लोगों के विश्वास को और मजबूत किया…

1.पिता की जायदाद में बेटियों का हक

इस साल की शुरुआत में 20 जनवरी को उच्चतम न्यायालय के जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने पिता की प्रॉपर्टी में बेटियों का हक सुनिश्चित करते हुए 51 पन्नों का फैसला सुनाया जिसमें प्राचीन हिंदू उत्तराधिकार कानूनों और तमाम अदालतों के पुराने फैसलों का ज़िक्र किया गया। ये फैसला मद्रास उच्च न्यायालय  के फैसले के खिलाफ दाखिल अपील पर सामने आया था, जिसमें सर्वोच्च अदालत ने साफ किया था कि बिना वसीयत किए मरे हिंदू पुरुष की बेटियां, पिता द्वारा स्व-अर्जित और बंटवारे में हासिल दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने की हकदार होगी और उसे परिवार के दूसरे हिस्सेदार सदस्यों पर वरीयता मिलेगी। ये फैसला संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज समुदाय पर लागू होगा।बता दें कि साल 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के पहले शादीशुदा महिलाओं को अपने पिता के घर कानूनी रूप से रहने का अधिकार तक नहीं था। यानी समाज की तरह ही कानून की नज़रों में भी महिलाओं का असल घर उनका ससुराल ही माना जाता था। साल 2005 में इस नियम को बदला गया और शादी के बाद भी बेटियों को अपने पिता की स्वअर्जित प्रॉपर्टी पर बेटों के बराबर हक दिए गए। हालांकि इसमें भी कई अड़चनें थी, जिसे उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले में स्पष्ट करते हुए महिलाओं को 1956 के पहले की भी पिता की स्व-अर्जित या दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने का अधिकार दिया है।

2.लिव-इन रिलेशनशिप में घरेलू हिंसा को मान्यता

 टेनिस स्टार लिएंडर पेस और मॉडल रिया पिल्लई के रिश्ते को लेकर मुंबई की एक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने रिया के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा था कि सिर्फ इसलिए कि लिव-इन रिलेशनशिप अस्वीकार्य है, महिला को उसके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। पेस के साथ लिव-इन में रहने वाली रिया पिल्लई ने साल 2014 में मुंबई के मेट्रोपॉलिटन कोर्ट में लिएंडर और उनके पिता के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत की थी। रिया और पेस दोनों ने ही एक-दूसरे पर शादी से बाहर रिश्ते रखने के आरोप लगाए थे। जिसके बाद इस साल फरवरी में करीब आठ साल बाद कोर्ट ने रिया के पक्ष में फैसला सुनाया था। लिव-इन रिलेशनशिप में घरेलू हिंसा को मान्यता देने वाला ये फैसला अपने आप में उन तमाम पीड़ित महिलाओं के लिए एक उम्मीद है,जो समाज में अपने रिश्ते के अस्तित्व तो लेकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हैं। वैसे तो भारतीय कानून के अनुसार लिव इन में अगर स्त्री के अधिकारों का किसी भी तरह हनन होता है तो महिला अपने पुरुष साथी पर घरेलू हिंसा अधिकार अधिनियम के अंतर्गत केस कर सकती है। लेकिन अक्सर इन रिश्तों को कैजुअल समझे जाने के कारण इन रिलेशन में रहने वालों के बीच किसी भी कानूनी बंधन को इंकार कर देना आसान हो जाता है। ऐसे में ये फैसला निश्चित तौर पर अंधेर में रोशनी जैसा है।

3.मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार

 इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। तलाकशुदा औरतें ‘इद्दत’ (किसी भी महिला के तलाक या उसके पति की मृत्यु के बाद की एक निर्धारित अवधि) की अवधि के बाद भी दूसरी शादी तक गुजारा भत्ता पा सकती हैं। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय  के साल 2009 में शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले का जिक्र करते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत प्रावधान लाभकारी कानून हैं और इसका लाभ तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को मिलना चाहिए। इससे पहले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तलाक में सिर्फ मेहर की रकम लौटाना ही काफी मानता था। इसमें गुजारा भत्ता देने की कोई व्यवस्था नहीं थी,खासकर इद्दत की अवधि के बाद,लेकिन शाह बानो ने 62 साल की उम्र में तलाक के बाद अपने हक के लिए पति के खिलाफ कानूनी जंग छेड़ी और जीत हासिल की है। इस्लाम जानकारों के मुताबिक शरीयत में इद्दत अवधि के बाद गुजारा-भत्ता लेना या देना हराम (अवैध) माना जाता रहा है, क्योंकि इद्दत अवधि खत्म होने के बाद पुरुष और महिला का रिश्ता भी खत्म हो जाता है। ऐसे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ये फैसला कोई नया नहीं था, लेकिन खास जरूर था, जिसने एक बार फिर असंख्यक महिलाओं के अधिकारों को सशक्त किया।

4.सेक्स वर्क भी एक पेशा

सेक्स वर्कर्स को ज़्यादातर अपराधियों के रूप में देखा जाता है। समाज और पुलिस उनके साथ असंवेदशील व्यवहार करती है, उन्हें तिरस्कार तक का सामना करना पड़ता है। लेकिन इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट के एक एतिहासिक आदेश से लाखों सेक्स वर्कर्स की ज़िंदगी बदलने की उम्मीद जागी। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि सेक्स वर्क यानी की वेश्यावृत्ति एक पेशा है और सेक्स वर्कर्स कानून के अनुसार सम्मान और समान सुरक्षा की हकदार हैं। उच्चतम न्यायालय ने पुलिस से भी कहा था कि अपनी सहमति से सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने वालों के खिलाफ न तो उन्हें दखल देना चाहिए और न ही कोई आपराधिक कार्रवाई शुरू करनी चाहिए। आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 10 लाख यौनकर्मी हैं। इनमें से ज्यादातर ना तो वोट दे सकती हैं, ना बैंक खाते खोल सकती हैं और ना ही इन्हें राज्यों से गरीब लोगों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ मिलता है। इनके पास जरूरी दस्तावेजों का नहीं होना इसकी वजह है और अक्सर ये कर्ज के जाल में फंस जाती हैं जहां साहूकार इनसे मनमाना ब्याज वसूलने के साथ ही परेशान भी करते हैं। पिछले साल ही उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि पंजीकृत यौनकर्मियों को राशन कार्ड और वोटर आईडी कार्ड जारी किए जाएं और उनका आधार पंजीकरण भी किया जाए। इससे सेक्स वर्कर्स की जिंदगी और सम्मान पर प्रभाव देखने को मिलेगा।

5.लिव-इन से जन्मा बच्चा भी पैतृक संपत्ति का हिस्सेदार

उच्चतम न्यायालय ने लिव-इन रिलेशन से जन्मे बच्चे को लेकर एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि लंबे समय तक बगैर शादी के साथ रहे जोड़े से पैदा अवैध संतान को भी परिवार की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा। न्यायालय के जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ के मुताबिक,अगर पुरुष और महिला सालों तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं, तो मान लिया जाता है कि दोनों में शादी हुई होगी और इस आधार पर उनके बच्चों का पैतृक संपत्ति पर भी हक रहेगा।जाहिर है हिंदुओं में संपत्ति के बंटवारे को लेकर सामने आया ये महत्वपूर्ण फैसला लिव-इन जोड़े से पैदा बच्चे में विश्वास को स्थापित करता है। इससे पहले यह मामला  केरल की एक निचली न्यायालय में पहुँचा था। इसके बाद यह मामला पहले केरल उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय पहुँचा था। इतना ही नहीं न्यायालय ने  बच्चे के हक में फैसला सुनाते हुए केरल उच्च न्यायालय के उस फैसले को दरकिनार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि बगैर शादी के साथ रहे जोड़े की संतान को परिवार की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिल सकता है। इससे पहले ट्रायल ने पैतृक संपत्ति में बंटवारा करने और इसका उचित हिस्सा इस जोड़े से पैदा बच्चे को देने को कहा था।

6.महिला को बच्चे और करियर के बीच चयन के लिए नहीं कहा जा सकता

बॉम्बे उच्च न्यायालय  ने जुलाई के अपने एक अहम फैसले में कहा था कि महिला को अपना विकास करने का पूरा अधिकार है। इसके अलावा  मां बन चुकी महिला को अपने बच्चे और करियर के बीच चयन करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। इसी के साथ न्यायालय ने पुणे फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें एक पत्नी को अपनी नाबालिग बेटी के साथ क्राको, पोलैंड में दो साल रहने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी थी। अदालत ने अपने आदेश में साफ किया कि पिता-पुत्री का प्रेम खास है, पर कोर्ट एक महिला की नौकरी का अवसर बाधित नहीं कर सकता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि कि महिलाओं के लिए करियर और परिवार हमेशा से एक चुनौती रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह हमारा पितृसत्तात्मक समाज है, जो महिला की भूमिका एक बेटी, पत्नी और मां से इतर बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है। महिलाएं नौकरी को यदि प्राथमिकता दें तो उन्हें अति महत्वाकांक्षी करार दे दिया जाता है। उसे समाज अनेक बंधनों में बांध देता है और ज्यादातर उसे पारिवारिक मूल्यों की भेंट चढ़ा दिया जाता है। ऐसे में अदालत का ये फैसला महिलाओं को एक नया रास्ता जरूर दिखाता है।

7.गर्भपात को लेकर विवाहित और अविवाहित महिला में समान अधिकार

उच्चतम न्यायालय ने इस साल अपने एक ऐतिहासिक फैसले में 24 सप्ताह की गर्भवती अविवाहित महिला को गर्भपात की इजाज़त देने के साथ कहा था कि जो मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी का जो कानून बनाया गया है उसका मकसद पूरा नहीं होगा अगर विवाहित और अविवाहित में फर्क किया जाएगा। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय  के इस मामले में आए फैसले को पलट दिया था, जिसमें एक महिला को 23 हफ्तों का गर्भ गिराने की इजाजत देने में आपत्ति जताई गई थी। इस फैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट 2021 में जो बदलाव किया गया है उसके तहत एक्ट में महिला और उसके पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहां पार्टनर शब्द का इस्तेमाल है न कि पति शब्द का। ऐसे में एक्ट के दायरे में अविवाहित महिला भी कवर होती है। इसके अलावा न्यायालय ने इस दौरान ‘मैरिटल रेप’ यानी ‘वैवाहिक बलात्कार’ पर भी बात रखते हुए कहा था कि वैवाहिक जीवन में पति के जबरन शारीरिक संबंध बनाने की वजह से हुई गर्भावस्था भी एमटीपी एक्ट यानी मेडिकल टर्मिनेशन प्रेगनेंसी कानूनी के दायरे में आती है। हालांकि न्यायालय ने इसे सिर्फ एमटीपी कानून के संदर्भ में ही समझे जाने की बात कही है क्योंकि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के दायरे में वैवाहिक बलात्कार अभी नहीं है और उच्चतम न्यायालय की अन्य बेंच के पास ये मामला लंबित है, लेकिन न्यायालय के इस कथन से भविष्य में मैरिटल रेप को लेकर आने वाले फैसलों के लिए भी रास्ता दिखाई देता है।

8.उच्चतम न्यायालय से पूर्व महिला वायु सेना अधिकारियों को न्याय

भारतीय सेना में महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारियों की एक दशक से ज्यादा लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इस साल उच्चतम न्यायालय ने इन अधिकारियों के हक में फैसला सुनाते हुए स्थायी कमीशन अधिकारियों की तर्ज पर रिटायर्ड महिला एसएससीओएस को पेंशन लाभ देने की बात कही है।  न्यायालय आदेश के मुताबिक भारतीय वायुसेना की 32 महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान स्थायी कमीशन के लिए विचार नहीं किए जाने को न्यायालय में चुनौती नहीं दी थी, उन्हें बहाल तो नहीं किया जा सकता लेकिन उन्हें सेवानिवृत्ति की तारीख के बाद उचित समय के भीतर उस फैसले से मिलने वाले लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इस दौरान उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में 2010 दिल्ली उच्च न्यायालय  के बबीता पुनिया मामले का जिक्र भी किया है। इसमें कहा गया था कि सशस्त्र बलों में महिलाओं के लिए भेदभावपूर्ण भर्ती प्रथाएं हैं, जिसके चलते उन्हें उन पदों से बाहर रखा गया, जिनकी वे अन्यथा हकदार थी। इसी तरह पिछले साल भी एक मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि महिला अधिकारियों को सेना में स्थायी कमीशन देने के लिए सर्विस का गोपनीय रिकॉर्ड मेंटेन करने की प्रक्रिया भेदभावपूर्ण और मनमानी है। यह तरीका महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का सामान अवसर नहीं दे पाएगा।

9.महिला क्रिकेटरों को भी समान वेतन

 साल 2022 खेल जगत की महिलाओं के लिए भी उपलब्धियों वाला साल रहा है। दरअसल,भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने खिलाड़ियों के लिए ऐतिहासिक फैसला लेते हुए महिला खिलाड़ियों को समान वेतन देने की घोषणा की है। इस फैसले के बाद महिला क्रिकेटरों की पुरुष खिलाड़ियों के समान ही आय होगी। इससे पहले तक महिला खिलाड़ियों की वेतन पुरुषों की तुलना में कम थी। इसी लैंगिग भेदभाव को दूर करने वाला यह फैसला ऐतिहासिक रहा है।

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