उत्तराखण्ड जैसे अपेक्षाकृत शांत, धर्म और प्रकृति-प्रधान राज्य में नकली दवाओं का एक गुप्त और सुनियोजित कारोबार धीरे-धीरे एक विकराल रूप ले चुका है। गत् दिनों उत्तराखण्ड पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) की कार्रवाई ने न केवल राज्य की फार्मेसी व्यवस्था को हिलाकर रख दिया, बल्कि यह साबित कर दिया कि ‘दवा के नाम पर मौत’ अब एक राज्यीय अपराध नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और वैश्विक स्वास्थ्य संकट बन चुका है। इस पूरे खतरे की गूंज केवल उत्तराखण्ड तक सीमित नहीं है। देश में नकली दवाओं का कारोबार एक गम्भीर सार्वजानिक स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है। बिहार की नीतीश कुमार सरकार में नगर विकास मंत्री जीवेश मिश्रा को नकली दवाओं से जुड़ी कम्पनी के मामले में राजसमंद कोर्ट ने दोषी ठहराया है। वे ‘ऑल्टो हेल्थकेयर प्रा. लि.’ के निदेशक रहे थे, जिसकी दवाएं साल 2010 में फेल पाई गई थीं। देश एक ऐसे दौर में पहुंच चुका है जहां फार्मा सेक्टर भारत की वैश्विक पहचान बना है। ऐसे में नकली दवाओं की यह समस्या केवल घरेलू संकट नहीं, बल्कि भारत की अंतरराष्ट्रीय साख के लिए भी खतरा है। यदि जल्द ही इस पर काबू नहीं पाया गया तो न केवल नागरिकों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा, बल्कि भारत के दवा निर्यात और विदेशी निवेश पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है। ‘जर्नल ऑफ सोशल साइंसेज’ की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में बिकने वाली 75 प्रतिशत नकली दवाएं भारत में बनती हैं। दक्षिण एशिया और अफ्रीका इस व्यापार के सबसे बड़े शिकार हैं। वैश्विक स्तर पर नकली दवाओं का बाजार लगभग 200 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है
पड़ताल
उत्तराखण्ड जैसे अपेक्षाकृत शांत, धर्म और प्रकृति-प्रधान राज्य में नकली दवाओं का एक गुप्त और सुनियोजित कारोबार धीरे-धीरे एक विकराल रूप ले चुका है। इस राज्य की शांतिपूर्ण छवि के पीछे अब ऐसा आपराधिक तंत्र पनप रहा है जो न केवल स्वास्थ्य व्यवस्था को खोखला कर रहा है, बल्कि प्रदेश की छवि को भी गहरा धक्का पहुंचा रहा है। बीते कुछ महीनों में एसटीएफ और औषधि विभाग ने संयुक्त रूप से जो खुलासे किए हैं, वे किसी भी सजग नागरिक को अंदर तक हिला देने वाले हैं।
देहरादून, हरिद्वार और रुड़की जैसे इलाकों में स्थित पुरानी और बंद हो चुकी फैक्ट्रियों को नकली दवा निर्माण का अड्डा बना दिया गया था। एक बंद फैक्ट्री में 263 किलो पैरासिटामोल सॉल्ट, लगभग 400 किलो नकली टैबलेट्स, 16000 से ज्यादा ब्रांडेड रैपर वाली गोलियां और 300 किलो से अधिक कच्चा माल मिला। यह केवल एक फैक्ट्री की बात नहीं थी, यह एक ऐसे नेटवर्क का हिस्सा था जिसका फैलाव राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा तक था। मुख्य आरोपी नवीन बंसल को जब एसटीएफ ने गिरफ्तार किया तब यह जानकारी सामने आई कि यह शख्स पहले भी दिल्ली पुलिस द्वारा नकली दवाओं के मामले में पकड़ा जा चुका था लेकिन जमानत पर छूटकर इसने उत्तराखण्ड को अपना नया सुरक्षित अड्डा बना लिया। उसने स्थानीय स्तर पर किराए पर ली गई फैक्ट्रियों को प्रयोगशालाओं में बदल दिया था, जहां मैन्युफैक्चरिंग की प्रक्रिया से लेकर पैकिंग और सप्लाई तक सब कुछ बड़े ब्रांडों की नकल पर आधारित था।
हरिद्वार और रुड़की में हुई छापेमारी में एक अन्य गिरोह पकड़ा गया जिसमें लोकेश गुलाटी, नरेश धीमान और मोहतरमा अली जैसे लोग शामिल थे। ये लोग अपने घरों और गोदामों में नकली दवाएं बना रहे थे, जिनमें अधिकतर दर्द निवारक, बुखार, सर्दी-खांसी और रक्तचाप नियंत्रक दवाएं शामिल थीं। इन दवाओं की खासियत यह थी कि ये न केवल असली कम्पनियों के नाम पर बनाई जा रही थीं, बल्कि उनके क्यूआर कोड, बैच नम्बर, एक्सपायरी डेट तक हूबहू मिलाए जाते थे। पकड़े गए आरोपियों के कब्जे से जो उपकरण और रैपिंग सामग्री मिली वह दर्शाती है कि यह कोई छोटा-मोटा गोरखधंधा नहीं, बल्कि करोड़ों रुपए की सालाना कमाई वाला संगठित अपराध था। गोलियों की पैकिंग, सॉल्ट की मात्रा, मशीनों की स्पीड, सब कुछ इतने वैज्ञानिक तरीके से किया जा रहा था कि कई दवाओं को जांच प्रयोगशालाओं में भेजे बिना नकली या असली कहना मुश्किल था। उत्तराखण्ड का यह मामला भारत के लिए इसलिए भी विशेष चिंता का विषय है क्योंकि राज्य सरकार स्वास्थ्य और जैविक औषधि निर्माण के क्षेत्र में निवेशकों को आकर्षित करने की दिशा में कई घोषणाएं कर चुकी है। ऐसे में यदि राज्य नकली दवा तंत्र का गढ़ बन जाए, तो यह न केवल नीति निर्माताओं की विफलता का प्रमाण होगा, बल्कि इससे आने वाले निवेश पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
उत्तराखण्ड में एसटीएफ द्वारा पकड़े गए मामले ने एक और खतरनाक पहलू उजागर किया है, नकली दवाएं केवल अज्ञात लोकल ब्रांडों की नकल में नहीं, बल्कि देश की प्रतिष्ठित फार्मा कम्पनियों जैसे ‘कैडिला’, ‘अल्केम, ‘डॉ. रेड्डीज’ और ‘ग्लेनमार्क’ के नाम से बनाई जा रही थीं। इतना ही नहीं, क्यूआर कोड स्कैन करने पर वेबसाइट तक खुल जाती थी क्योंकि एक असली कोड को बार-बार छापा जाता था। हरिद्वार औषधि निरीक्षक कार्यालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखण्ड में नकली दवाओं की आपूर्ति केवल फामेज़्सियों तक सीमित नहीं, बल्कि कुछ प्राइवेट अस्पतालों और डॉक्टरों की सांठ-गांठ से मरीजों तक भी पहुंच रही थी। रैकेट में शामिल आरोपी डॉक्टरों और मेडिकल प्रतिनिधियों को कमीशन पर दवाएं उपलब्ध करा रहे थे, जिनका मूल्य तो ब्रांडेड जितना ही लिया जाता था, लेकिन गुणवत्ता शून्य थी। राज्य में ड्रग कंट्रोल विभाग की सीमित संसाधनों वाली व्यवस्था भी इस आपराधिक तंत्र की सफलता का कारण बनी। इससे स्पष्ट है कि सीमित संख्या में निरीक्षक, अधूरी प्रयोगशालाएं और फार्मेसी स्तर पर जागरूकता की कमी ने नकली दवा कारोबारियों को खुला मैदान दे दिया है।
प्रयोगशाला में औषधियों की गुणवत्ता की जांच करते राज्य औषधि नियंत्रक
इस पूरे प्रकरण का सबसे दुखद पहलू यह है कि मरीजों को इस बात की भनक तक नहीं थी कि जो दवाएं वे विश्वास के साथ ले रहे हैं, वे वास्तव में उनके शरीर में जहर घोल रही थीं। उत्तरकाशी, पौड़ी और नैनीताल जैसे जिलों से कुछ मरीजों की शिकायतें सामने आईं कि इलाज के बावजूद कोई लाभ नहीं हो रहा। बाद में जब दवाओं की जांच की गई तो पता चला कि वे नकली थीं। यह स्थिति केवल राज्य या देश की चिकित्सा व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाती, बल्कि नैतिकता, शासन और प्रशासन की क्षमता को भी कटघरे में खड़ा करती है। उत्तराखण्ड पुलिस की सख्ती और एसटीएफ की तेज कार्रवाई ने भले ही इस गोरखधंधे को उजागर किया हो, लेकिन यह सवाल अभी भी बाकी है कि क्या यह कारोबार वास्तव में खत्म हुआ या फिर एक गिरोह के पकड़े जाने से बाकी सतर्क हो गए हैं?
इस पूरे खतरे की गूंज केवल उत्तराखण्ड तक सीमित नहीं है। देश में नकली दवाओं का कारोबार एक गम्भीर सार्वजानिक स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है। बिहार सरकार में नगर विकास मंत्री जीवेश मिश्रा को नकली दवाओं से जुड़ी कम्पनी के मामले में राजसमंद कोर्ट ने दोषी ठहराया है। वे ‘ऑल्टो हेल्थकेयर प्रा. लि.’ के निदेशक रहे थे, जिसकी दवाएं साल 2010 में फेल पाई गई थीं। कोर्ट ने उन्हें 7000 रुपए के जुर्माने पर रिहा जरूर किया लेकिन इसने पूरे देश में राजनीतिक और नैतिक बहस छेड़ दी। विपक्ष ने इस मामले को ‘मौत का सौदा’ बताते हुए मंत्री के इस्तीफे की मांग कर रहा है।
यह समस्या अब केवल सीमित क्षेत्रों तक नहीं, बल्कि पूरे देश में फैल चुकी है और इसका असर सीधे तौर पर आम आदमी के जीवन, स्वास्थ्य और विश्वास पर पड़ रहा है। अखिल भारतीय रसायन विक्रेता एवं ड्रगिस्ट संगठन (एआईओसीडी) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत के रिटेल फार्मेसी बाजार में नकली और घटिया गुणवत्ता वाली दवाओं की हिस्सेदारी बढ़कर लगभग 15 प्रतिशत तक पहुंच गई है, जो कोविड-19 महामारी से पहले लगभग 10 प्रतिशत हुआ करती थी। यह वृद्धि चिंताजनक ही नहीं, बल्कि खतरनाक भी है, क्योंकि इसका सीधा सम्बंध मरीजों की जान से है।
इस संकट के पीछे कई कारण हैं, लेकिन सबसे प्रमुख वजह है उपभोक्ताओं और दुकानदारों में ‘छूट’ यानी डिस्काउंट की अंधी दौड़। सरकार ने खुदरा विक्रेताओं के लिए अधिकतम 16 से 20 प्रतिशत और थोक व्यापारियों के लिए 10 प्रतिशत का मार्जिन तय किया है, लेकिन बाजार में इससे कहीं अधिक छूट देकर दवाएं बेची जा रही हैं। आम ग्राहक अधिक छूट के लालच में बिना प्रमाणित स्रोतों से दवाएं खरीदने लगता है और यहीं से नकली दवाओं के कारोबार को बढ़ावा मिलता है। यही नहीं, कई बार फार्मेसियों को भी मुनाफे के दबाव में ऐसे सप्लायरों से दवाएं मंगवानी पड़ती हैं जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध होती है।
नकली दवाएं न केवल असली पैकिंग की हूबहू नकल करती हैं, बल्कि इनमें प्रयुक्त रासायनिक तत्व या तो गलत मात्रा में होते हैं या बिल्कुल नहीं होते। इस कारण मरीज को कोई लाभ नहीं मिलता, उल्टा रोग और गम्भीर हो जाता है। खासकर एंटीबायोटिक और कैंसर जैसी बीमारियों की दवाओं में मिलावट जानलेवा साबित हो सकती है। इसके अलावा लम्बे समय तक ऐसी दवाएं लेने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और दवा प्रतिरोध (ड्रग रजिस्टेंस) जैसी जटिल समस्याएं जन्म लेती हैं। यह स्थिति केवल मरीज को ही नहीं, देश की पूरी स्वास्थ्य प्रणाली को चुनौती देती है।
यह रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश के कानपुर और आगरा, बिहार के पटना, दिल्ली-एनसीआर और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्से नकली दवाओं के निर्माण और आपूर्ति के प्रमुख केंद्र बन गए हैं। इन इलाकों से दवाएं पूरे देश में रिटेल फामेज़्सियों तक पहुंचाई जा रही हैं। कई बार ये दवाएं बड़े ब्रांड्स के नाम से पैक होती हैं और ग्राहक को यह एहसास भी नहीं हो पाता कि वह नकली दवा का सेवन कर रहा है। दवा की जांच की व्यवस्था बहुत सीमित है और ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या भी इतनी कम है कि हर दुकान और स्टॉकिस्ट की निगरानी असम्भव सी हो गई है।
केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाला केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) समय-समय पर जांच रिपोर्ट जारी करता है। हाल ही में इस संस्था ने जिन 63 दवाओं को परीक्षण में फेल पाया, वह यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि गुणवत्ता नियंत्रण में भारी चूक हो रही है। कई बार तो ऐसी दवाएं अस्पतालों और सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों तक भी पहुंच जाती हैं, जिससे गरीब तबके के मरीज सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
यहां सवाल सिर्फ दवाओं के नकली होने का नहीं है, बल्कि यह भी है कि स्वास्थ्य के नाम पर हो रहे इस ‘अपराध’ को रोकने की जिम्मेदारी किसकी है? केंद्र और राज्य सरकारों की ड्रग नियामक एजेंसियां, फार्मा कम्पनियां, फार्मेसिस्ट, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स और ग्राहक, सभी को अपनी भूमिका ईमानदारी से निभानी होगी। सरकार को चाहिए कि वह दवा निगरानी व्यवस्था को आधुनिक तकनीक से सुसज्जित करे। हर दवा की पैकेजिंग पर यूनिक कोड या क्यूआर कोड हो जिससे ग्राहक यह जान सके कि दवा असली है या नहीं। कम्पनियों को भी अपने प्रॉडक्ट्स की पैकेजिंग अधिक सुरक्षित और नकली से सुरक्षित बनाने की दिशा में निवेश करना चाहिए।
तकनीकी उपायों के साथ-साथ कानूनी सख्ती भी उतनी ही जरूरी है। वर्तमान कानूनों के तहत नकली दवाएं बनाने और बेचने पर सजा का प्रावधान तो है, लेकिन इन मामलों में दोषियों को सजा दिलवाना बेहद कठिन होता है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे अपराधों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए और दोषियों को त्वरित सजा मिले ताकि एक सख्त संदेश जाए। इसके अलावा ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या में तत्काल बढ़ोतरी की जानी चाहिए और उन्हें आधुनिक उपकरण व प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे जमीनी स्तर पर प्रभावी निगरानी कर सकें।
डिस्काउंट का जानलेवा लालच
उपभोक्ताओं की भूमिका भी इस लड़ाई में अहम है। सस्ती दवा के चक्कर में खुद की जान खतरे में डालना बुद्धिमानी नहीं है। आमजन को यह समझना होगा कि दवा कोई सामान्य वस्तु नहीं, बल्कि जीवन रक्षक उत्पाद है। डॉक्टर द्वारा लिखी गई दवा हमेशा प्रमाणिक और लाइसेंसी फार्मेसी से ही लेनी चाहिए और पैकिंग, एक्सपायरी डेट, बैच नम्बर आदि की सावधानी से जांच करनी चाहिए। यदि कोई दवा संदेहास्पद लगे या उसके प्रभाव संदिग्ध हों तो तुरंत इसकी शिकायत स्थानीय ड्रग कंट्रोल अथॉरिटी को करनी चाहिए।
यह भी आवश्यक है कि सरकार, उद्योग और समाज मिलकर नकली दवाओं के खिलाफ एक सामूहिक जागरूकता अभियान चलाएं। टीवी, सोशल मीडिया, अखबारों और स्कूलों में जागरूकता कार्यकर्मों के माध्यम से लोगों को इस विषय में शिक्षित किया जाना चाहिए। सिर्फ महानगरों में नहीं, बल्कि छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी इस संदेश को पहुंचाना जरूरी है कि ‘सस्ती दवा नहीं, सुरक्षित दवा चुनें।’
देश एक ऐसे दौर में पहुंच चुका है जहां फार्मा सेक्टर भारत की वैश्विक पहचान बना है। ऐसे में नकली दवाओं की यह समस्या केवल घरेलू संकट नहीं, बल्कि भारत की अंतरराष्ट्रीय साख के लिए भी खतरा है। यदि जल्द ही इस पर काबू नहीं पाया गया तो न केवल नागरिकों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा, बल्कि भारत के दवा निर्यात और विदेशी निवेश पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
इसलिए अब समय आ गया है कि नकली दवाओं के इस अघोषित ‘आतंक’ के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी जाए। यह केवल कानून की बात नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी का प्रश्न है- एक ऐसा उत्तरदायित्व जो डॉक्टर से लेकर दुकानदार, नीति-निर्माता से लेकर उपभोक्ता तक, सभी को निभाना होगा। जब तक समाज और तंत्र एकजुट होकर इसे समाप्त करने का संकल्प नहीं लेंगे, तब तक इस ‘मृत्यु के बाजार’ को रोका नहीं जा सकता। अब यह स्पष्ट है कि यह धंधा केवल कानून के उल्लंघन का मामला नहीं, बल्कि नैतिक पतन का परिचायक है। जर्नल ऑफ सोशल साइंसेज की रिपोर्ट कहती है कि दुनियाभर में बिकने वाली 75 प्रतिशत नकली दवाएं भारत में बनती हैं। दक्षिण एशिया और अफ्रीका इस व्यापार के सबसे बड़े शिकार हैं। वैश्विक स्तर पर नकली दवाओं का बाजार लगभग 200 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है।
क्या कहता है कानून?
भारत में भले ही ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 के तहत सजा का प्रावधान है- 10 साल तक की जेल, भारी जुर्माना, लेकिन हकीकत यह है कि निगरानी तंत्र बेहद कमजोर है। अधिकांश राज्यों के पास आधुनिक लैब नहीं हैं। निरीक्षक की संख्या सीमित है और जो तकनीकी उपाय क्यूआर कोड, बारकोड, ब्लॉकचेन या स्पेक्ट्रोस्कोपी के रूप में उपलब्ध हैं, उनका इस्तेमाल व्यावहारिक स्तर पर नहीं हो रहा। स्वास्थ्य पर इसका असर भयावह है। नकली दवाएं शरीर में दुष्प्रभाव छोड़ती हैं, रोग प्रतिरोधकता को कमजोर करती हैं और कई बार मरीज को मौत के मुंह में धकेल देती हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि ये नकली दवाएं कैंसर, हृदय रोग, मिर्गी, शुगर, ब्लड प्रेशर और एंटीबायोटिक श्रेणी में सबसे अधिक पाई जा रही हैं। यानी जिन दवाओं पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है, वही सबसे ज्यादा खतरे में हैं।
समाधान क्या है?
केवल कानून से यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। इसके लिए एक मजबूत तंत्र चाहिए, जहां सरकार, फार्मा इंडस्ट्री, स्वास्थ्य एजेंसियां और आम जनता एक साथ काम करें। दवा निर्माण से लेकर वितरण तक हर स्तर पर पारदर्शिता अनिवार्य होनी चाहिए। सप्लाई चेन में ट्रैक-एंड-ट्रेस तकनीक लागू होनी चाहिए। फामेज़्सियों को केवल लाइसेंस प्राप्त स्त्रोतों से दवाएं मंगाने के निर्देश हों और उपभोक्ताओं को यह सिखाया जाए कि क्यूआर कोड कैसे स्कैन किया जाए, दवा की वैधता कैसे जांची जाए। इस पूरे परिदृश्य में उत्तराखण्ड की घटना केवल चेतावनी नहीं, बल्कि प्रतीक है उस खतरे का, जो पूरे भारत में गहराता जा रहा है। जब ‘देवभूमि’ तक में ‘जहर’ बिक रहा हो तो पूरे देश को सावधान हो जाना चाहिए। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब इलाज के नाम पर मौत का व्यापार हर गली-कूचे में होगा
‘उत्तराखण्ड को बदनाम करने की साजिश रची जा रही है’
उत्तराखण्ड राज्य औषधि नियंत्रक ताजवर सिंह नेगी से बातचीत के मुख्य अंश
प्रदेश में नकली दवाओं का कारोबार बढ़ रहा है। आपने इन मामलों में क्या-क्या कार्यवाहियां की हैं?
हमारे यहां नकली दवाओं से सम्बंधित मामले विदाउट लाइसेंस के हैं जो भी मामले सामने आ रहे हैं उनको पकड़ा जा रहा है, उन पर कार्यवाही की जा रही है। हम लगातार नजर बनाए हुए हैं और हमने इसके लिए टास्क फाॅर्स भी बनाई है। पुलिस विभाग, नारोटिक्स विभाग और ड्रग डिपामेंट के साथ कोर्डिनेट कर के हम कार्यवाही कर रहे हैं।
जो नकली दवाओं के मामले पकड़े गए वह तो बगैर लाइसेंस के थे लेकिन जो दवाइयां मानकों पर खरी नहीं उतरी वह तो लाइसेंस प्राप्त थीं, यह गम्भीर बात नहीं है?
भारत सरकार और उत्तराण्खड सरकार के ड्रग कंट्रोलर विभाग द्वारा सैम्पलिंग की जाती है जिसमें 100 फीसदी सैम्पलिंग हमारे ही द्वारा की जाती है। यह नियमित प्रक्रिया है। लेकिन इन मामलों में यह प्रचारित किया गया है कि जिन दवाओं के सैम्पल फेल हुए हैं, वह उत्तराखण्ड की फामाज़् कम्पनियों के हैं, जबकि वह बाहरी राज्यों की फामाज़् कम्पनियों द्वारा बनाई गई है। जिन मामलों में यह पाया गया है उनको नोटिस जारी कर दिए गए हैं और उन पर कार्यवाही शुरू कर दी गई है।
अभी तक कितने मामलों में आप कार्यवाही कर चुके हैैं?
अभी हमने आदेश जारी कर दिए हैं। ऐसे मामलों में धारा 25 तीन के तहत मैन्युैक्चर द्वारा सैम्पल को चैलेंज किया जाता है। फिर इसमें कार्यवाही होती है। फिलहाल हमने उत्पादक रोकने का नोटिस दिया है जब पूरी जांच रिपोर्ट समाने आएगी, अगर कोई कमी होगी तो नियमानुसार कार्यवाही होगी।
अभी एक मामले में सामने आया है कि बंद पड़ी फैक्ट्रियों में नकली दवाओं का उत्पादन किया जा रहा था। क्या बंद कारखानों के नियमित निरीक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है?
जो फैक्ट्रियां बंद पड़ी हैं उनके लाइसेंस निरस्त हो चुके हैं। जो समाचार पत्र में आया है कि बंद फैक्ट्री में मिला है वह बिल्कुल गलत है। जिस मित्तल फार्मेसी का नाम चल रहा था हमने उसका निरीक्षण किया लेकिन उसमें कोई भी उत्पादन का मामला सामने नहीं आया, बल्कि अन्य राज्यों के अंदर हमारे उत्तराखण्ड के नाम से दवाइयां बनती हैं। बिहार में कूपर फार्मा कम्पनी के नाम से दवा बनाई जा रही थी लेकिन उसे उत्तराखण्ड में उत्पादित बताया गया। हमने उसे अरेस्ट करवाया है और उसके खिलाफ कार्यवाही कारवाई है।
आखिर उत्तराखण्ड में इस तरह के मामले क्यों आ रहे हैं। इसके क्या कारण हैं। एक छोटे से प्रदेश में इस तरह के मामले सामने आना चौंका रहा है?
उत्तराखण्ड देश का फार्मा हब बन रहा है। करीब 300 फार्मा इंडस्ट्रियां यहां काम कर रही है। इनमें 245 फार्मा उद्योग डब्ल्यूएचओ से प्रमाणित हैं। देश के कुल दवा उत्त्पादन में 20 फीसदी दवाएं उत्तराखण्ड राज्य कर रहा है। एक छोटे से राज्य के लिए यह बहुत बड़ी बात है। इसके कारण प्रदेश के फार्मा उद्योग के खिलाफ एक बड़ा षड्यंत्र किया जा रहा है। यह एक बड़ा नैक्सेस है जो नकली दवाओं का काम कर रहा है और उसे उत्तराखण्ड में निर्मित बताकर हमारे प्रदेश के फार्मा उद्योग की साख और हमारे राज्य की साख खराब करने का काम कर रहे हैं। आज हर बड़ी दवा कम्पनी अपना उत्पादन हमारे प्रदेश के फार्मा उद्योग से ही करवाना पसंद कर रहा है। सम्भवत: कुछ नहीं चाहते हैं कि बड़ी कम्पनियां उत्तराखण्ड में आए। 29 मामले हमने ऐसे पकड़े हैं जो हमारे प्रदेश के है नहीं लेकिन उन पर उत्तराखण्ड का टैग लगाकर हमें बदनाम किया जा रहा था।
अभी तक कितने मामलों पर कार्यवाही की गई है?
हमने अभी तक 53 लोगों को अरेस्ट करवाया है। हमारे यहां लाइसेंस प्राप्त कोई कारखाना नहीं पाया गया है जो अवैध काम करता हो। कोई फूड लाइसेंस पर दवा का निर्माण कर रहा था, कोई बगैर लाइसेंस के ही दवा बना रहा था। ऐसे हमने 53 मामलों में केस दज करवाए हैं।
पूर्व में राज्य औषधि नियंत्रक पर कई विवाद रहे हैं। अब आपने पद सम्भाला है। आप कैसे भरोसा दिलवाएंगे कि राज्य में अब नकली दावाओं का कारोबार नहीं होगा क्या आप इसकी गारंटी देते हैं?
बिल्कुल हम भरोसा देते हैं, हम अपना काम पूरी शिद्दत से कर रहे हैं। हमारे पास 18 नए ड्रग इंस्पेक्टर आए हैं उनकी ट्रेनिंग चल रही है जल्द ही उनको पोस्टिंग मिल जाएगी। इससे हमें काम करने में बेहद सुविधा होगी और हम नियमित निरीक्षण और परीक्षण का काम कर सकेंगे। हमारे पास मेन पावर की कमी थी। हम पुलिस और ड्रग डिपार्टमेंट के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। मैं चाहता हूं कि इसमें आम जनता को भी सहयोग करना चाहिए और मीडिया को भी सहयोग करना चाहिए, अगर आपको कोई जानकारी मिलती है तो उसे हमारे साथ शेयर करें जिससे हम त्वरित कार्यवाही करें।
‘हमारे फार्मा उद्योग के साथ षड्यंत्र हो रहा है’
पीके बंसल, यक्सा फार्मास्युटिकल, रूड़की
दवाओं के सैम्पल फेल होने का मामला बेहद तकनीकी मामला है। इसे अन्य मामलों की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। हम जो दवा बनाते हैं वह एक अलग प्रक्रिया है। नकली दवा और दवा के सैम्पल फेल होना दोनों अलग- अलग है। जितने भी मामले नकली दवाओं के पकड़े गए हैं उनमें कोई भी मामला लाइसेंस धारक फार्मा कम्पनी का नहीं है। वह सभी अवैध और बगैर लाइसेंस के ही समाने आए हैं। हम दवा का निर्माण10 पैरामीटर पर करते हैं फिर उसको परीक्षण के भी कई पैरामीटर हैं हमें उन सभी पर खरा उतरना पड़ता है। हमारी आईपीबीपी, फामाज़् कम्पनियां होती हैं जैसे पैरासिटमॉल जिसमें आईपी लिखा होता है यानी इंडिया फार्मा कम्पनियां। इसमें एक टेस्ट दिया हुआ है कि इंडिया फार्मा कम्पनियों के तहत टेस्ट होगा। कुछ दवाएं ऐसी होती है जो फार्मा कम्पनियों में नहीं होती, ये ज्यादातर कॉम्बिनेशन दवाएं जिसमें एक से ज्यादा ड्रग्स होते हैं। इसमें मैन्यूफैक्चर का अपना एक टैस्टिंग का प्रोसिज वैल्यु एडिशन करता है। ड्रग कंट्रोलर इंडिया ने एक गाइड लाइन दी हुई है उसे सभी को फॉलो करना पड़ता है। इसमें कहा गया है कि जब गवर्नमेंट एनालासिस को सैम्पल जाएगा तो वह मैन्युफैक्चरर से उसका टेस्टिंग प्रोसिजर मंगवाएगा। कई मामलों में ऐसा होता है, लेकिन कई मामलों मे ऐसा होता ही नहीं है। टेस्टिंग प्रोटोकॉल को उपयोग 100 प्रसेंट नहीं किया जाता। हमारे प्रदेश में तो इसका पालन किया जा रहा है लेकिन अन्य राज्यों में नहीं किया जा रहा है। माना कि एक कम्पनी की जो कि उत्तराखण्ड की है उसकी दवा कर्नाटक प्रदेश में सैम्पलिंग की गई तो कर्नाटक प्रदेश के गवर्नमेंट एनालिसिस को मैन्युफैक्चरर से उसका टेस्टिंग प्रोसिजर मंगवाना चाहिए लेकिन वह नहीं मंगवाता और दवा के सैम्पल को मानकों पर खरा नहीं उतरने की रिपोर्ट दे देता है। ज्यादातर मामलों में ऐसा ही हो रहा है। मानकों पर खरा नहीं उतरने के कई प्वाइंट हैं जैसे आप ऐसे समझे। एक दवा केरल में बिक रही है तो वही दवा लेह लद्दाख में भी है। वह दवा 100 मिली मानक पर है। केरल में ह्यूमेडिटी ज्यादा है तो उसका वैल्युम न तो घटेगा और न बढ़ेगा लेकिन लेह लदख में ह्यूमेडिटी कम है तो उसका वैल्युम घट जाएगा वह 99 हो सकता है तो दवा का सैम्पल मानक के विपरीत बता दिया जाता है। दवा की गुण्वत्ता पर कोई सवाल नहीं है वह वैल्युम पर है। इससे यह प्रचारित हो जाता है कि दवा फेल है। कोई भी लाइसेंस धारक मैन्युफैक्चरर कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख और उसकी कम्पनी पर सवाल खड़े हों। लेकिन प्रचारित हो जाता है कि दवा का सैम्पल फेल हो गया। उत्तराखण्ड में नकली दावा पाई गई दवाओं के सैम्पल फेल हो गया जिससे आम लोगों में यह भ्रम फैल जाता है कि उक्त कम्पनी की दवा नकली है। यह हमारे फार्मा उद्योग के खिलाफ बड़ा षड्यंत्र हो रहा है। ऑटो सेक्टर के बाद फार्मा उद्योग ही है जो 1 लाख से अधिक रोजगार पैदा कर रहा है। हम रोजगार पैदा करने के मामले में दूसरे पायदान पर हैं। जो भी मामले समाने आ रहे हैं वह अवैध हैं और उन्हें उत्तराखण्ड से जोड़ दिया जा रहा है। जितने भी नकली दवाओं के मामले पकड़े गए हैं एक भी मामला उत्तराखण्ड की वैध फार्मा उद्योग का नहीं है।