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हिंदी विरोधी राजनीति से होगा फायदा?

महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता और हिंदी विरोध के नाम पर सामने आ रही तस्वीरें चिंताजनक और डराने वाली हैं। लोगों पर मराठी में ही बोलने का दबाव बनाना, हिंदी भाषियों को निशाना बनाना और इस अभियान का विरोध करने वालों के खिलाफ हिंसा व तोड़-फोड़ की घटनाएं किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कही जा सकती। इस अभियान का एक पहलू है दोनों ठाकरे भाइयों, उद्धव और राज का एक मंच पर आना। राज ठाकरे ने इस मौके पर कहा कि जो काम उनके चाचा बालासाहेब ठाकरे नहीं कर सके, वह देवेंद्र फडणवीस ने कर दिखाया। दोनों भाइयों के भाषणों में मराठी भाषा के नाम पर कोई ठोस योजना नहीं दिखती। उद्धव ठाकरे का भाषण मुख्यतः उनकी सरकार के पतन के लिए भाजपा को दोषी ठहराने पर केंद्रित था।

महाराष्ट्र सरकार में मंत्री नितेश राणे ने इस मुद्दे को एक नया राजनीतिक मोड़ देते हुए कहा कि मराठी बोलने के नाम पर हिंदुओं की पिटाई क्यों की जा रही है? अगर मराठी अनिवार्य करनी है तो मुसलमानों से मराठी बुलवाकर दिखाएं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि हिंदुत्व की राजनीति से सत्ता पाने वाले उद्धव ठाकरे को हिंदी विरोधी राजनीति से फायदा होगा?

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इसे जिस भी दृष्टिकोण से देखें, तथ्य यही है कि मराठी के नाम पर हिंसा और दादागीरी का शिकार मुख्यतः हिंदू समाज ही हो रहा है। यदि यह मुद्दा गहराया तो राजनीति में लेने के देने पड़ सकते हैं। धीरे-धीरे एक तीसरे प्रकार की प्रतिक्रिया भी उभर रही है। एक वायरल घटना में एमएनएस कार्यकर्ता एक महिला पर गाड़ी में मराठी बोलने का दबाव बना रहे हैं और वह ललकारते हुए कह रही है कि वह कभी मराठी नहीं सीखेगी और केवल हिंदी बोलेगी। कार्यकर्ता मराठी में बात कर रहे हैं और महिला स्पष्ट कहती है ‘‘आप जो कुछ भी बोल रहे हैं, मेरी समझ में नहीं आ रहा। मैं मराठी नहीं सीखूंगी और मैं आपसे ज्यादा टैक्स देती हूं।’’

इससे साफ है कि यह महिला मराठी विरोधी नहीं, बल्कि जबरदस्ती और दादागीरी के विरुद्ध है। इस तरह की प्रतिक्रियाएं धीरे-धीरे बढ़ रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि महाराष्ट्र में पहली से दसवीं कक्षा तक अंग्रेजी अनिवार्य विषय है। ऐसे में अंग्रेजी से कोई समस्या नहीं तो फिर हिंदी से विरोध किस मानसिकता का परिचायक है? राज ठाकरे ने भी स्वीकार किया था कि मराठों ने देश के कई हिस्सों पर शासन किया, पर मराठी भाषा किसी पर नहीं थोपी। यही मराठी गौरव की पहचान है। मराठों ने साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं, बल्कि धर्म और संस्कृति की रक्षा हेतु युद्ध किए। आखिर उन्होंने अहमद शाह अब्दाली से पानीपत में युद्ध क्यों लड़ा?

देवेंद्र फडणवीस सरकार ने हिंदी की अनिवार्यता वाला आदेश वापस लेने के बाद 3 अक्टूबर को शास्त्रीय मराठी भाषा दिवस मनाने की घोषणा की है। 3 से 9 अक्टूबर तक शास्त्रीय मराठी भाषा सप्ताह के अंतर्गत व्याख्यान, संगोष्ठियां, सेमिनार, कार्यशालाएं और शास्त्रीय ग्रंथों की प्रदर्शनी आयोजित की जाएंगी। मराठी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, किंतु इसकी एक प्राचीन लिपि ‘मोदी लिपि’ भी है, जिसे संरक्षित करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया है। यही है भाषा संरक्षण की सकारात्मक पहल। लेकिन हिंदी पढ़ाने का निर्णय वापस लेना राष्ट्रव्यापी स्तर पर अच्छा संदेश नहीं दे सका। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य मात्र भाषा सिखाना नहीं, बल्कि संस्कृति, रीति-रिवाजों और सामाजिक संरचना से परिचय कराते हुए राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना है। जब लोग एक-दूसरे की भाषाएं सीखेंगे तो भाषायी संकीर्णता घटेगी, क्षेत्रवाद कमजोर होगा और राष्ट्र की सांस्कृतिक व सामाजिक एकता सशक्त होगी।

राज ठाकरे की एमएनएस ने पिछले विधानसभा चुनाव में 125 उम्मीदवार उतारे, लेकिन एक भी नहीं जीत सका। स्वयं उनके पुत्र अमित ठाकरे माहिम से चुनाव हार गए। पार्टी को मात्र 1.8 फीसदी मत प्राप्त हुए, जो उसकी मान्यता बनाए रखने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। 2009 में 13 सीटें जीतने के बाद 2014 और 2019 में एमएनएस एक-एक सीट तक सिमट गई। ऐसे में सवाल यह है कि हिंदी और उत्तर भारतीयों के विरोध पर आधारित राजनीति क्या अब उसे मत दिला पाएगी?

आज 1955 जैसा संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन वाला दौर नहीं है। शिवसेना ने भी अपने शुरुआती दौर (1960-70 के दशक) में मराठी अस्मिता को केंद्र में रखा, लेकिन जब चुनावी सफलता नहीं मिली तो बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्व और भाजपा के साथ गठबंधन का रास्ता अपनाया। अब भारत काफी बदल चुका है। लोगों में संस्कृति, धर्म और राष्ट्रीय एकता के प्रति जागरूकता और प्रतिबद्धता पहले से कहीं अधिक है। मराठी के नाम पर जबर्दस्ती और हिंसा की प्रतिक्रिया में मराठी विरोध जिस प्रकार से बढ़ रहा है, वह अंततः महाराष्ट्र और मराठियों के लिए ही हानिकारक साबित हो सकता है।

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