• सुरेश भाई
    लेखक सामाजिक एवं
    पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।

दे श में लोकसभा चुनाव की गर्मी तेजी पर है। दूसरी ओर वनों मे लगी भीषण आग भी आसमान छू रही है। चुनाव के दूसरे चरण के वोट भी पड़ गए हैं। लेकिन उत्तराखण्ड, हिमाचल, उत्तर पूर्व और जम्मू कश्मीर के वनों में लगी आग के प्रति किसी की कोई जिम्मेदारी सामने नहीं आई है। आग लगाने के लिए अक्सर गांव के लोगों को दोषी माना जाता है जिसके छुटपुट उदाहरण ही सामने आते हैं। निश्चित ही गांव से सटे हुए जंगलों से भी आग की लगती है। लेकिन इससे कहीं अधिक घटनाएं पर्वतीय क्षेत्रों में 8-9 हजार फीट की ऊंचाई से भी आग की शुरुआत होती है। आजकल आग इतनी विकराल हो गई है कि उदाहरण के रूप में उत्तराखण्ड, हिमाचल धुएं का एक कमरा जैसा बना हुआ है जिसके कारण सूर्य की रोशनी भी धरती पर पूरी तरह नहीं पहुंच पा रही है। अभी आसमान से बारिश के कोई आसार नहीं हैं। अकेले उत्तराखण्ड में ही अब तक हजारों वन क्षेत्रों में आग लगी हुई है। लेकिन वन विभाग केवल 500 स्थानों पर ही आग की घटनाओं का विवरण दे रहा है जबकि एक ही स्थान पर दर्जनों बार जंगल जल चुके हैं।

चिंताजनक है कि आग से प्रभावित वन क्षेत्रों की पूरी जानकारी सामने नहीं आ पा रही है। बढ़ती गर्मी में आग प्रभावित पर्वतीय गांव की हालात बहुत बिगड़ चुकी है। सुबह जब उठना है तो राख के ढेर घर की छत और आंगन में फैले हुए है। सांस की तकलीफ वाले लोगों की परेशानियां बढ़ रही है। असंख्य जंगली जानवर, पक्षियों, सरीसृपों की अनेकों प्रजातियां आग में जलकर राख हो गई है। दुर्लभ पेड़-पौधे, झाड़ियां, औषधीय प्रजातियां समाप्त हो रही हैं। ऐसा महसूस हो रहा है कि जब बिना खिड़की वाले घर में लकड़ी से खाना बनता है तो चूल्हे से धुआं नाक और आंख तक पहुंचता है जिससे आंसू भी आ जाते हैं। फेफड़ों पर धुएं का असर भी होता है। यह स्थिति शीतकाल से ही जंगलों में लगी आग के कारण पैदा हो रखी है। किसको इसका दोषी माना जा रहा है, पूरी तरह कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है। वास्तव में आग लगने की यह कोई नई घटना नहीं है। इसी तरह से हर वर्ष अकस्मात एक पहाड़ी की चोटी पर आग का धुआं पैदा होता है जो धीरे-धीरे घाटी तक पहुंच जाता है। हिमालय के जंगल से लेकर ग्लेशियर के निकट भी आग फैली हुई है।

पिछले 40 वर्षों से आग लगने की घटनाएं तेजी से सामने आ रही हैं जिनका कोई समाधान नहीं है। लेकिन शासन-प्रशासन को गंभीरता पूर्वक इस संवेदनशील विषय पर जो कार्यवाही करनी चाहिए थी वह भी नहीं है। यह जरूर है कि जंगल में आग लगने के बाद वन निगम को सूखे, सिरटूटे और जड़ समेत उखड़े हुए पेड़ों के नाम पर वनों का कटान करने में परेशानी नहीं झेलनी पड़ती है। वनों में आग लग गई तो वन विदोहन के रास्ते खुल जाते हैं क्योंकि चारों ओर सूखे हुए पेड़ तो बहुत दिखाई देने लगते हैं जिसका निस्तारण करने के लिए वन निगम को लाॅट आसानी से आवंटित किए जा सकते हैं। कोई विरोध भी नहीं कर सकता है। कोरोना काल में जब लोग लाकडाउन में थे तो उस समय भी जंगल माफियाओं ने बड़े पैमाने पर पहाड़ी इलाकों में आग के कारण सूखे पेड़ों के नाम पर वनों का अवैध दोहन किया है। यहां बचे हुए हरे पेड़ों का अंधाधुंध कटान किया है।

चिंताजनक है कि जब तक बारिश नहीं होगी तब तक जंगल जलते रहेंगे। गत दो-तीन महीने पूर्व आग के धुएं के कारण चिन्यालीसौड़ हवाई पट्टी से भी विमानों को उड़ाने और उतरने में समय लग रहा था। पहले शीतकाल में पर्याप्त बर्फ और बारिश होती थी तो आग जंगलों में दिखाई भी नहीं देती थी। अब जहां पूरी दुनिया के लोग पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षों की अहम भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं वनों की इस दुर्दशा से कैसे पर्यावरण की रक्षा हो सकेगी। यह प्रश्न हर साल लग रही आग से पैदा हो रहा है? अतः जरूरी है कि वनों में अग्नि नियंत्रण के लिए हर ग्राम पंचायत और वन पंचायत की भूमिका जब तक नीतिगत रूप से शामिल नहीं की जाएगी तब तक वनों को आग से बचाना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा।

राज्य सरकारें अग्नि नियंत्रण के नाम पर जो खर्च करती हैं यदि उसे सीधे मनरेगा के काम के साथ जोड़कर ग्राम पंचायतों को आर्थिक मदद दी जाय तो लोग गांव के वनों में लगने वाली आग को रोकने के लिए जंगल में जा सकते हैं। लोग लंबी अवधि तक लगने वाली आग के नियंत्रण में इसलिए भी भागीदार नहीं हो पाते हैं कि उन्हें अधिकांश अपनी आजीविका के लिए रोजी-रोटी के काम में लगना पड़ता है। यदि उनके आस-पास की सूखी हुई जंगल की लकड़ी उन्हें आसानी से उपलब्ध करवाई जाए और वन विभाग भी वन निगम को यदि सूखे पेड़ों के नाम पर वन विदोहन की स्वीकृति देते वक्त भी ग्राम प्रधान, महिला संगठन, स्वयं सहायता समूह से लेकर क्षेत्र पंचायत के प्रमुख तक को भागीदार बनाया जा सके तो निश्चित ही भीषण आग को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है और वनों में हरे पेड़ों की कटाई पर भी रोक लगाई जा सकती है। इस प्रकार के नीतिगत फैसले राज्य व्यवस्था कर दे तो वनों में आग लगाने वाले दोषियों को भी सलाखों में डाला जा सकता है क्योंकि लोग अग्नि नियंत्रण के नाम पर यदि वनों के बीच में भ्रमण करेंगे और उनका सबसे पहला प्रयास तो यही रहेगा कि आखिर उनके जंगल में आग कौन लगाता है। यदि वे इसकी पहचान कर सके इससे शासन- प्रशासन को बहुत मदद मिल सकती है। वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने से भी वनाग्नि नियंत्रण की जा सकती है। इसके अलावा परंपरागत वन व्यवस्था को भी लोगों को लौटाने की आवश्यकता है।

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