उत्तराखण्ड स्थापना के 24 साल का राजनीतिक इतिहास देखें तो यहां प्रमुख दल भाजपा-कांग्रेस भीतर कभी भी पुराने और नए नेताओं में समन्वय स्थापित नहीं हो पाया। पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं को यह बात खली तो खूब लेकिन वह पार्टी में अनुशासन की सख्ती चलते अपनी इच्छाओं को मन में दफन कर गए। दूसरी तरफ कांग्रेस में नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल से ही उठापटक जारी है। नए और पुराने का सम्बंध मधुर न होना और आपसी गुटबाजी का चरम पर रहना कांग्रेस का कमजोर पक्ष बन गया है जिसका फायदा बखूबी भाजपा उठाती नजर आ रही है। आज सूबे के सीएम पुष्कर सिंह धामी भाजपा में ‘वन मैन आर्मी’ बन चुके हैं। भाजपा की राजनीति धामी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई है। जबकि कांग्रेस के अंदर जो नया परिदृश्य बन रहा है उसमें हरीश रावत समर्थकों को दरकिनार कर नई कांग्रेस उभरने की कल्पना तो है मगर वह जमीनी हकीकत का रूप नहीं ले पा रही है
उत्तराखण्ड राज्य अपने गठन के चौबीस वर्ष पूरे कर पच्चीसवें में प्रवेश करने को अग्रसर है। 9 नवंबर 2024 को उत्तराखण्ड अपनी स्थापना के 25वें वर्ष में प्रवेश कर जाएगा। इस 25वें वर्ष में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपनी कुछ प्राथमिकताएं तय की हैं। बशर्ते वो राजनीतिक अस्थिरता की परंपरा का शिकार न हों। इन 24 सालों में विकास अन्य क्षेत्रों में प्रगति पर सबके अपने-अपने तर्क और नजरिए हो सकते हैं। लेकिन 24 वर्षों के सफर में उत्तराखण्ड राजनीतिक दलों और राजनीतिक महत्व के क्षेत्र में खुद को कहां पर पाता है ये राजनीतिक दलों, जनता और राजनेताओं के बीच विमर्श का विषय है। उत्तराखण्ड की राजनीति और राजनीतिक दलों के उतार-चढ़ाव की ये 24 वर्षों की यात्रा कम दिलचस्प नहीं है। इन 24 वर्षों में उत्तराखण्ड की राजनीति ने राजनीतिक दलों का उत्थान देखा तो पराभव भी देखा और क्षेत्रीय ताकतों को उत्तराखण्ड के राजनीतिक परिदृश्य से गायब होते भी देखा। कई राजनेताओं का राजनीति में उद्भव देखा तो कई राजनेताओं की विदाई भी देखी। उत्तराखण्ड राज्य बनते समय भाजपा-कांग्रेस के कई नेता जो राज्य गठन के समय राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण चेहरे होते थे समय की मार चलते अपने वजूद के लिए संघर्ष करते दिखे तो कई नए चेहरे उत्तराखण्ड की राजनीति में अपनी जगह बनाने को आतुर दिखे। इन 24 वर्षों के सफर में उत्तराखण्ड की राजनीति द्विधु्रवीय होते दिखी जिसमें क्षेत्रीय ताकतें अपना वजूद कायम नहीं रख सकीं। उत्तराखण्ड क्रांति दल, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी नाम की उपस्थिति दर्ज कराते नजर आए। उत्तराखण्ड क्रांति दल उसके अपने नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का शिकार हो गया। दिवाकर भट्ट और प्रीतम पवार सरीखे नेता सत्ता की चकाचौंध के आगे अपने सिद्धांतों को सत्ता के समक्ष समर्पण करते नजर आए। शायद इसी ने उत्तराखण्ड की जनता के सामने कांग्रेस या भाजपा में से एक को चुनने का विकल्प मात्र ही छोड़ा। हां हरिद्वार क्षेत्र में बहुजन समाज पार्टी वहीं के जातिगत समीकरण के चलते अपनी उपस्थिति जरूर दर्शाती नजर आई। मगर समूचे उत्तराखण्ड की राजनीतिक पार्टी वो खुद को नहीं बना पाई। इस दौर में भारतीय जनता पार्टी ने जहां खुद को मजबूत किया वहीं कांग्रेस पार्टी और अन्य क्षेत्रीय दल अपना मर्सिया पढ़ते नजर आए। भारतीय जनता पार्टी जहां अपनी दूसरी पीढ़ी के नेताओं को आगे बढ़ाकर पीढ़ीगत बदलाव की ओर बढ़ चुकी है तो वहीं कांग्रेस अपने पुराने खोल से बाहर निकलने का प्रयास करते नहीं नजर आ रही है। उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ने वाली ताकतें पार्श्व में जा चुकी हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पूरे देश की तरह उत्तराखण्ड में भी भाजपा का विस्तार 90 के दशक से शुरू हुआ। मंडल राजनीति के प्रत्युत्तर में कमण्डल राजनीति ने भाजपा की जड़ें उत्तराखण्ड में मजबूत करने का काम किया। फिर उत्तरोत्तर उत्तराखण्ड की राजनीति में भाजपा मजबूत होती चली गई। 2002 के विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के मतों का अंतर 1 प्रतिशत से भी कम था। जहां कांग्रेस को 26.91 प्रतिशत मत मिले वहीं भाजपा को 25.45 प्रतिशत मत मिले लेकिन 36 सीटों के साथ कांग्रेस ने सरकार बनाई। भाजपा को 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा। 2007 के विधानसभा चुनावों में भाजपा का मत प्रतिशत बढ़कर लगभग 32 प्रतिशत हो गया जो कांग्रेस को मिले मतों से 2 प्रतिशत ज्यादा था। भाजपा ने 36 सीटों के साथ सरकार बनाई कांग्रेस को 21 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसी दौर से उत्तराखण्ड की राजनीति में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ 2007 से 2012 के बीच उत्तराखण्ड ने मुख्यमंत्री में तीन बदलाव देखे। खण्डूड़ी- निशंक-खण्डूड़ी के बीच जो बदलाव का सिलसिला चला वो आज भी उत्तराखण्ड की राजनीति में परिलक्षित होता है। 2007 से 2012 तक उत्तराखण्ड ने 839 दिन भुवन चंद्र खण्डूड़ी, 808 दिन रमेश चंद्र पोखरियाल ‘निशंक’ और फिर 185 दिन फिर से खण्डूड़ी का शासन देखा। 2012 में उत्तराखण्ड ने सरकार बदलने की अपनी परम्परा कायम रखते हुए भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया हालांकि भाजपा और कांग्रेस के मत प्रतिशत में अंतर ज्यादा नहीं था।
कांग्रेस के 33.79 मत प्रतिशत के साथ 32 सीटें पा गई वहीं भाजपा को 33.13 मत प्रतिशत के साथ 31 सीटें प्राप्त की। कांग्रेस ने निर्दलियों के साथ सरकार बना ली। 2017 के विधानसभा चुनावों से स्थितियां बदलती दिखीं। भाजपा ने 46.5 प्रतिशत मतों के साथ 57 सीटें पाकर प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। वहीं कांग्रेस 11 सीटों पर सिमट गई। 2017 से 2022 के बीच भी भाजपा ने त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी के रूप में तीन मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड को दिए। 2022 का चुनाव पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में लड़ा गया जिसमें 47 सीटों के साथ मिथक तोड़ती हुई फिर से सरकार बनाने में सफल हुई। 2002 से 2014 तक भाजपा का स्वरूप एक दिखता है। 2014 के बाद भाजपा आक्रामक हुई है और उसमें संगठन के स्तर और रणनीतिक स्तर पर काफी बदलाव देखने को मिला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के भाजपा पर काबिज होने का असर उत्तराखण्ड की भाजपा पर भी साफ नजर आता है। 2014 के बाद भाजपा में हुए बदलाव के चलते कई पुराने नेता हाशिए में चले गए और नई पीढ़ी आगे बढ़ती नजर आई। 2012 से 2017 के समय अजय भट्ट नेता प्रतिपक्ष के साथ प्रदेश अध्यक्ष भी थे। 2017 के चुनावों में भाजपा को भले ही प्रचंड बहुमत मिला हो लेकिन अजय भट्ट खुद चुनाव हार गए थे। 2022 में भी पुष्कर सिंह धामी भी विधानसभा चुनाव हार गए थे लेकिन जो अवसर 2017 में अजय भट्ट को नहीं मिला वो भाजपा नेतृत्व ने हारने के बाद भी 2022 में पुष्कर सिंह धामी को दिया। आज अगर देखें तो उत्तराखण्ड भाजपा की राजनीति पुष्कर सिंह धामी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई है। संगठन और सरकार का तालमेल इस वक्त कहीं बेहतर है।
अजय भट्ट के प्रदेश अट्टयक्ष रहते उनका मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से छत्तीस का आंकड़ा बताया जाता था। भाजपा की राजनीति पुष्कर सिंह धामी के इर्द-गिर्द चलते भाजपा के कई बड़े नेता हाशिए पर नजर आते हैं। भले ही वो सांसद, विधायक या मंत्री हो। आज सरकार नहीं सिर्फ धामी चलते दिखाई दे रहे हैं तो सारे मंत्री पार्श्व में हैं और फिलवक्त अपनी राजनीतिक धमक खो चुके हैं या कहें सत्ता का स्वाद लेते हुए फिलहाल खुदको सीमित कर चुके हैं। कांग्रेस सरकार में हमेशा मुखर व असंतुष्ट रहने वाले सतपाल महाराज सरीखे मंत्री भी शांत हैें। उत्तराखण्ड में फिलहाल भाजपा पुष्कर सिंह धामी की ‘वन मैन आर्मी’ बन गई है। जिसमें पूरी भाजपा सतही तौर पर तो उनके पीछे लामबंद नजर आती ही है। हालांकि इसके खतरे भी भविष्य में कम नहीं है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है 2017 के विधानसभा चुनावों में हार के बाद वो अभी तक खुद को संभाल नहीं पाई है। पार्टी के अंदर गुटबाजी बड़े नेताओं के अहंकार का टकराव कांग्रेस पार्टी को गर्त की ओर ले जा रहा है।
उत्तराखण्ड कांग्रेस के बड़े नेता कांग्रेस का मर्सिया खुद ही लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हालांकि कांग्रेस में गुटबाजी कोई नई नहीं रही है। उत्तराखण्ड गठन के बाद से ही यहां कांग्रेस में हरीश रावत व नारायण दत्त तिवारी गुट की खेमेबाजी रही है। बदलते समय के साथ इन दोनों गुटों का प्रभाव धीमे-धीमे समाप्त होता गया। डॉ. इंदिरा हृदयेश के रहते तिवारी गुट कांग्रेस के अंदर शक्तिशाली हुआ करता था लेकिन इंदिरा के जाने के बाद तिवारी गुट का वजूद पूरी तरह से समाप्त हो गया है। 2014 के बाद हरीश रावत एक बार जरूर शक्तिशाली नजर आने लगे थे लेकिन 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद उनके नेतृत्व पर प्रश्न चिन्ह् लगने लाजमी थे। 2017 का चुनाव हरीश रावत के चेहरे पर लड़ा गया था और 2022 के चुनावों में भी हरीश रावत ही मुख्य चेहरा थे भले ही उनके पार्टी के अंदर के प्रतिद्वंद्वियों ने उनके चेहरे को स्वीकार नहीं किया होे। कभी हरीश रावत के खास रहे उनके सहयोगी ही खासकर प्रीतम सिंह व रणजीत रावत सरीखे लोग आज उनके विरोधी खेमे में नजर आते हैं। 2022 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले पार्टी के संगठन में बदलाव भी कांग्रेस के काम नहीं आया था। 2017 के बाद पार्टी से बिखराव का दौर अभी तक थमा नहीं है। केदारनाथ उपुचनाव की घोषणा हो चुकी है लेकिन पार्टी में वहां के लिए भी गुटबाजी चरम पर है।
2022 के विधानसभा चुनावों के बाद यशपाल आर्य के अनुभव और करन माहरा के युवा चेहरे आगे कर कांग्रेस में बदलाव की उम्मीद जगी थी लेकिन यशपाल आर्य और करन माहरा की जोड़ी भी उभरने में नाकाम रही है। शायद करन माहरा यशपाल आर्य के सांगठनिक अनुभव का लाभ नहीं ले पाए। कांग्रेस में दरअसल असली लड़ाई 2027 के विधानसभा चुनावों की है जिसमें हर कोई नेता खुद को मजबूत स्थिति में रखना चाहता है। कांग्रेस के अंदर जो नया परिदृश्य उभरा है उसमें हरीश रावत समर्थकों को दरकिनार कर नई कांग्रेस उभारने की कल्पना तो है मगर उसका आधार भी गुटबाजी ही है।
करन माहरा कभी हरीश रावत के खांटी शिष्य रहे और अब धुर विरोधी रणजीत रावत के प्रभाव से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं और यहीं पर कांग्रेस के लिए समस्या है। केदारनाथ से पूर्व विधायक मनोज रावत और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल से करन माहरा के सम्बंध असहज यूं ही नहीं हैं। विचारधारा, विमर्श, संगठन और नेतृत्व की कसौटी पर देखें तो भाजपा के सामने कांग्रेस काफी कमजोर नजर आती है। शायद इन्हीं कमजोरियों के चलते उत्तराखण्ड राज्य के गठन के समय मजबूत कांग्रेस आज अपने ढलान पर नजर आती है क्योंकि पार्टी नेताओं की प्राथमिकता कांग्रेस को मजबूत करने के स्थान पर खुद को मजबूत करने की है। शायद यही कारण है कि आज कांग्रेस में नारायण दत्त तिवारी सरीखे नेताओं की कमी साफ नजर आती है जिनका पूरे उत्तराखण्ड में प्रभाव रहा है।

