हल्द्वानी नगर निगम चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों की भविष्य की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण है। हार-जीत यहां हर दल के अंदर नए समीकरणों की इबारत लिखेंगे। बंशीधर भगत सरीखे भाजपा के वरिष्ठ नेता के साथ-साथ गजराज सिंह बिष्ट, जोगेंद्र रौतेला सहित कई नेताओं के लिए इन चुनावों से राजनीतिक भविष्य के संदेश निकलेंगे। क्या कालाढूंगी विधानसभा क्षेत्र में एक और ‘पावर सेंटर’ बनेगा? साथ ही कांग्रेस के अंदर कई लोगों की भूमिकाएं तय होंगी। फिलहाल कांटे की लड़ाई में नगर निगम हल्द्वानी में मेयर कांग्रेस का होगा या भाजपा का ये 25 जनवरी को मतगणना के बाद ही पता चलेगा
उत्तराखण्ड नगर निकाय चुनावों में मतदान की तिथि जितनी नजदीक आती जा रही है राजनीतिक पार्टियों के लिए उतनी चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। नगर पंचायत, नगर पालिका और नगर निगमों के लिए होने जा रहे इन चुनावों में क्षेत्रों के हिसाब से संघर्ष की स्थिति अलग है। कहीं भाजपा और कांग्रेस एक दूसरे के साथ सीधी लड़ाई में हैं तो कहीं बागियों के चलते त्रिकोणात्मक संघर्ष की स्थिति बनती नजर आ रही है। ऋषिकेश नगर निगम में निर्दलीय के चलते जहां संघर्ष त्रिकोणात्मक हो गया है वहीं अन्य नगर निगमों में मेयर की लड़ाई में कमोबेश भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने की लड़ाई में हैं। नगर निगम चुनाव जिस प्रकार साम-दाम-दण्ड-भेद के साथ लड़े जा रहे हैं उससे लगता है कि सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस के लिए ये साख का सवाल बन गया है। भाजपा के सामने अपनी जमीन बचाने की चुनौती है, तो कांग्रेस के सामने अपनी खोई जमीन वापस पाने की चुनौती है वहीं 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए अपने को मजबूत दावेदार के रूप में खड़ा करने की भी चुनौती है।
कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्द्वानी नगर निगम की मेयर सीट इस बीच सबसे प्रतिष्ठा की सीट बन चुकी है। 2013 से मेयर के पद पर काबिज भाजपा के सामने तीसरी बार जीतकर हैट्रिक लगाने का अवसर है वहीं कांग्रेस अपनी पुरानी साख वापस पाने की पूरी कोशिश कर रही है। 1942 में टाउन एरिया बनी हल्द्वानी काठगोदाम नगर निकाय को आजादी के बाद नगर पालिका का दर्जा मिला। 1942 से आज तक देखें तो यहां की जनता ने बिना किसी भेदभाव के अपना जनप्रतिनिधि चुना। नगर पालिका मुखिया के रूप में पर्वतीय मूल के, वैश्व समुदाय और मुस्लिम समुदाय, महिला कभी न कभी, यहां काबिज रहे। 1942 से 1943 तक चौधरी श्याम सिंह, 1943 से 1946 तक मुरली मनोहर माथुर, 1946 से 1952 तक दया किशन पाण्डे, 1952 से 1953 तक घनानंद पाण्डे, 1954 से 1957 तक दयाकिशन पाण्डे, 1957 से 1958 तक हीराबल्लभ बेलवाल, 1958 से 1964 तक नंद किशोर खंडेलवाल, 1964 से 1967 तक हीरा बल्लभ बेलवाल, 1967 से 1968 तक मुहम्मद अब्दुल्ला, 1968 से 1977 तक लगातार दो बार हीराबल्लभ बेलवाल, 1988 से 1994 तक नवीन चन्द्र तिवारी, 1997 से 2002 तक सुषमा बेलवाल, 2003 से 2008 तक हेमंत सिंह बगड्वाल, 2008 में रेनू अधिकारी हल्द्वानी-काठगोदाम नगर पालिका अध्यक्ष पद पर काबिज रहे। 2013 में नगर निगम गठन के पश्चात 2013 और 2018 में लगातार भाजपा के डॉ. जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला मेयर चुने गए।
हल्द्वानी नगर पालिका और नगर निगम के इतिहास में हीराबल्लभ बेलवाल और डॉ. जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला को लगातार दो बार अध्यक्ष चुने जाने का गौरव प्राप्त है। हालांकि दयाकिशन पाण्डे को दो बार और हीराबल्लभ पंत 4 बार अध्यक्ष पद पर रहे। 2013 के मेयर चुनावों में अब्दुल मतीन सिद्दीकी ने मेयर चुनाव पर कड़ी टक्कर दी थी और कांग्रेस प्रत्याशी हेमंत सिंह बगड़वाल को पीछे धकेल दूसरे नंबर पर रहे थे। उन चुनावों में डॉ. जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला अब्दुल मतीन सिद्दीकी से बामुश्किल तेरह सौ मतों से जीत पाए थे। 2018 में नगर निगम क्षेत्र के विस्तार के साथ कालाढूंगी और लालकुआं विधानसभा क्षेत्रों का कुछ क्षेत्र जुड़ जाने के बाद इस सीट पर नए राजनीतिक समीकरण बने। भाजपा के प्रभाव वाले क्षेत्रों के शामिल होने के बाद यहां भाजपा का पलड़ा भारी हो गया। 2018 के चुनावों में शोएब अहमद के खड़े होने से मुकाबला त्रिकोणात्मक तो नहीं कहा जा सकता हां शोएब अख्तर को मिले 9234 वोटों ने कांग्रेस प्रत्याशी सुमित हृदयेश को नुकसान जरूर पहुंचाया। 2018 में जोगेंद्र रौतेला 64793 वोट पाकर 10854 वोटों से जीते। तब कांग्रेस प्रत्याशी सुमित हृदयेश 53939 मत लाकर दूसरे स्थान पर रहे थे। उस वक्त माना गया था कि शोएब अहमद को मिले 9 हजार वोट कांग्रेस को नुकसान पहुंचा गए। हालांकि उस समय कांग्रेस में अंतर्कलह भी बहुत ज्यादा थी।
2025 के मेयर चुनावों का परिदृश्य कुछ अलग है। इस बार भाजपा ने चेहरा बदलकर वरिष्ठ नेता व मंडी परिषद के पूर्व अध्यक्ष गजराज सिंह बिष्ट पर दांव लगाया है तो कांग्रेस ने राज्य आंदोलनकारी और युवा नेता ललित जोशी पर अपना विश्वास जताया है। गजराज सिंह बिष्ट और ललित जोशी छात्र जीवन के ही समकालीन हैं। पिछले चुनावों के मुकाबले नजर डालें तो इस बार काफी कुछ उलट नजर आता है। सबसे पहले भाजपा की बात करें तो कई दावेदारों की रणनीति को फेल कर गया जो गजराज और जोगेंद्र रौतेला दोनों की राह रोकना चाहते थे इसमें गजराज बाजी तो मार ले गए लेकिन मतदान के दिन तक सबको एकजुट रखना गजराज सिंह बिष्ट के सामने बड़ी चुनौती है। शायद गजराज सिंह बिष्ट की हार-जीत की पटकथा भाजपा की आंतरिक राजनीति के इर्द-गिर्द ही लिखी जाएगी। हालांकि सतही तौर पर भाजपा एक नजर जरूर आती है लेकिन आंतरिक रूप से नुकसान पहुंचाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। जहां तक कांग्रेस का सवाल है यहां भी कांग्रेस ऊपरी तौर पर संगठित नजर आती है। भाजपा की तरह यहां आंतरिक असंतोष के स्वर नहीं सुनाई पड़ते हैं। इन चुनावों में कांग्रेस के लिए हल्द्वानी विधायक सुमित हृदयेश की
भूमिका अहम है। सुमित हृदयेश मजबूती से ललित जोशी के प्रचार में जुटे हैं। खास समय पर उचित कदम किसी राजनेता की परिपक्वता को दर्शाता है। नगर निगम चुनाव में प्रत्याशी चयन में सुमित हृदयेश की परिपक्वता के चलते कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस कैडर या समर्थकों में कहीं कोई असमंजस नजर नहीं आता। एक लंबे समय बाद हल्द्वानी में कांग्रेस एकजुटता के साथ चुनाव लड़ती दिख रही है। एक लंबे समय बाद कांग्रेस हल्द्वानी का कोई स्थानीय निकाय चुनाव स्व. इंदिरा हृदयेश की अनुपस्थिति में लड़ेगी।
ऐसे में कांग्रेस के अंदर सुमित हृदयेश के लिए खुद को साबित करने का बड़ा अवसर भी है। ललित जोशी का कांग्रेस के अंदर लंबा अनुभव रहा है। उन्हें इस बार कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बना कर एक बड़ा अवसर दिया है। हालांकि चुनौती उनके सामने भी कम नहीं है। हल्द्वानी नगर निगम चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिल रही है। भाजपा का जहां मजबूत संगठन है वहीं कांग्रेस जमीन पर खुद को स्थापित करने में लगी है। पिछले दस सालों की जवाबदेही शायद ही मुद्दा बन पाए। चुनावों के वक्त नेतागण विकास की बातों से बचते हैं। पिछले दस सालों से नगर निगम में काबिज भाजपा सत्तारूढ़ होने के नाते ज्यादा सवालों के घेरे में है। कांग्रेस ने निगम में अपनी भूमिका कैसे निभाई इस पर भी सवाल उठना लाजमी है। भाजपा को अपने बागी पार्षदों का सामना करना पड़ रहा है। बताते हैं कि एक मेयर के दावेदार द्वारा कई भाजपा पार्षदों के टिकट कटवा कर अपने चहेतों को टिकट दिलवा देना भाजपा पर भारी पड़ रहा है। कई जगह ये बागी भाजपा के सिर दर्द बने हुए हैं। इन्हीं जद्दोजहदों के चलते चुनाव विकास के मुद्दों से हटकर अन्य दिशा में भटकाव की कोशिश हो रही है।
मुस्लिम प्रत्याशी न होना भी भाजपा की चिंता का कारण बन रहा है। मुस्लिम प्रत्याशी न होने के सवाल भाजपा तेजी से उठाने की कोशिश कर रही है। समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में पर्चा भरने वाले शोएब अहमद द्वारा नाम वापस लिए जाने पर सवाल सबसे ज्यादा भाजपा ने ही उठाए हैं। शोएब अहमद द्वारा नाम वापस लेना कांग्रेस को समर्थन मान लिया गया जबकि समाजवादी पार्टी द्वारा कांग्रेस को समर्थन की अधिकारिक घोषणा कहीं पर की नहीं गई है। शायद ये मुद्दा भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए चिंता का विषय है। कांग्रेस की चिंता धु्रवीकरण की है शायद इसी लिए कांग्रेस ने खामोशी अख्तियार की हुई है, वहीं भाजपा इस बहाने अपने समर्थक वर्ग का आधार पुख्ता करना चाहती है उसे डर है कि सामान्य तरीके से जनता वोट डालने गई तो उसके लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। कालाढंूगी और लालकुआं जैसे अपने गढ़ों में भाजपा अगर कमजोर हुई तो ये उसके लिए मुश्किल पैदा कर सकता है। शायद इसीलिए 30 हजार बनाम 2 लाख की बात भाजपा समर्थक करने लगे हैं जिसे सोशल मीडिया पर आसानी से देखा जा सकता है। इन सबके बीच मुस्लिम मतदाता खामोश हैं। सवाल है कि हिंदू-मुस्लिम का ये नैरेटिव क्या चुनाव में काम कर पाएगा क्योंकि अभी तक इसका असर जमीन पर कहीं दिखाई नहीं देता। हां मतदान तिथि तक कोई नई हवा बनते दिखे तो अलग बात है।
नाम वापसी की राजनीति
हल्द्वानी नगर निगम में सपा प्रत्याशी न होना चर्चा का विषय है। जहां भाजपा इस पर मुखर है वहीं कांग्रेस ने इसमें चुप्पी साध रखी है। समाजवादी पार्टी से मेयर का नामांकन भरने वाले शोएब अहमद की वापसी पर विरोध के स्वर तेज रखने वाले अब्दुल मतीन सिद्दीकी के स्वर भी आजकल खामोश हैं। एक तरफ शोएब अहमद का नाम वापस लेना, दूसरी तरफ सरकार की कमजोर पैरवी के चलते मतीन अहमद सिद्दीकी के भाई की जमानत क्या ये संयोग है? अगर हल्द्वानी में फैल रही अफवाहों में कुछ सच्चाई है तो मामला दिलचस्प है। चर्चाएं हैं उनसे पता चलता है कि शोएब अहमद की नाम वापसी में भाजपा से जुड़े एक बड़े नेता की भी भूमिका है जो 2027 के चुनावों में अपने लिए अवसर देखते हैं। यह नेता नगर निगम की सीट को ओबीसी और फिर अनारक्षित करने के लिए बड़े सक्रिय थे।