Country

आक्रामक राहुल से सहमी भाजपा

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी का नया अवतार भाजपा को सहमाने लगा है। बीते दस वर्षों के दौरान राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने का जो नैरेटिव भाजपा ने तैयार किया था वह ‘भारत जोड़ो’ सरीखी यात्राओं के बाद ध्वस्त हो चला है। राहुल ऐसे मुद्दों को अब संसद और सड़क पर उठाने लगे हैं जिनका सीधा सम्बंध उस वर्ग से है जो बतौर वोट बैंक सभी राजनीतिक दलों के लिए खासा महत्व रखता है। ऐसा ही एक मुद्दा जाति आधारित जनसंख्या गणना का है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे सत्ता में रहते कांग्रेस ने भी भरसक दबाने का प्रयास किया और अब भाजपा भी ऐसा ही कर रही है। राहुल ने इसी मुद्दे को हथियार बना मानसून सत्र में भाजपा को घेर लिया। भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को राहुल की धार कुंद करने के लिए मैदान में उतारा लेकिन ठाकुर का राहुल की जाति पूछना बैक फायर कर गया है। सपा नेता अखिलेश यादव ने इसके बाद मोर्चा सम्भाल पूरे मुद्दे को सवर्ण बनाम ओबीसी का रूप दे भाजपा की चिंताओं में इजाफा करने का काम कर दिखाया है

देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद के दोनों सदनों में इन दिनों चल रहा मानसून सत्र जाति के मुद्दे पर आकर अटक गया है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लगातार बीजेपी पर हमला बोल रहे हैं। वो भी उन बिंदुओं को मुद्दा बनाकर बीजेपी को घेर रहे हैं जिनके लिए बीजेपी का रिकॉर्ड कांग्रेस से बेहतर रहा है। ऐसे में बीजेपी को समझ नहीं आ रहा है कि राहुल के इन मुद्दों की काट कैसे की जाए? बीजेपी जो भी कर रही है उसमें खुद फंसती जा रही है। राहुल की काट के लिए मैदान में उतरे बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी की जाति पूछ ली तो बवाल मच गया। इसके बाद से राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज हो गई है कि क्या देश में अगला चुनाव इसी मुद्दे पर लड़ा जाएगा?

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि निश्चित रूप से जिस नैरेटिव का तोड़ बीजेपी नहीं निकाल पा रही है और अपने युवा नेताओं को आगे कर जितना राहुल गांधी को अपमानित करने की कोशिश कर रही है उतना ही वह स्वयं घिरती जा रही है। स्मरण रहे कि 1989 में शुरू हुआ मंडल-1 की शुरुआत भी एक ऐसे राजनीतिक संकट से शुरू हुई थी, जिसके एक सिरे पर कांग्रेस थी, दूसरे पर कांग्रेस से ही निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह थे जिन्होंने लेफ्ट और भाजपा के समर्थन पर केंद्र में सत्ता हासिल की थी। राममंदिर आंदोलन चलते संकट में घिरे जनता दल के मुखिया वीपी सिंह ने तब मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान कर ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण को लागू करा दिया था। उस समय भी कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी, जिसके नेता राजीव गांधी ने इसका पुरजोर विरोध किया था। लेकिन कांग्रेस के पास इससे लाभ हासिल करने के लिए बहुत कुछ नहीं था। तब मंडल कमीशन के विरोध का लाभ भाजपा के साथ मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव को भी मिला। बहुजन समाज पार्टी के लिए भी यह दौर सबसे फायदेमंद साबित हुआ। यह वही दौर था जब देश आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बीच गुजर रहा था। मंडल विरोध को हवा देकर भाजपा ने कांग्रेस के पारंपरिक ब्राह्मण वोट बैंक पर सेंधमारी कर ली थी, लेकिन इसके साथ ही कमंडल का दौर भी शुरू कर दिया।

लाकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा का उद्देश्य भले ही अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर रहा हो, लेकिन इसके माध्यम से मंडल की आंधी को नेस्तनाबूद करना प्रमुख था जिसे आरक्षण विरोधी युवा और अगड़ी जातियों ने हाथों हाथ लिया। अपने इतिहास में पहली बार वर्चस्वशाली जातियों की गोलबंदी ने आरएसएस और भाजपा को मजबूती से अपने विचारों को आगे रखने की हिम्मत दी थी और देखते ही देखते भाजपा देश की राजनीति में एक महाशक्ति बन गई थी। यही कारण है कि दक्षिण भारत को छोड़, धीरे-धीरे कांग्रेस का अस्तित्व शेष भारत से खत्म होता चला गया और भाजपा एकमात्र राष्ट्रीय दल के रूप में मजबूती से स्थापित होने लगी, जबकि उसके मुकाबले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में ओबीसी जातियों की दावेदारी ने अपनी जगह बना ली थी। यह मध्यवर्ती जातियों के उभार का समय था जो कृषि में पूंजी निवेश और लाभकारी खेती के चलते समाज के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी हिस्सेदारी के लिए सामने आ रहे थे। 1989 के बाद पहचान की राजनीति बनाम धार्मिक पहचान के बीच देश जो बंटा, वह अभी तक जारी है।

2014 से 2024 तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही। एक तरफ हिंदुत्ववादी नैरेटिव को चलाकर समाज और राजनीतिक परिदृश्य में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को निरंतर बढ़ाया गया, अपने विकल्प बतौर मौजूद कांग्रेस के रहे-सहे वजूद को खत्म करने का प्रयास कर भाजपा और आरएसएस ने 2047 तक का विजन तैयार किया। इसे हिंदुत्ववादी राजनीति का कौशल ही कहना चाहिए कि जिस राजनीतिक शक्ति ने मंडल-1 का सबसे मुखर विरोध किया था, उसी ने राम मंदिर, कांवड़ यात्रा, गौ-रक्षा अभियान जैसे तमाम अभियानों में बड़ी संख्या में देश के ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया था, जिसका बड़ा लाभ उसे 2014 और उसके बाद अभी तक हासिल हो रहा था। अपनी वैचारिकी को देश पर प्रतिस्थापित करने के लिए संघ और भाजपा में पर्याप्त लचीलापन था, जिसे विभिन्न राज्यों में ओबीसी मुख्यमंत्रियों के तौर पर देखा गया। जातीय जनगणना और आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी को लेकर संसद में घिरी सरकार अब पलटवार के मूड में है। इसकी कमान सत्ताधारी दल बीजेपी के कई बड़े नेताओं ने संभाल ली है जिसका असर सदन से लेकर सोशल मीडिया तक देखने को मिल रहा है। बीजेपी इस रणनीति के तहत विपक्ष की कमजोर नस को पकड़कर मुद्दे की धार को कुंद करना चाहती है।

क्या है पूरा मामला
असल में बजट 2024-25 पर भाषण देते हुए राहुल गांधी ने वित्त मंत्रालय के अफसरों पर निशाना साधते हुए कहा कि वित्त मंत्रालय के जिन अधिकारियों ने बजट तैयार किया, उनमें एक भी दलित नहीं है। इस पर बवाल तब मच गया जब सरकार की तरफ से बोलने आए अनुराग ठाकुर ने यह कह दिया कि जिन्हें अपनी जाति का पता नहीं है, वो जाति आधारित गणना कराने की मांग कर रहे हैं। अनुराग के इस बयान को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तुरंत लपक लिया। अखिलेश ने पूछा कि संसद में कोई व्यक्ति किसी की जाति कैसे पूछ सकता है? अखिलेश के इस बयान पर पीठासीन जगदम्बिका पाल ने कहा कि यह नहीं पूछा जा सकता है और हम इसे हटाएंगे। लेकिन विपक्ष संसद से सड़क तक इसे बड़ा मुद्दा बनाने में जुट गया है जिसकी काट भाजपा कर नहीं पा रही है।

मुद्दे की धार को कुंद करने में जुटी भाजपा
जातीय मुद्दों पर भाजपा ने कई तरह की रणनीति तैयार की है। इसके तहत बीजेपी के बड़े नेता अखिलेश यादव और राहुल गांधी के उन पुराने वीडियो शेयर कर रहे हैं जिनमें वे किसी भी व्यक्ति से जाति पूछ रहे हैं। अनुराग ठाकुर ने एक 2023 का वीडियो शेयर किया है, जिसमें मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश एक पत्रकार से जाति पूछ रहे हैं। इसी तरह बीजेपी के सोशल मीडिया इंचार्ज अमित मालवीय ने राहुल गांधी के दो वीडियो शेयर किए हैं। इस वीडियो में राहुल पत्रकारों की जाति पूछ रहे हैं। बीजेपी नेता इन वीडियो के सहारे अनुराग ठाकुर के उस बयान का बचाव कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने संसद में जाति नहीं पता और गणना कराएंगे का बयान दिया था। राज्यसभा में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि कांग्रेस यह बताए कि आखिर ‘राजीव गांधी फाउंडेशन’ में कितने दलित और आदिवासी हैं? फाउंडेशन की स्थापना साल 1991 में की गई थी। सोनिया गांधी इस फाउंडेशन की प्रमुख हैं।

यही नहीं बीजेपी कांग्रेस के पुराने नेताओं के बयानों को भी निकालकर कांग्रेस पर हमला कर रही है। सत्ताधारी पार्टी के निशाने पर मुख्य रूप से इंदिरा गांधी और राजीव गांधी हैं। दोनों नेताओं के रहते मंडल कमीशन की सिफारिश लागू नहीं हो पाई थी। बीजेपी इस तथ्य के सहारे जाति जनगणना की मांग को कुंद करना चाहती है, जिससे उसका सियासी नुकसान न हो। बीजेपी को लंबे समय से कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार संतोष कुमार कहते हैं कि यह सवाल तो उठेगा ही कि जो पार्टी 60 साल तक देश की सत्ता में रही उसने जाति जनगणना क्यों नहीं कराई? 2011 में सोशल इकोनॉमिक सर्वे का आदेश मनमोहन सरकार में हुआ, लेकिन मनमोहन सरकार उसे जारी नहीं कर पाई। बीजेपी यह मुद्दा उठाकर जाति जनगणना पर कांग्रेस की आक्रामकता को कमजोर करना चाहती है। पार्टी सदन में किसी भी तरह से बैकफुट पर नहीं रहना चाहती है।

कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी की बात सबसे पहले लोहिया ने उठाई थी। लोहिया की राजनीति कांग्रेस विरोध पर टिकी हुई थी। ऐसे में जाति जनगणना के माध्यम से राहुल गांधी क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या इस हिस्सेदारी में खेती, कॉरपोरेट वर्ल्ड और निजी क्षेत्र में नौकरियां भी हो सकती हैं? क्या राहुल गांधी की राजनीति प्रतीकात्मकता से आगे की है? क्या पहचान की राजनीति के बजाय वर्गीय राजनीति को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए? ऐसे ढेर सारे प्रश्न हैं जो निकट भविष्य में बड़े सवाल बनकर उभरने वाले हैं।

दूसरी तरफ कुछ चिंतकों का मानना है कि भाजपा ने जितनी सहजता से पिछले दस वर्षों के दौरान मनुवादियों और मंडलवादियों को एक ही हाथ में साधकर देश के चंद धन्ना सेठों और विदेशी पूंजी के लिए खुली लूट की दावत का इंतजाम किया था, उसे पूरा करने में उसे इस बार कदम- कदम पर भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। राहुल-अखिलेश यादव-स्टालिन-शरद पवार सहित इंडिया गठबंधन जाति जनगणना के मुद्दे पर जैसे-जैसे अपना दबाव बढ़ाएगी, उतनी तेजी से भाजपा की बंद मुट्ठी से पिछड़ों और दलित-आदिवासियों का वोट बैंक खिसकता चला जाएगा। हालांकि मंडल-मंडल की राजनीति भले ही इंडिया गठबंधन को आने वाले चुनावों में अपराजेय स्थिति में पहुंचा दे, लेकिन उसे भी दो कदम आगे चलकर एक नए भंवर में फंसने के लिए बाध्य होना ही पड़ेगा। क्योंकि समग्र समाधान की लड़ाई इससे हजार गुना अधिक बड़ी है।

गौरतलब है कि आज भले ही बीजेपी जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो, लेकिन दस साल पहले जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसके नेता खुद इसकी मांग करते थे। बीजेपी के नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, ‘अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएंगे।’ इतना ही नहीं जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक्तत 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस रीलीज में सरकार ने कहा था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित किया जाएगा। कांग्रेस की बात करें तो 2011 में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डाटा जुटाया था। इसके लिए चार हजार करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई। साल 2016 में जाति को छोड़ कर सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस के सभी आंकड़े प्रकाशित हुए, लेकिन जातिगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हुए। जातीय डेटा सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आंकड़ों का क्या हुआ, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है।

जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी

राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि देश की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां जातिगत जनगणना के समर्थन में हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि उनका जनाधार ही ओबीसी पर आधारित है। इसका समर्थन करने से सामाजिक न्याय का उनका जो प्लेटफॉर्म है, उस पर पार्टियां मजबूत दिखती है। लेकिन राष्ट्रीय पार्टियां सत्ता में रहने पर कुछ और विपक्ष में रहने पर कुछ और ही कहती हैं। ऐसे में सवाल है कि सत्ता में आते ही पार्टियां इस तरह की जनगणना के खिलाफ क्यों हो जाती है?

जनगणना अपने आप में बहुत ही जटिल कार्य है। जनगणना में कोई भी चीज जब दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उससे निर्धारित होते हैं। इस वजह से कोई भी सरकार उस पर बहुत सोच समझ कर ही काम करती है। एक तरह से देखें तो जनगणना से ही जातिगत राजनीति की शुरुआत होती है। उसके बाद ही लोग जाति से खुद को जोड़कर देखने लगे, जाति के आधार पर पार्टियां और एसोसिएशन बनने लगे। लेकिन 1931 के बाद से जातिगत जनगणना नहीं हुई बावजूद इसके जाति के नाम पर राजनीति अब भी हो रही है। अभी जो राजनीति होती है, उसका ठोस आधार नहीं है, उसे चुनौती दी जा सकती है, लेकिन एक बार जनगणना में वो दर्ज हो जाएगा, तो सब कुछ ठोस रूप ले लेगा। कहा जाता है, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ अगर संख्या का एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? इस तरह के कई सवाल भी खड़े होंगे। ओबीसी और दलितों में ही बहुत सारी छोटी जातियां हैं, उनका कौन ध्यान रखेगा? बड़ी संख्या वाली जातियां आरक्षण मांगेंगे कि 27 प्रतिशत के अंदर हमें 5 फीसदी आरक्षण दे दो, तो बाकियों का क्या होगा?

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक कुल मिलाकर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 फीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकाल कर बाकी का आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया, लेकिन इसके अलावा ओबीसी आरक्षण का कोई आधार नहीं है। यही वजह है कि कुछ विपक्षी पार्टियां जातिगत जनगणना के पक्ष में खुल कर बोल रही हैं।

You may also like

MERA DDDD DDD DD