Uttarakhand

विनाश के संकेत देता विकास

सवाल उठ रहे हैं कि आखिर बार-बार उत्तराखण्ड में इस तरह के हादसे क्यों हो रहे हैं? क्या यह पर्यावरण से छेड़छाड़ का नतीजा है या काम में लापरवाही का? क्या इसी तरह का विकास पहाड़ चाहता है जिससे नदियों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। कई क्षेत्रों में भू-धंसाव, मकानों में दरारें आना, पहाड़ों का कटाव, नदियों में बढ़ता अवैध खनन, चमोली में हाइड्रो पावर प्लांट के नाम पर ऋषिगंगा में 2016 में आई बाढ़ या जोशीमठ में एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही टनल हो या फिर सिलक्यारा में बन रही सुरंग? ऐसे सवालों के जवाब न तो राज्य सरकार दे पा रही है, न ही केंद्र सरकार


मजदूरों की रेसक्यू में जुटे इंजीनियर-एक्सपर्ट

पहाड़ों का सीना छलनी कर लिखी जा रही विकास की इबादत अब मनुष्य जीवन पर भारी पड़ने लगी है। दरकते पहाड़ विकास के नाम पर अब विनाश लीला कर रहे हैं। दरकते पहाड़ों के साथ-साथ जिंदगियां भी तबाह हो रही हैं। प्रकृति व मनुष्य के बीच का ये संघर्ष सदियों से चला आ रहा है। जब-जब मनुष्य ने अपनी हदों को पार किया है प्रकृति ने उसको बौनेपन का अहसास करवाया है। आज भी करवा रही है। लेकिन मनुष्य है कि जान कर भी अनजान बना बैठा है। विद्युत परियोजनाओं के नाम पर ब्लास्टिंग, टनल, खनन का ये परिणाम है जिसने पहाड़ों को खोखला कर दिया है, रही-सही कसर बेतरतीब निर्माण ने निकाल दी है।

देश को पालने वाली नदियों में से अधिकतर का उदगम ही हिमालय से होता है। जहां विकास के नाम पर छोटे-बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाए गए। बिना सोचे समझे सरकारों ने इन्हें लगाने की अनुमति दे दी। जो नियम-कानूनों को ताक पर रखकर पहाड़ों का दोहन कर रहे हैं। ये पहाड़ों की नींव को खोखला कर चुके हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। मानसून के समय भारी बारिश के साथ पहाड़ों से पत्थरों की बरसात देखने को मिलती है।
जिस तरह से उत्तराखण्ड के पहाड़ों में रेलवे टनल के निर्माण के लिए तय क्षमता से अधिक मात्रा में ब्लास्ट करने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे ये पहाड़ और कमजोर हो गए हैं। इतना ही नहीं इसी साल जोशीमठ में भी भू-धंसाव और घरों में दरारें आने की घटना हुई और अभी भी जोशीमठ में स्थिति सामान्य नहीं है। वहीं अब बीते 12 नवंबर की सुबह यमुनोत्री राजमार्ग में बन रही सुरंग में मलबा आ जाने से दर्जनों मजदूर अभी तक उसके अंदर फंसे हुए हैं। तब से इन लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन अभी तक सफलता हाथ नहीं लग पाई है। हालांकि कहा जा रहा है की सभी मजदूर सुरक्षित हैं लेकिन उनके परिजनों की उम्मीद भी समय के साथ-साथ टूटती जा रही है।

ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि आखिर बार-बार उत्तराखण्ड में इस तरह के हादसे क्यों हो रहे हैं? क्या यह पर्यावरण से छेड़छाड़ का नतीजा है या काम में लापरवाही का? सवाल अभी भी यही है कि क्या इसी तरह का विकास पहाड़ चाहता है जिससे नदियों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है, कई पहाड़ी क्षेत्रों में भू-धंसाव, दरारें आना, पहाड़ों का कटाव, नदियों में बढ़ता अवैध खनन, चमोली में हाइड्रो पावर प्लांट के नाम पर ऋषिगंगा में 2016 में आई बाढ़ हो या जोशीमठ में एनटीपीसी के द्वारा बनाई जा रही टनल हो या फिर सिलक्यारा में बन रही सुरंग? ऐसे सवालों के जवाब न तो राज्य सरकार दे पा रही है न ही केंद्र सरकार। गौरतलब है कि चारधाम यात्रा मार्ग जो यमुनोत्री के लिए जा रहा है उसी कार्य के लिए उत्तरकाशी के सिलक्यारा में जहां सुरंग का निर्माण चल रहा है वहां 12 नवंबर की सुबह सुरंग में अचानक से मलबा आ गया।

बताया जा रहा है कि इस सुरंग में 41 लोग फंसे हुए हैं। पिछले दो हफ्तों से उनको बाहर निकालने और सुरंग को साफ करने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन अभी तक इन मजदूरों को बाहर नहीं निकाला जा सका है। निर्माण कंपनी एनएचआईडीसीएल के अनुसार टनल में फंसे मजदूरों में दो उत्तराखण्ड, एक हिमाचल प्रदेश, चार बिहार, तीन पश्चिम बंगाल, आठ उत्तर प्रदेश, पांच उड़ीसा, दो असम और सोलह झारखंड के हैं। टनल में फंसे मजदूरों को निकालने के लिए एनएचआईडीसीएल, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, आईटीबीपी, बीआरओ के लोग लगातार काम कर रहे हैं और अब हाई पावर आगर ड्रिलिंग मशीन से भी कोशिश की जा रही है।
इस हादसे को लेकर विशेषज्ञों का कहना है कि यहां जो हिमालय का क्षेत्र है वो बहुत ही कमजोर है और यहां लगातार इस तरह के हादसे होते रहे हैं। इसके बावजूद वहां की भौगोलिक स्थिति को बगैर ध्यान में रखे काम किए जा रहे हैं जिसके लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल होता है। इसलिए यहां हादसे होना स्वाभाविक है।

दो साल पहले चमोली का हादसा हुआ और इस साल चार धाम यात्रा शुरू होने से पहले जोशीमठ में जमीन धंसने की घटनाओं के साथ ही उत्तराखण्ड के कई हिस्सों से लैंडस्लाइड की खबरें लगातार आती रहती हैं। ऐसे में निर्माण कार्यों का होना ही हादसों की मुख्य वजह बताई जा रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पर्यावरण से लगातार छेड़छाड़ हो रही है और बड़ी मात्रा में हो रही है। जिन नियमों के तहत काम होना चाहिए उसको दरकिनार करके ये सब काम किया जा रहा है। इस चार धाम प्रोजेक्ट में पर्यावरण के मानकों का पालन न करना पड़े और पूरे प्रोजेक्ट में जो पर्यावरण पर प्रभाव का आकलन है, उसका अध्ययन न करना पड़े, इसके लिए सरकार तमाम जुगाड़ लगा रही है। इससे बचने के लिए पूरे चारधाम यात्रा प्रोजेक्ट को 53 भागों में बांट दिया गया। जबकि 825 किलोमीटर का यह एक ही प्रोजेक्ट है और उसको 53 छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर किया जा रहा है। ताकि पर्यावरण के मानकों का पालन न करना पड़े।

यह सब जगह हो रहा है। चाहे वह बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं हों या रेलवे की कोई परियोजना बन रही हो। इन सब में भी इसी तरह काम हो रहा है। यहां पर भी पर्यावरण के मानकों का पालन नहीं किया जा रहा है। जमीन के नीचे यहां विस्फोट न हो इसके लिए सख्त मानक हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश हैं कि निर्धारित मानकों के अनुसार ही कार्य हो। उसके बावजूद विस्फोटकों से सुरंगों का निर्माण होता है। जब जोशीमठ में जमीन धंसी थी, उसके बाद ही सरकार ने कहा था कि अब सख्ती का पालन करने के निर्देश दिए गए हैं। तो क्या मानक है यहां पर? क्या सड़कों और सुरंगों के निर्माण में उन मानकों का पालन नहीं हो रहा है?

मानकों के अनुसार टनल बोरिंग मशीन का इस्तेमाल करते हुए सुरंगों का निर्माण किया जाना चाहिए। लेकिन ये बहुत खर्चीला पड़ता है। ऐसे में विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें भी कहा गया है कि कंट्रोल ब्लास्टिंग किया जाए। अब कंट्रोल ब्लास्टिंग का तो कोई मतलब ही नहीं बनता है। क्योंकि उसमें धमाका होता है, जिससे वहां आस-पास के जो पत्थर और बोल्डर हैं वो हिलते हैं। यहां एक के ऊपर एक चट्टानें हैं। जब भी ब्लास्ट किया जाता है तो बाकी चट्टानों को हिला देते हैं। उससे पानी का रिसाव होने लगता है। अभी यहां रेलवे का प्रोजेक्ट चल रहा है। वह अभी तक पूरा नहीं हुआ है। गांव वाले शिकायत कर रहे हैं कि हमारे यहां जो जल स्रोत हैं वो सूखने लगे हैं। जमीन का पानी नीचे बैठने लगा है। दरारें पड़ने लगी हैं। जोशीमठ में जो हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट है एनटीपीसी का तपोवन विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट, उसमें पिछले कई वर्षों से लगातार पानी निकल रहा है। यहां के पानी के स्रोतों पर इसका असर पड़ा। यह केवल उत्तराखण्ड का मसला नहीं है बल्कि पूरे हिमालय क्षेत्र में जिस तरह पर्यावरण के मानकों की अनदेखी करके भारी निर्माण कार्य हो रहे हैं, वहां ऐसे हादसे देखने में आ रहे हैं।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण साल 2013 में देखने को मिला था। जब 16-17 जून को केदारनाथ धाम में चौराबाड़ी झील में बादल फटने से भारी मलबा और विशाल बोल्डर ने तबाही ला दी थी। शांत केदार घाटी में अचानक मचे कोलाहल ने सबको चौंका दिया था। किसी ने सोचा नहीं था कि मंदाकिनी नदी विकराल रूप लेकर इस कदर तबाही मचा देगी। इस हादसे में दस हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। वहीं 11 हजार 91 से ज्यादा मवेशी बाढ़ में बहकर और मलबे में दबकर मर गए थे। 1 हजार 309 हेक्टेयर भूमि भी तबाह हो गई थी। इस आपदा में 2 हजार 141 भवन, 100 से ज्यादा बड़े और छोटे होटल, 9 नेशनल हाईवे, 2 हजार 385 सड़कें, 86 मोटर पुल, 172 बड़े-छोटे पुल भी बुरी तरह तबाह हो गए थे। बाबजूद इसके हिमालय क्षेत्र में जिस तरह पर्यावरण के मानकों की अनदेखी की जा रही है वो किसी प्रलय को दावत देने जैसी है।

 

नहीं लिया जोशीमठ से सबक

  •    प्रो. अजय सिंह रावत
    पर्यावरणविद्

यह संवेदनशील इलाका है। यहां पर न एनवायरमेंटल इंपैक्ट एसेसमेंट किया जाता है जिसको हम कहते हैं ईआईए और न एनवायरमेंटल इंपैक्ट स्टेटमेंट देते हैं। दूसरी जो स्थानीय जनता है एनवायरमेंटल इंपैक्ट स्टेटमेंट जब आएगा तो स्थानीय जनता को भी अधिकार होता है कि वह आपसे प्रश्न करें। स्थानीय जनता को पता भी नहीं होता है। यहां पर भी यही हुआ है। जो सेफ्टी मेजर्स हैं वैसा बनाया नहीं गया और अचानक अब जब हादसा हुआ तब लोग इतने सीरियस हो गए हैं। दूसरा यह इसलिए भी जरूरी है जैसा गडकरी जी ने भी कहा है कि मैं पहाड़ को अभी तक चट्टान समझता था लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि पहाड़ों में जमीन भुरभुरी भी होती है और यह जो टनल की खुदाई हो रही है यह सब भुरभुरी जमीन में हो रही है। इन्होंने जोशीमठ से भी कोई सबक नहीं लिया और अब ये नैनीताल में रोपवे बना रहे हैं, हनुमान वाटिका से रानी बाग तक। सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। यह धंस रहा है और इसे लगा हुआ है बलिया घाटी और बलिया घाटी को लेकर पिछले 30 वर्षों से मैंने एक जनहित याचिका दायर की थी 1993 में। इसका निर्णय 1995 में लिया गया। उसमें यह कहा गया था कि बलिया घाटी और वॉर फोटिंग पर कार्य होना चाहिए और 1995 के बाद से ये आ गया है 2023। सोचिए कि पिछले 30 साल से वहां लगातार भूस्खलन हो रहा है। साल में कम से कम 250दृ300 लोगों को वहां से विस्थापित किया जाता है और फिर वह वापस आते हैं। लास्ट ईयर जिन लोगों को विस्थापित किया उनसे कहा गया कि हम 3 से 4 हजार इसका किराया देंगे। फिर उन गरीब लोगों ने किराए पर मकान लिया लेकिन उसका मुआवजा उन्हें आज तक नहीं दिया गया है तो इस तरह की जो योजनाएं हैं वो किसी बड़े हादसे को दावत देने जैसे हैं।

इसी तरह की प्लानिंग का एक उदाहरण यह भी है कि अभी सरकार ने कहा कि नैनीताल में हम सी प्लेन लैंड करवाएंगे जिसका विरोध करते हुए मैंने पत्र भी लिखा था। पत्र में मैंने पूछा था कि जहां सी प्लेन लैंड करता है उसका लैंडिंग एरिया लगभग 1020 मीटर होता है और चौड़ाई होगी 320 मी तो अगर आप सी प्लेन लैंड करेंगे तो 95 प्रतिशत तो लैंडिंग एरिया में चला जाएगा। इसके अलावा सी प्लेन के लिए आपको इनकरेज एरिया चाहिए। बोरिंग एरिया चाहिए, ब्लॉकिंग एरिया चाहिए प्लेन के स्टाफ के लिए फैसिलिटी चाहिए, जो पैसेंजर आएंगे उनके लिए फैसेलिटीज चाहिए। दो तरह की जेटिस चाहिए एक परमानेंट जट्टी और एक फ्लोटिंग जेटी इसके अलावा रिफ्यूलिंग स्टेशन तो जब यह सब करेंगे तो जगह तो बचेगी ही नहीं तो जहां अभी लोग नौकरी करते हैं नैनीताल में वे कहां जाएंगे जिसकी वजह से कम से कम 1000 गरीब परिवार पल रहे हैैं। वह लोग कहां जाएंगे। यह सोचा नहीं गया और सी प्लेन के लैंड करने की बात करते हैं। तो बिना सोचे-समझे योजनाएं बना दी जाती हैं कम से कम जनता को या जो इस विषय के एक्सपर्ट हैं उनसे भी राय लेनी चाहिए।
उत्तरकाशी में जब इतना नुकसान नुक्सान हो गया है तब हल्ला-गुल्ला हो रहा है। इतने दिनों से मजदूर नीचे पड़े हैं। उनके परिवार वालों पर क्या बीत रही होगी, सरकार का कितना खर्च हो रहा है। अगर हमारे प्रधानमंत्री इतने सक्रिय नहीं होते तो लोगों को इतनी मदद मिलनी मुश्किल हो जाती। हमारे यहां की प्लानिंग बहुत गड़बड़ है जो अंग्रेजों के समय में बहुत अच्छी होती थी। मैंने आपदा प्रभावित क्षेत्रों में काम किया है। 1998 में सबसे खतरनाक आपदा आई थी पूर्वी बिहार में। जब मैंने इसका अध्ययन किया तब मैंने देखा कि अंग्रेजों ने जानवर के व्यवहार को समझा जो बाढ़ आने से पहले उनके व्यवहार में परिवर्तन आता है। तो बाहर से आए हुए लोगों ने भारत के इस एनिमल बिहेवियर को समझा और उस पर स्टडी की जो यहां के लोगों ने नहीं की थी। अध्ययन के दौरान मैंने यह भी जाना की 1973 में एक नेचुरल कैलेमिटीज मैनुअल और इस मैन्युअल में केवल फ्लड्स को आपदा माना गया तो हमारे यहां अध्ययन की बहुत कमी है।

नंबर एक किसी भी तरीके से सुरंग में फंसे मजदूर सुरक्षित बाहर निकल जाएं। नंबर दो महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी सरकार, हमारे इंजीनियर, हमारे योजनाकार इससे सीखें और भविष्य में ऐसी घटनाओं में लोग न फंसे। बिना पड़ताल, बिना बायलॉजिकल, बिना चट्टानों के सर्वे किए डॉ बल्दिया के खिलाफ गए सब। यह उसी का दुष्परिणाम है।
डॉ. शेखर पाठक, इतिहासकार

 

 

मानव जनित आपदा है सुरंगें

  •       सुरेश भाई
    लेखक रक्षासूत्र आंदोलन के प्रेरक हैं।

हमारा यह कहना है कि सिलक्यारा जो टनल है वो ऑल वेदर रोड के नाम पर बन रही है। जिसकी लागत करीब 900 करोड़ के लगभग है। इसका विरोध निर्माण से पहले ही बडकोट में लोगों ने करना शुरू कर दिया था आज से 3-4 साल पहले जिसमें हमको भी बुलाया गया था। लेकिन हुआ यूं की विरोध करने वाले जो उस समय लोग थे वो स्थानीय भाजपा के कार्यकर्ता थे। पहले-पहले तो उन्होंने सवाल उठाया कि इसका जो मलवा है उससे हमारे खेत और यमुना नदी प्रभावित होगी। लोगों का ये कहना था कि इस टनल की जरूरत ही नहीं है लेकिन कुछ लोग कहते थे कि 29 किलोमीटर कम हो जाएगा यमनोत्री जाना। तो यह दोनों तरह की बातें सामने आती हैं जब कोई भी विकास आता है। लेकिन हमारा अनुभव बताता है जो सभी कह रहे हैं कि मानसून के महीनों में 2023 में जो आपदा आई खासकर हिमाचल, उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम में उस आपदा में जो लोग प्रभावित हुए उनमें सरकार और पर्यावरण संगठनों से जुड़े हुए लोग तो है ही, सबने कहा कि जो बड़े निर्माण कार्य हिमालय क्षेत्र में हो रहे हैं उसी के बाद इतने बड़े पैमाने पर हिमालय दरक रहा है। ये सबने कहा और खासतौर पर जब हमने नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया था सन् 2008 में उसमें हम लोगों ने अध्ययन किया था कि करीब 558 बांधों की सूचना हमारे सामने थी।

ऑल ओवर रोड की सूचना तो उसके बाद आई। 2016 के बाद जब प्रधानमंत्री ने कहा कि हम ऑल वेदर बना रहे हैं तो इसमें जो बनने वाले टनल हैं उसके कारण करीब 6,7 हजार गांव प्रभावित होने वाले हैं कुछ गांव तो प्रभावित हो गए हैं। अब आप देखिए कि ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक जो रेल लाईन बन रही है उसके ऊपर ही 30 गांव के घरों में दरारें आ गई हैं। उनकी कोई सुन नहीं रहा है। वहां पौड़ी के डीएम ने अध्ययन किया था अभी आपदा के दौरान बरसात के समय में। उसकी रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। सिलक्यारा टनल जो है आज नहीं, बल्कि अंदर ही अंदर 3-4 बार टूट चुकी है न जाने उसके अंदर क्या-क्या हादसा हुआ है वो तो प्रकाश में नहीं आया लेकिन होता क्या है कि जो हमने टिहरी बांध के दौरान देखा जब हम संुदरलाल बहुगुणा के साथ विरोध करते थे तो उस समय भी सैकड़ों मजदूर टिहरी बांध टनल बनाते समय मर गए थे उसकी सूचना भी बाहर नहीं आती थी। उसके बाद उत्तरकाशी में हमने देखा कि वहां पर जो मनेरी भाली फेस-2 इसी टनल में 2005 में करीब दो दर्जन मजदूर फंस गए थे। फिर 2021 में जो ऋषि गंगा में टनल में भी 206 लोग मर गए थे। देखो असल में जो ये टनल हैं इनका निर्माण विस्फोटों के द्वारा हो रहा है। बड़े-बड़े विस्फोटों द्वारा धरती को अंदर से तोड़ते हैं ताकि फटाफट उसका रास्ता खुल जाए और जैसे-तैसे मलवा निकाला जाए।

लेकिन संवेदनशीलता उसकी कम नहीं होती हैं। हम सब महसूस कर रहे हैं कि उत्तराखण्ड, हिमालय में पिछले 30 सालों में केवल उत्तरकाशी का मेरे पास आंकड़ा है कि 70 बार यहां की धरती हिल चुकी है और 6 ़6 रिचर्ड स्केल से कम होते हुए 5 रिचर्ड स्केल तक के भूकंप आ गए हैं। तो धरती तो कांप रही है। जो दरारें हैं जो डॉ ़ खड़क सिंह बल्दिया ने कभी किसी जमाने में सबके सामने विभिन्न किताबांे के माध्यम से कहा कि धरती के अंदर जो उपभ्रंश हैं जो दरारें आ रही हैं, वो 10-15 किलोमीटर तक नकारात्मक सक्रिय हो रही हैं। अब उन सक्रिय दरारों के ऊपर विस्फोटों से काम होगा। टनल बनेगी तो हिमालय बहुत नया पहाड़ है संवेदनशील है। यहां पर बिल्कुल भी हिमालय की स्थिति को देखकर टनल आधारित जो परियोजना है ये बिल्कुल भी हिमालय के लिए सुरक्षित नहीं हैं। ये जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देगा। सिलक्यारा में कितना बड़ा नाटक हो रहा है कल शाम यहां सीएम आए हुए हैं मैं यहीं पास के गांव में रहता हूं।

यहां सीएम साहब पहुंचे हुए हैं कि शायद टनल में फंसे मजदूरों को आज सुबह बाहर निकल जाना था। मुझे दुख है इस बात का कि जिस मलवे को 3 दिन में खाली किया जा सकता था उसे दो हफ्ते पूरे होने जा रहे हैं। मैं स्थानीय व्यक्ति होने के नाते बता रहा हूं कि यदि किनारे से वे मलवा खाली करते जाते तो टनल में फंसे मजदूरों को जल्दी बाहर निकालाजा सकता था। वो किनारे-किनारे से चार मीटर चौड़े रास्ते से भी तो मजदूरों तक पहुंच जाते क्योंकि टनल तो बहुत चौड़ी है तो अब सवाल यह है कि विज्ञान या तकनीक के नाम पर भी विज्ञान की सत्यता भी हिमालय की संवेदनशीलता के सामने बौनी पड़ रही है और हम कह सकते हैं कि मनुष्य के द्वारा बनाई गई तकनीक प्रकृति के सामने कुछ भी नहीं है। देश-विदेश से कई वैज्ञानिक व मशीनें पहुंच गई हैं लेकिन उसके बाद भी इतने दिनों से लोग अंदर फंसे हुए हैं। बाहर निकालने का जो तरीका है वो भी असंवेदनशील है। इससे स्पष्ट है कि ये सुरंगें मानव जनित आपदा है।

You may also like

MERA DDDD DDD DD