Editorial

बेनकाब चेहरे, दाग बड़े गहरे

आम चुनाव, 2019 कई मायनों में भविष्य के भारत की नींव को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ये चुनाव तय करेगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अधूरा पड़ा सपना सच होगा या फिर सर्वधर्म सम्भाव की जिस विचारधारा को नींव का पत्थर बना इस मुल्क को एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने की यात्रा सत्तर बरस पहले शुरू हुई थी, वह यात्रा जारी रहेगी। मोदी सरकार के पिछले पांच बरस का रिपोर्ट कॉर्ड किसी एक भी क्षेत्र में अव्वल तो छोड़िए न्यूनतम अंक तक नहीं दर्शा पा रहा है इसलिए संघ और उसकी कोख से निकली भाजपा की पूरी चुनावी रणनीति उग्र राष्ट्रवाद के चारों तरफ केंद्रित हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब बुनियादी मुद्दों पर एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं। नोटबंदी, जीएसटी और कालाधन का जिक्र करना मानो भाजपा के लिए अपराध सरीखा हो चला है। मोदी का पूरा जोर पाकिस्तान के नाम पर एक ऐसा हव्वा खड़ा करने पर है जिससे भयभीत हो, राष्ट्र प्रेम से ओत -प्रोत हो मतदाता अपने सभी दुख-दर्द भूल, राष्ट्र के लिए बलिदान को सर्वोपरि मान नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी को एक बार फिर से प्रधानमंत्री बना डालें। ऐसा करना दरअसल मोदी और भाजपा की मजबूरी है। इस मजबूरी के मूल में 2014 के आम चुनाव में किए गए वे वादे हैं जिनको पूरा कर पाने में मोदी सरकार विफल रही है। वादा था विदेशों में जमा खरबों के कालेधन की तुरंत मुल्क में वापसी कराने का, वादा था दो करोड़ रोजगार सृजन का, वादा था, किसानों को उनकी पैदावार की सही कीमत दिलवाने का, वादा था सरकारी तंत्र में पसरे भ्रष्टाचार के समूल नाश का, वादा था भगवान राम के भव्य मंदिर निर्माण का, वादा था कश्मीर की समस्या के स्थाई समाधान का, वादा था समता मूलक समाज के निर्माण का। वादों का एक ऐसा पैकेज था जिसकी ऊंचाई के सामने हिमालय बौना लगने लगा था। माशाअल्लाह क्या खूब निकाह मोदी जी संग इस मुल्क की जनता ने किया। दहेज में अपना पूरा विश्वास दे डाला। हनीमून भी खासा लंबा चला, कुछेक के लिए अभी भी हनीमून पीरियड जारी है। लेकिन मोदी गुजराती हैं, वे जानते हैं कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती, हां उसकी चमक कुछ समय तक सोना होने का भ्रम जरूर देती है। वे यह भी भलीभांति समझते हैं कि नई चीज, वह भी बेहतर पैकेजिंग वाली, सभी को सुहाती है। इसीलिए इस बार वे वादों के अपने पैकेज को डस्टबिन में डाल राष्ट्रवाद का नया आकर्षक पैकेज जनता के सामने पेश कर रहे हैं। यह पैकेज किस हद तक जनता जनार्दन को लुभाने में सफल होगा यह तो चुनाव नतीजों के आने पर ही पता चलेगा, अपनी समझ से इस पैकेज का प्रचार-प्रसार तो एक सोची-समझी रणनीति के जरिए जिसे एग्रेसिव मार्केटिंग कहना उचित होगा, टीम मोदी कर रही है। प्रोडक्ट की डिमांड अपेक्षा अनुसार बढ़ नहीं रही है। यानी इस प्रोडक्ट का असर 2014 के वादों वाले प्रोडक्ट की बनिस्पत कमतर है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की मार्केट है जहां चर्चा तो पुलवामा हमले के बाद मोदी जी के अद्भुत पराक्रम की जरूर है, जनता जनार्दन वायुसेना के पाकिस्तान भीतर घुसकर आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद करने को सराह रही है लेकिन वह यह भी कहने से नहीं चूक रही कि दशकों पहले हमारी सेना ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर, उसके नब्बे हजार सैनिकों से समर्पण करवा अपनी शूरवीरता और क्षमता का लोहा मनवा लिया था। बड़ी तादात में यह पूछने वाले वादे भी हैं कि जिस अंतरिक्ष में मिसाइल से मार करने की क्षमता को मोदी जी अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि मान स्वयं के मुंह मियां मिट्ठू बन डोल रहे हैं, उस क्षमता तक मुल्क को पहुंचाने वाली संस्था ‘डीआरडीओ’ और ‘इसरो’ की नींव रखने वाले देश के प्रथम प्रधानमंत्री के विजन को मोदी भला क्यों नकारने में तुले हैं। उत्तर प्रदेश में इन चुनावों में जनता उन वादों को याद करते हुए ऐसे असहज प्रश्न भाजपा नेताओं से करती नजर आ रही है जिनका उत्तर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए भाजपा सांसदों और विधायकों के पास नहीं है। वे राष्ट्रवाद की डपली जैसे ही बजाना शुरू करते हैं जनता खेती को बर्बाद कर रहे आवारा पशुओं का मुद्दा उठा देती है। 2014, में अस्सी लोकसभा सीटों में से 73 सीटें जीतने वाली भाजपा इस प्रदेश में भारी संकट का सामना कर रही है। अपना अनुमान है कि कम से कम पचास सीटों का नुकसान अकेले उत्तर प्रदेश से ही होने जा रहा है। गुजरात और राजस्थान, जहां की 51 सीटों पर भाजपा को शत-प्रतिशत जीत, 2014 में मिली थी, इस बार इन दोनों राज्यों में पंद्रह से बीस सीट का नुकसान होना तय है। माना जा रहा था, है, कि पूर्वोत्तर के राज्यों से। भाजपा इस नुकसान की भरपाई कर लेगी, वह भी आसानी से। हालात लेकिन बदलने लगे हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा जमीनी तौर अपनी पकड़ मजबूत कर पाने में सफल रही है। उड़ीसा में भी पार्टी का जनाधार बढ़ा है। पूर्वोत्तर के राज्यों में तो भगवा पूरी तरह छा चुका है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और पूर्वोत्तर के राज्यों की कुल लोकसभा सीट 88 हैं। भाजपा को यहां से बड़ी उम्मीद जरूर है लेकिन मंजर बदलने लगा है। एनआरसी का मुद्दा पहले से ही गर्माया हुआ है, ऐसे में भाजपा को पूर्वोत्तर में कांग्रेस, बंगाल में ममता तो उड़ीसा में नवीन पटनायक कड़ी टक्कर दे रहे हैं। तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पुडुच्चेरी, कर्नाटक, केरल और लक्षद्वीप में तो भाजपा का नाम लेने वाला भी कोई नहीं। यहां से लोकसभा की 131 सीटें हैं। मुकाबला मुख्यतः कांग्रेस गठबंधन और क्षत्रपों के बीच है। पूर्वोत्तर, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और दक्षिण भारत की कुल 229 सीटों में कुल मिलाकर भाजपा को अधिकतम चालीस से पैंतालीस सीटें मिल सकती हैं। मोदी और शाह इन आंकड़ों को खूब समझ रहे हैं इसलिए उनका जोर राष्ट्रवाद के पैकेज की जबरदस्त मार्केटिंग पर है। यही कारण है कि मैं इस चुनाव को भविष्य के भारत से जोड़कर देख रहा हूं। भाजपा के भीतर जैसे -जैसे मतदान की तारीख नजदीक आ रही है, बेचैनी और घबराहट बढ़ने लगी है। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन से खौफ खाए योगी महाराज को अब अपने प्रतिबद्ध ब्राह्मण मतों की चिंता प्रियंका गांधी के चलते सताने लगी है। अपने सहयोगी दलों को भाव ना देने वाले योगी इतने नर्वस हैं कि सपा-बसपा गठबंधन से नाता तोड़ने वाले निषाद पार्टी के नेता तत्काल लपक लिए गए। अब यह दीगर बात है कि इस पार्टी की हैसियत और इसके नेता संजय निषाद का जनाधार शून्य है। रही बात कांग्रेस की तो उसके लिए भी यह चुनाव वजूद बचाने का है। कांग्रेस का घोषणा पत्र इशारा कर रहा है कि पार्टी अपने कोर वोट बैंक को साधने की नीयत से बड़े कदम लेने की तरफ बढ़ चुकी है। राजद्रोह कानून को समाप्त करने की बात आज के माहौल में यदि कांग्रेस करने का साहस जुटा रही है तो इसके पीछे की मंशा को समझा जाना जरूरी है। ‘हम निभायेंगे’ शीर्षक से जारी कांग्रेस का घोषणा पत्र दरअसल उन वोटों को साधने का प्रयास है जो भाजपा की धर्म आधारित राजनीति से, उग्र राष्ट्रवाद से खौफजदा हैं। कांग्रेस भाजपा नेतृत्व द्वारा भुला दिए गए वायदों पर भी खेलना चाह रही है। राहुल गांधी की न्यून्तम आय योजना का उद्देश्य भाजपा नेतृत्व के पंद्रह लाख हर गरीब को दिए जाने वाले उस जुमले की काट है जिसे चुनाव जीतने के बाद भाजपा अध्यक्ष ने स्वयं हवा में उड़ा दिया था। मुझे लेकिन आशंका है, बड़ी आशंका है कि कांग्रेस ने भी अपने इस ‘हम निभायेंगे’ में जो वादे कर डाले हैं, उन्हें निभाना सरल नहीं होगा। कैसे सरकार प्रति वर्ष 22 लाख नौकरियां दे सकेगी जबकि रोजगार सृजन के स्रोत सरकार के पास सीमित हैं। जो हालात पूर्वोत्तर के राज्य में हैं, ‘आफ्सफा’ हटाना आत्मघाती भी हो सकता है। यह भी समझ से परे है कि कैसे 20 फीसदी गरीबी रेखा में रह रहे परिवारों को प्रतिमाह 12 हजार की धनराशि सरकार दे पाएगी।
बहरहाल इन चुनावी वादों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को बचाए और बनाए रखना। अपना निश्चित मानना है कि उग्र राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की अवधारणा को यदि मजबूती मिलती है तो यह देशहित में नहीं होगा। जो कुछ इन चुनावों में चल रहा है उसे देख-सुन अटल बिहारी की कविता का स्मरण हो रहा है। कवि अटल कहते हैं :
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नजर बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ में छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

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