कृषि एवं उद्यान विभाग महाघोटाला-3
भ्रष्टाचार और घोटाले के जो बीज उत्तर प्रदेश के समय उद्यान विभाग में बोए गए थे वह अब उत्तराखण्ड में एक बड़े वट वृक्ष का आकार ले चुके हैं। जिसकी छाया में फर्जीवाड़ा और फर्जी आंकड़ों की फसल बोई जा रही है। अविभाजित उत्तर प्रदेश से लेकर अब तक कई बार ऐसे मामलों की जांच तो हुई लेकिन कार्यवाही नहीं। इससे उद्यान विभाग में भ्रष्टाचार को फलने- फूलने का अवसर मिलता रहा
वर्ष 2003 जब उत्तराखण्ड राज्य अपने जन्म के तीसरे वर्ष में पहुंचा था तब उद्यान विभाग में फर्जी आंकड़ों के खेल की पहली बार पोल खुली थी। विभाग के ही एक अधिकारी द्वारा सचिवालय में हुई एक विभागीय बैठक के दौरान यह मामला उजागर किया गया था। जिसमें यह सामने आया कि प्रदेश में उद्यान विभाग द्वारा फल उत्पादन और क्षेत्रफल के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया जबकि हकीकत में वे सभी आंकड़े फर्जी पाए गए।
11 नवंबर 2003 को उद्यान के प्रमुख सचिव विभापुरी दास की अध्यक्षता में विभाग के कार्यक्रमों की समीक्षा बैठक हुई। बैठक में सरकार द्वारा किसानों और बागवानों के उत्पादनों के लिए बेहतर बाजार उपलब्ध करवाने के लिए प्रदेश के हर जिले में तीन-तीन फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाए जाने की योजना पर बात की गई। साथ ही यह भी चर्चा की गई कि इससे किसानों को किस तरह फायदा मिले। बैठक में टिहरी जिले के तत्कालीन जिला उद्यान अधिकारी डॉ. राजेद्र प्रसाद कुकसाल भी मौजूद थे जो इस बात पर हंस दिए। इस पर विभापुरी दास ने डॉ. कुकसाल से पूछा आप बैठक में हंसे क्यों? तब डॉ. कुकसाल ने क्षमा मांगते हुए कहा कि मैडम तीन फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने का कोई फायदा ही नहीं है। तीनों ही कुछ ही समय में बंद हो जाएगी और यह केवल सरकारी धन का ही दुरुपयोग माना जाएगा। तब विभापुरी दास ने पूछा क्यों बंद होगी? क्या किसानों को इसका फायदा नहीं होगा? डॉ. राजेंद्र प्रसाद कुकसाल ने कहा ‘मैडम तीन यूनिट के लिए नियमित फलों की आपूर्ति नहीं होगी क्योंकि प्रदेश में फलों का उत्पादन पूरी तरह से घट गया है और एक जिले में एक फूड प्रोसेसिंग यूनिट को ही आपूर्ति नहीं हो पाएगी तो तीन-तीन यूनिटों के लिए फल कहां से आएंगे?
इस पर विभापुरी दास ने राज्य में फल उत्पादन के आंकड़ों की फाइल देखते हुए कहा ‘राज्य में तो फलांे का उत्पादन बहुत बढ़ा है। तब राजेंद्र प्रसाद कुकसाल ने भरी बैठक में ही यह कहकर सनसनी मचा दी कि यह सभी आंकड़े कागजों में हैं और कागजों में ही फलों के उद्यान चल रहे हैं जबकि हकीकत में राज्य में फलों का उत्पादन पूरी तरह से घट चुका है।’
प्रमुख सचिव उद्यान समझ गई कि मामला वैसा नहीं है जैसे उनको उद्यान विभाग दिखा रहा है। उन्होंने तत्काल बैठक में ही आदेश दिया कि राज्य के सभी उद्यानों की जांच होगी और इसके लिए एक कमेटी का गठन किया जाएगा। जिसमें राजस्व विभाग को भी शामिल किया जाए जिससे हर गांव में कितने उद्यान हैं? यहां तक कि लीज पर दिए गए सरकारी उड़ान तक में कितने मौजूदा फलो के पेड़ हैं? सभी की गिनती करके एक विस्तृत जांच आख्या उनके सामने प्रस्तुत करने का आदेश दिया।
प्रमुख उद्यान सचिव के इस आदेश के बाद बैठक की कार्यवृत में उल्लेख किया गया कि राज्य में औद्यानिक उपजों के क्षेत्रफल/ उत्पादन के जो कांकड़े प्रस्तुत किए गए हैं वह किस आधार पर हैं? इन सभी का सर्वे कराकर उद्यान अधिकारी 25 नवम्बर 2003 तक उद्यान निदेशक को उपलब्ध कराएंगे और उद्यान निदेशक 30 नवंबर 2003 तक शासन को उपलब्ध कराएंगे।
प्रमुख सचिव उद्यान विभापुरी के आदेश के बाद सभी जिलों में उद्यान क्षेत्रफल और उनके उत्पादन की जांच आरम्भ की गई। उक्त जांच में राजस्व विभाग को शामिल किए जाने से यह फायदा हुआ कि जांच में प्रदेश के वास्तविक फल उत्पादन के आंकड़े सामने आए। जिसमें विभाग द्वारा पूर्व से बताए जा रहे आंकड़ों से बहुत कम उपलब्धता पाई गई। इस सबके बावजूद उद्यान विभाग असली आंकड़ों को जारी करने की बजाय अपने पुराने आंकड़ों को हर वर्ष बढ़ा-चढ़ाकर जारी करता रहा।
हैरत की बात यह है कि उक्त जांच रिपोर्ट को कभी देखने की जरूरत ही नहीं समझी गई। 2003 के बाद कई प्रमुख उद्यान सचिव और कई
निदेशक आए और गए लेकिन किसी नेे उक्त जांच रिपोर्ट की कोई सुध तक नहीं ली। हैरत की बात यह है कि 2007 में सरकार भी बदल गई लेकिन न तो उद्यान सचिव और न ही उद्यान मंत्री ने 2003 में की गई जांच रिपोर्ट को देखने का प्रयास तक किया। इसके चलते विभाग में फर्जीवाड़ा करने के लिए एक तरह से खुली छूट मिलती रही।
विभाग के सूत्रों की मानों तो उक्त जांच रिपोर्ट में राज्य में फलों के अलावा सब्जियों के उत्पादन और क्षेत्रफल के सही और असल आंकड़े थे जिनको अभिाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही उद्यान विभाग फर्जी तरीके से बढ़ा-चढ़ाकर सरकारी कागजो का पेट भरते रहे थे। अगर उस रिपोर्ट पर गम्भीरता से कार्यवाही की जाती तो 2003 में ही उद्यान विभाग पर पूरी तरह से लगाम लग जाती और विभागीय अधिकारियों के करोड़ों के खेल की पोल खुल जाती लेकिन उस पर कानूनी कार्यवाही करने की बजाय उक्त रिपोर्ट को ही दबा दिया गया। यह प्रदेश में फर्जी आंकडों के खेल का प्रमाण था जो राज्य बनने से पूर्व और राज्य बनने के बाद कभी खत्म नहीं हो पाया। हालांकि इस दौरान उद्यान विभाग पर कई बड़े-बड़े घोटाले और सरकारी योजनाओं में धांधली के आरोप लगते रहे हैं। इसके बावजूद राज्य में निरंतर फलों का उत्पादन और उद्यान का क्षेत्रफल के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाते रहे हैं। इस तरह हजारो हेक्टेयर भूमि पर उद्यान स्थापित होने के फर्जी दावों को ही सच माना जाता रहा।
2003 से लेकर आज तक प्रदेश का उद्यान विभाग इसी ढर्रे पर चल रहा है। निरंतर फर्जी आंकड़ों से राज्य में फल उत्पादन की रंगीन तस्वीर बनाकर राज्य सरकार के सामने प्रस्तुत की जाती रही है। वर्ष 2011-12 में उद्यान विभाग द्वारा राज्य में फल उत्पादन के आंकड़े अनुसार 200127 हेक्टेयर भूमि पर फल उत्पादन किया जा रहा है और 802124 मीट्रिक टन फलों का उत्पादन हुआ। हैरत की बात यह है कि उद्यान विभाग अपने फर्जी आंकड़ों को प्रस्तुत करने में यह भी भूल गया कि हिमाचल प्रदेश जो कि देश में फल उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी राज्य है जबकि उत्तराखण्ड हिमाचल के आस-पास भी नहीं है बावजूद इसके उत्तराखण्ड के फल उत्पादन के आंकड़े हिमाचल प्रदेश से 372820 मीट्रिक टन ज्यादा दर्शाए गए। इससे साफ है कि प्रदेश का उद्यान विभाग किस तरह से फल उत्पादन के फर्जी आंकड़े गढ़ कर हकीकत पर पर्दा डालता रहा है।
तीन वर्ष बाद फिर से उद्यान विभाग ने एक और फर्जी आंकड़ेबाजी का करनामा कर उत्तराखण्ड को देश में प्रथम राज्य की श्रेणी में पहुंचा दिया। 2015-16 की विभागीय प्रगति आख्या रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि उत्तराखण्ड राज्य नाशपाती, आडू, पुलम और खुबानी के उत्पादन में देश में प्रथम स्थान पर है। यानी हर राज्य उत्तराखण्ड से कम फल उत्पादन कर रहा है। जबकि जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश इन फलों के उत्पादन में देश में अग्रणी राज्य हैं।
उद्यान विभाग के इन फर्जी आंकड़ों की हकीकत को पलायन आयोग की 2018-19 की रिपोर्ट में सामने लाया गया। आयोग की रिपोर्ट में पौड़ी जिले में महज 4047 हेक्टेयर भूमि में ही उद्यान संचालित होने का उल्लेख किया है जबकि उद्यान विभाग पौड़ी जिले में 20301 हेक्टेयर भूमि पर फलों के उद्यान संचालित होने के आंकड़े देता रहा। हैरत की बात यह है कि महज तीन वर्षों में 16 हजार हेक्टेयर उद्यान पालयन आयोग की रिपोर्ट में गायब हो गए जबकि उद्यान विभाग इनके नाम पर योजनाएं चलाता रहा। विभाग ने पलायन आयोग की रिपोर्ट के बाद भी अपने फजी आंकड़ों का खेल जारी रखा। वर्ष 2019-20 में पौड़ी जिले में फल उत्पादन क्षेत्रफल बढ़ाते हुए 21647 हेक्टेयर के आंकड़े जारी कर दिए। दिलचस्प बात यह है कि 2018-19 में 20301 हेक्टेयर दर्शाए गए थे जबकि 2019-20 में बढ़ाकर 21647 कर दिए गए जो कि पिछले वर्ष से 1346 हेक्टेयर ज्यादा दर्शाए गए।
इसी तरह से टिहरी जिले में 2015-16 में सेब का उत्पादन क्षेत्रफल उद्यान विभाग द्वारा 3820 हेक्टेयर बताया गया वह पलायन आयोग की रिपोर्ट में 2017-18 में घटकर 853 हेक्टेयर रह गया। महज एक वर्ष में ही टिहरी जिले से सेब का उत्पादन क्षेत्रफल 2967 हेक्टेयर रहा गया। यही नहीं बल्कि आयोग की रिपोर्ट में अन्य फलों जिसमें नाशपाती का उत्पादन क्षेत्रफल 1815 से घटकर 240, पुलम का 2627 से घटकर 240, खुबानी का 1498 से घटकर 162 तथा अखरोट का 4833 से घटकर 422 हेक्टेयर होने का उल्लेख किया है। मजेदार बात यह है कि उद्यान विभाग द्वारा 2015-16 की विभागीय प्रगति आख्या रिपोर्ट में उत्तराखण्ड राज्य नाशपाती, आडू, पुलम और खुबानी के उत्पादन में देश में प्रथम स्थान पर होने का आंकड़ा दर्शाया गया था।
उद्यान विभाग द्वारा फर्जी आंकड़ों के खेल केे चलते प्रदेश में कई कृषि बागवानी पर आधारित छोटे-मोटे उद्योग खुले लेकिन जब उनको फलों की आपूर्ति नहीं हो पाई तो लगभग सभी एक के बाद एक बंद होते चले गए। विभाग से सेवानिवृत कृषि वैज्ञानिक और पूर्व जिला उद्यान अधिकारी डॉ राजेंद्र कुकसाल का कहना है कि प्रदेश में उत्तर प्रदेश के समय से ही जमीनी हकीकत जाने बगैर योजनाओं को उत्तराखण्ड में लागू तो कर दिया लेकिन उनके संचालन के लिए माहौल और उत्पादन कैसे बढ़े इस पर कोई काम नहीं किया गया। वह बताते हैं कि 70 के दशक में नैनीताल जिले के रामगढ़ में एग्रो द्वारा फूड प्रोसेसिंग यूनिट लाई गई थी, पंरतु वह भी फलों की आपूर्ति नहीं होने के चलते कुछ ही वर्ष में बंद कर दी गई। इसी तरह 80 के दशक में अल्मोड़ा जिले के मटेला में कोल्ड स्टोरेज की स्थापना की गई लेकिन वह भी बंद हो चुका है। रानीखेत चौबटिया गार्डन की सेब जूस प्रोसेसिंग यूनिट तक बंद पड़ी हुई है।
एग्रो द्वारा 80 के दशक में गढ़वाल क्षेत्र में चमोली जिले के कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग जिले के तिवाड़ा में फूड प्रोसेसिंग यूनिटों लगाई गई लेकिन वह भी कामयाब नहीं हो पा रही है। इसका एक ही कारण है कि इन यूनिटों के लिए नियमित संचालन हेतु फल ही नहीं मिल पा रहे हैं। यही नहीं
स्वरोजगार योजना के तहत अनेक व्यक्तियों द्वारा छोटी-छोटी फूड प्रोसेसिंग यूनिटों लगाई गई लेकिन वह भी ज्यादा समय तक चल नहीं पाई। जो चल रही हैं वह मौसमी हिसाब से या बाहरी प्रदेशों के किन्नु, माल्टा या संतरे के भरोसे वर्ष में कुछ ही समय काम कर पा रही है।
ऐसा नहीं है कि उद्यान विभाग के कारनामों की जानकारी सामने नहीं आई हो। अनेक बार मामले सामने आते रहे हैं लेकिन राजनीतिक दबाव हो या विभागीय कर्मचारियों का दबाव हर बार सरकार और शासन कार्यवाही करने से बचता रहा है। वर्ष 2021 में प्रदेश की धामी सरकार के पहले कार्यकाल में गणेश जोशी कृषि और उद्यान मंत्री बने। उद्यान विभाग की कार्यशैली और घपलों के मामले सुर्खियों में आए तो जोशी ने उद्यान विभाग की बैठक ली। बैठक में एक बात निकलकर आई कि जिले के उद्यान अधिकारी निदेशक के आदेश पर भी जिलों में फलों के उत्पादन क्षेत्र और उनके आंकड़े नहीं भेज रहे हैं।
सूत्रों की मानें तो कृषि मंत्री के सामने ही तत्कालीन निदेशक हरमिंदर सिंह बबेजा ने अपनी पीड़ा का बखान किया और कहा कि उनको जिलों के उद्यान अधिकारी अपने-अपने जिलों के फलों और अन्य उपज के आंकड़े कई बार रिमाइंडर करने के बाद भी नहीं भेज रहे हैं। तब उद्यान निदेशक बबेजा उत्तराखण्ड में नए-नए ही आए थे। आरोप है कि प्रदेश के जिला उद्यान अधिकारी अपनी मनमर्जी चलाते रहे हैं। वे निदेशालय के आदेशांे का पालन तक नहीं करते। यहां तक कि विभाग की विडियो कॉन्फ्रेंसिंग बैठक में विडियो बंद तक करने के मामले हो चुके हैं लेकिन इन पर कोई कार्यवाही करने की हिम्मत नहीं कर पाया है। इसका एक बड़ा कारण यह बताया जाता है कि हर जिला उद्यान अधिकारी राजनीतिक संरक्षण हासिल किया हुआ है। मंत्रालय से भी उन्हें पूरा संरक्षण मिलता रहा है। इसी के चलते विभागीय योजनाओं में फर्जी आंकड़े जारी किए जाते रहे हैं।
अपने ही विभाग के अधिकारियों से विभागीय आंकड़े प्राप्त करने के लिए जब कृषि मंत्री और निदेशक को जिलाधिकारियों को पत्र लिखने के लिए मजबूर होना पड़े तो साफ है कि उद्यान विभाग में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। चौतरफा दबाव और किरकिरी होने के बाद प्रदेश के उद्यान विभाग के वास्तविक आंकड़े अर्थ और सांख्यिकी विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में जारी किए गए। इन आंकड़ों को देखकर साफ हो चुका है कि विभाग द्वारा किस तरह से फर्जी आंकड़ों का सहारा लिया गया।
वर्ष 2020-21 और 2022-23 के आंकड़ों में बहुत बड़ा अंतर है। जहां 2021-22 की रिपोर्ट में राज्य के सभी 13 जिलों में फल उत्पादन क्षेत्रफल को 181070 हेक्टेयर दर्शाया गया और फल उत्पाद को 648895 मीट्रिक टन दर्शाया गया तो वहीं 2022-23 की रिपोर्ट में फल उत्पादन क्षेत्रफल को 81692 हेक्टेयर ही दर्शाया गया। महज एक वर्ष में ही राज्य के लगभग एक लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल कम हो गया। इसी तरह से फसल उत्पादन के आंकड़े में भी अंतर सामने आया है जिसमें 2022-23 की रिपोर्ट में 369447 मीट्रिक टन आंकड़े दर्शाए गए हैं। सिर्फ एक वर्ष में ही 279448 मीट्रिक टन फल उत्पादन घट गया। यही नहीं अर्थ और सांख्यिकी विभाग की रिपोर्ट में सब्जी, आलू और फूलों के उत्पादन क्षेत्रफल और उत्पादन के जो आंकड़े दर्शाए हैं उन सभी में एक वर्ष के भीतर ही भारी गिरावट देखी जा सकती है।
लिया जा रहा है जलवायु परिवर्तन का सहारा
सांख्यिकी विभाग और पलायन आयोग की रिपोर्ट को देखें तो अपने कारनामों को सही साबित करने में उद्यान विभाग के अधिकारी जलवायु परिवर्तन का सहारा लेकर फर्जीवाड़े से बचने का प्रयास कर रहे हैं। दरअसल देश में क्लाइमेट ट्रेंड्स के विश्लेषण में उत्तराखण्ड में सेब, आडू, पुलम, खुबानी और नाशपाती जैसे शीतोष्ण जलवायु के फलों के उत्पादन में भारी गिरावट देखे जाने की बात सामने आई है। प्रसिद्ध ‘टाउट टू अर्थ’ पत्रिका ने भी रिपोर्ट का प्रकाशन किया है जिसमें प्रदेश के सभी फसलों के उत्पादन में भारी गिरावट के आंकड़े दर्शाए हैं।
वर्ष 2016-17 में प्रदेश में 25201 हेक्टेयर भूमि पर सेब का उत्पादन किया गया लेकिन वर्ष 2022-23 में 55 फीसदी की गिरावट के साथ 11327 हेक्टेयर रहने की बात कही गई है जिससे सेब का उत्पादन 30 प्रतिशत ही रहा गया। यही नहीं सभी प्रकार की प्रजाति के फलों के उत्पादन क्षेत्रफल और उत्पादन में भारी कमी होने की बात कही गई है। 54 फीसदी क्षेत्रफल घटने और फल उत्पादन में 44 फीसदी की भारी कमी की बात कही है। जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट आने के बाद राज्य के उद्यान विभाग की बांछे खिल गई और अब वह किसी तरह से राज्य में गिरते फल उत्पादन और क्षेत्रफल को जलवायु परिवर्तन की आड़ में अपनी नाकामी को छुपाने का काम करता नजर आ रहा है। जानकारांे का कहना है कि जलवायु परिवर्तन एक कारण हो सकता है जिसे नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन जिस तरह से उद्यान विभाग की कार्यशैली और बाहरी राज्यांे के घटिया बीज और पौध प्रदेश के किसानों और बागवानांे को सब्सिडी के नाम पर बांटे जा रहे हैं उसका भी एक बड़ा कारण है।
उद्यान विभाग के सेवानिवृत कृषि वैज्ञानिक और जिला उद्यान अधिकारी रहे डॉ. राजेंद्र कुकसाल का कहना है कि उद्यान विभाग कश्मीर और उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों से बीज-पौध किसानों को दे रहा है जिससे न तो फलों के पेड़ सही ग्रोथ कर पा रहे हैं और न ही उसमें फल उत्पादन हो पा रहा है। अखरोट, सेब आदि के फलों के बीज-पौध कश्मीर से मंहगे दामों पर खरीदकर राज्य में फल उत्पादन को बढ़ावा देने का दावा हवा-हवाई ही साबित हो रहा है।
तिवारी के कार्यकाल में भी नहीं हुई जांच
आज उत्तराखण्ड का उद्यान विभाग सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों में घिरा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही उद्यान विभाग के घपले और फर्जीवाड़े की जानकारी राज्य सरकार और शासन को मिल चुकी थी। लेकिन कभी भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारयण दत्त तिवारी के समय में ही विभाग के फर्जी आंकड़ों की पोल पूरी तरह से खुल गई थी। लेकिन तब भी सरकार ने सच्चाई जानने के बाद भी कार्यवाही करने की बजाय रिपोर्ट को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। दरअसल, 1988 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार में पर्वतीय विकास विभाग के तहत ‘प्रोजेक्ट फॉर डेवलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर इन यू.पी. हिल रीजन’ में बागवानी के विकास के लिए भारत सरकार द्वारा प्रदेश के सभी पहाड़ी जिलों में बागवानी और उद्यान के क्षेत्र में योजनाएं लागू करने के लिए एक कार्यक्रम चलाया गया था। इस कार्यक्रम के लिए दो सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया। जिसके सदस्य प्रदेश सरकार के आईएएस अधिकारी जी.वी पटनायक और प्रोजेक्ट के सलाहकार और भारत सरकार के संयुक्त सचिव डॉ. जे.सी. बक्शी थे।
इस कमेटी को प्रदेश के पर्वतीय जिलों टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल जिलों में फल उत्पादन क्षेत्र और फल उत्पादन के मौजूदा हालात की सही जानकारी एकत्र करना, संचालित होने वाले उद्यानों के सर्वेक्षण का कार्य करना था। बक्शी-पटनायक कमेटी ने सभी जिलों में जांच और सर्वे किया और अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंप दी। जिसमें इन सभी जिलों में विभागीय स्तर पर फर्जीवाड़े और फर्जी आंकड़ों की सच्चाई बयां की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार केवल 13 फीसदी आंकड़े सही बताए गए हैं। साथ ही फलों के क्षेत्रफल को बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाने और फल उत्पादन के आंकड़े भी विभागीय आंकड़े से बहुत कम पाए गए।
कमेटी ने विभाग द्वारा बाहरी राज्यों से फलों के पौध खरीदने और किसानों को दिए जाने का भी खुलासा किया, साथ ही यह भी उल्लेख किया कि बीमार और बगैर जांच के ही बाहरी राज्यों के घटिया पौध किसानों को बांटे गए। साथ ही कमेटी ने उद्यान विभाग द्वारा किसानों और बागवानों को दिए जा रहे पौध में 40 प्रातिशत तो पहले ही वर्ष में मर जाने का उल्लेख किया जिसके कारण किसानों को आर्थिक नुकसान हो रहा है।
हैरत की बात यह है कि बक्शी-पटनायक कमेटी की रिपोर्ट के बाद भी तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार और शासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। उत्तर प्रदेश के समय से जो भ्रष्टाचार और फर्जी आंकड़ों का खेल शुरू हुआ अलग उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद अनवरत चलता ही रहा। इस फर्जी आंकड़ेबाजी से शासन और सरकारों को भी केंद्र सरकार द्वारा किसानों और बागवानों के लिए दी जा रही योजनाओं के बजट को पाने का सबसे सुलभ और आसान रास्ता समझा गया। इस चलते विभागीय अधिकारियों पर राज्य बनने के बाद 24 सालों में भी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पाई है। सरकार इन फर्जी आंकड़ों को अपनी उपलब्धि बताती रही है। शासन और विभागीय अधिकारी अपने प्रमोशन, बेहतर काम करने के नाम पर फर्जीवाड़े करते रहे हैं। उन पर सभी आंख मूदकर भरोसा करते रहे हैं।
अब इसका दूसरा पहलू भी देखें तो 15 वर्ष के बाद यानी 2003 में जब अलग उत्तराखण्ड राज्य बन गया और इसके पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री भी नारायण दत्त तिवारी ही थे। उन्हीं की सरकार के समय में राज्य की तत्कालीन प्रमुख सचिव उद्यान विभापुरी दास के आदेश के बाद जांच कमेटी बनाई गई, जांच भी हुई और जांच निदेशालय से होते हुए शासन तक भी पहुंच गई। आश्चर्य की बात है कि जो हश्र 1988 की बक्शी- पटनायक कमेटी की जांच रिपोर्ट का हुआ ठीक वैसा ही 2003 की जांच रिपोर्ट का भी हुआ। दोनों ही मामलों में एक बड़ा संयोग नजर आता है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ही थे। दोनों ही मामले उद्यान विभाग की योजनाओं और उसके क्रियान्वयन की हकीकत को जानने के लिए गठित किए गए। दोनों ही मामलों में सरकार को उद्यान विभाग के फर्जीवाड़े और घपलों की प्रमाणिक जानकारी मिल चुकी थी। बावजूद इसके कोई कार्यवाही तक नहीं की गई। यहां तक कि किसी अधिकारी का स्थानांतरण तक नहीं किया गया।
बात अपनी-अपनी
उद्यान विभाग आज से फर्जी आंकड़े नहीं दे रहा है। यह परिपाटी तो उत्तर प्रदेश के समय से ही चली आ रही है। पहले समझा जाता था कि उत्तर प्रदेश का यह पहाड़ी हिस्स लखनऊ से बहुत दूर है तो किसी को कोई खबर नहंी होगी। लेकिन अब तो उत्तराखण्ड राज्य बन गया है जो बहुत छोटा-सा प्रदेश है, लेकिन उद्यान विभाग में घोटाले और भ्रष्टाचार बहुत बड़ा है। राज्य तो छोटा है लेकिन घपले बहुत बड़े हैं। पहले प्रदेश बड़ा था जो घोटाले छोटे थे। 1988 में और 2003 में एक समान बात यह है कि दोनों ही मामलों में विभाग की योजनाओं की हकीकत जानने के लिए कमेटी बनाई गई। कमेटी बनी, जांच हुई, रिपोर्ट सौंप दी गई। मजे की बात यह है कि दोनों ही मामलों में जांच रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। इससे आप समझ सकते हैं कि इस राज्य के उद्यान विभाग ही नहीं कृषि विभाग भी फर्जी आंकड़े जारी करके करोड़ों के सरकारी बजट को ठिकाने लगाता रहा है। मेरी जानकारी में यह भी आया है कि जिलों के उद्यान अधिकारी निदेशालय की बात तक नहीं मानते हैं, अगर किसी ने ज्यादा कोशिश की तो राजनीतिक दबाव और संरक्षण के चलते निदेशालय भी चुपचाप बैठ जाता है। मंत्रालय और कृषि मंत्री की भूमिका भी सिर्फ आदेश देने तक सीमित रह गई है उन पर अमल हो रहा है या नहीं इससे किसी को लेना-देना नहीं है। आज तक कृषि कैलेंडर को लागू नहीं किया जा सका है जबकि इसके आदेश कई बार मंत्रालय से हो चुके हैं। इससे आप हालात समझ सकते हैं।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद कुकसाल, पूर्व कृषि वैज्ञानिक
पलायन आयोग और राज्य सरकार मान रही है कि प्रदेश के पर्वतीय जिलों से बहुत पलायन हुआ है। आज 5 प्रतिशत वन भूमि बढ़ी है लेकिन वह वन भूमि पालयन के कारण खाली हुए नाप खेतों में पेड़ों के कारण हुई है। इससे आप समझ सकते हैं कि कितना पलायन हुआ है और जब ये लोग पालयन कर चुके हैं तो आखिर प्रदेश के पहाड़ी जिलों में खेती कौन कर रहा है। कौन फलों के बाग लगा रहा है और जिन फलों का उत्पादन बताया जा रहा है वह आखिर किसके द्वारा हो रहा है। इसका मतलब एक ही है कि कृषि विभाग और उद्यान विभाग सिर्फ अपने कागजों का पेट भरने के लिए फर्जी आंकड़े दे रहे हैं। जिससे केंद्र सरकार की योनजाओं का बजट ठिकाने लगाया जा सके। खेतों में फसल बोई नहीं जा रही है लेकिन घेरबाड़ की येाजना जमकर बांटी जा रही है। खेती हो नहीं रही है लेकिन सोलर पम्प योजना बांटी जा रही है। आज पूरे प्रदेश में उत्तर प्रदेश से लाकर शाक-सब्जियां खाई जा रही हैं। कहीं भी स्थानीय शाक-सब्जियां दिखाई नहीं दे रही है लेकिन पॉली हाउस योजना चलाई जा रही है। आखिर किसके लिए यह योजनाएं चल रही हैं।
रतन सिंह असवाल, संयोजक, पलायन एक चिंतन कार्यक्रम
उद्यान विभाग इस राज्य के किसानों का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है। फर्जी आंकड़े और फर्जी लाभार्थी बनाना इस विभाग का पहला काम है। अभी विभाग ने 80 लाख फलों के पौध सभी जिलों में भेजे हैं। उनमें 1 प्रतिशत भी जमीन पर लगे ही नहीं हैं लेकिन विभाग के आकड़ों में यह दर्ज कर दिया गया है कि इस वर्ष 80 लाख पौध प्रदेश के किसानों को बांट दिए गए हैं। क्लाइमेट चेंज और मौसम की समस्या तो हर साल होती है और होती ही रहेगी। कभी गर्मी ज्यादा हो जाती है, कभी बरसात ज्यादा हो जाती है। किसान तो इससे हर साल जूझता ही रहता है। इसका एक उपाय है कि हर काम समय पर हो तो किसान सब से लड़ सकता है। बरसाती सीजन की शाक-सब्जियों के बीज-पौध किसानों को समय पर दिए ही नहीं जाते, तब दिए जाते हैं या किसानों के पास तक पहुंचते हैं जब उनके बोने का समय बीत जाता है तो उत्पादन कैसे हो सकता है। विभाग कहता है कि सेब के फलों का उत्पादन बहुत बढ़ा है लेकिन मंडियों में सेब कहां पहुंच रहा है। अखिर जब सेब का उत्पादन होगा तो वह मंडियों में तो जाएगा, लेकिन वह नहीं जा रहा है। इसका मतलब एक ही है कि विभाग फर्जी आंकड़े बता रहा है।
वीरबान सिंह रावत, अध्यक्ष, कृषक बागवान उद्यमिता संगठन उत्तराखण्ड