गयालाल नाम के एक राजनेता हुआ करते थे। हरियाणा राज्य की होडल विधानसभा से वे 1967 में विधायक चुने गए थे। चुनाव जीते थे, वह भी बतौर निर्दलीय प्रत्याशी, तो निश्चित ही अपने क्षेत्र में लोकप्रिय भी रहे होंगे। 60 का दशक भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के क्षरण की शुरुआत का दशक था। लंबे संघर्ष के बाद मिली आजादी न केवल विदेशी आक्राताओं से मुक्ति लेकर आई थी बल्कि हर प्रकार की नैतिकता से भी आजाद हमारे राजपुरुष होने लगे थे और हर कीमत सत्ता पाने और उसमें बने रहने की कुप्रवृत्ति उनके भीतर उफान मारने लगी थी। विचारधारा के प्रति समर्पण ऐसे राजनेताओं ने अपने शब्दकोष से मिटा डाला था। यही वह दशक था जब आजादी के मात्र पंद्रह बरस बाद ही समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया को व्यथित हो कहना पड़ा था कि ‘समूचा हिंदुस्तान कीचड़ का तालाब है जिसमें कहीं-कहीं कमल उग आए हैं। कुछ जगहों पर अय्याशी के आधुनिकतम तरीकों के सचिवालय, हवाई अड्डे, होटल सिनेमाघर और महल बनाए गए हैं और उनका इस्तेमाल उसी तरीके से बने-ठने लोग-लुगाई करते हैं। लेकिन कुल आबादी के एक हजारवें हिस्से से भी इन सबका कोई सरोकार नहीं है। बाकी तो गरीब, उदास, दुखी, नंगे और भूखे हैं। ‘लोहिया ने इस दशक में यह भी कह डाला था कि ‘संसद को स्वांग, पाखंड और रस्मअदायगी का अड्डा बना दिया गया है।’ गया लाल सरीखे राजनेताओं का समय अब आ चुका था। उन्होंने बतौर निर्दलीय चुनाव जीता और फिर वे कांग्रेस में शामिल हो गए क्योंकि संख्या बल के हिसाब से उन्हें लगा था कि राज्य में सरकार कांग्रेस की ही बनेगी। लेकिन जैसे ही उस समय के विपक्षी गठबंधन संयुक्त मोर्चा की सरकार बनती उन्हें नजर आई वे कांग्रेस छोड़ विपक्षी गठबंधन संग जा मिले। पिक्चर लेकिन बाकी थी। संयुक्त मोर्चा सरकार बना पाने में सफल नहीं हो पाया तो गयालाल एक बार फिर से कांग्रेस में चले आए। उन्होंने 15 दिनों के भीतर चार बार दल बदलने का रिकॉर्ड बना डाला। जब वे संयुक्त मोर्चा छोड़ तीसरी बार कांग्रेस में शामिल हुए थे तब एक पत्रकार वार्त्ता में कांग्रेस के नेता राव बिरेंद्र सिंह ने कहा था- ‘गयाराम अब आयाराम हो चुके हैं।’ तभी से आदतन दलबदलुओं के लिए आयाराम-गयाराम शब्द प्रचलन में आ गया। गत सप्ताह जद(यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारतीय राजनीति में मृत्यु शय्या पर पहुंच चुकी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता और शुचिता जैसे मूल्यों को अंतिम विदाई देने का काम कर दिखाया। उनसे इस कदम की अपेक्षा उन सभी को जो उन्हें समझते हैं, उस क्षण से थी जब उन्होंने अगस्त 2022 में यकायक ही भाजपा का साथ छोड़ राजद का हाथ थाम लिया था। मैं लेकिन भारी मुगालते में था। मुझे पक्का यकीं था कि धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर विश्वास रखने वाले नीतीश 2024 के चुनाव में इंडिया गठबंधन का नेतृत्व करते हुए एनडीए गठबंधन को कड़ी चुनौती देने का हर संभव प्रयास करेंगे। मेरा ऐसा विश्वास संभवत नीतीश कुमार संग मेरे निजी संबंधों के होने चलते था। मैं उन्हें 1998 से जानता हूं जब वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भूतल परिवहन मंत्री हुआ करते थे। उन दिनों मैं दिल्ली के सत्ता गलियारों में खासा सक्रिय रहता था और राजनीति मेरे रगों में दौड़ा करती थी। यह याद नहीं कि कैसे मेरी मित्रता बिहार के इस युवा तुर्क से हुई, जैसे भी हुई, हुई जबरदस्त। वे जब 2000 में अटलजी की ही सरकार में कृषि मंत्री बने तब तक मैं उनके निजी मित्रों में गिना जाने लगा था। दिल्ली उन्हें खास सुहाती नहीं थी, उनका मन बिहार में अटका रहता था। वर्ष 2000 में बिहार विधानसभा चुनाव बाद त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आई और राज्यपाल ने सबसे बड़े गठबंधन बतौर एनडीए को सरकार बनाने का मौका दिया था। 3 मार्च 2000 को पहली बार नीतीश ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनको एक सप्ताह के भीतर ही अपना बहुमत विधानसभा में साबित करना था। इस एक सप्ताह के दौरान मैं लगातार उनके संपर्क में रहा। बेहद चिंतित बैचेन और व्याकुल नीतीश हर कीमत पर बहुमत साबित करना चाहते थे। उन सात दिनों में मैंने अलग ही नीतीश कुमार को जाना। सार्वजनिक जीवन में सादगी और ईमानदारी की छवि वाले नीतीश ने सत्ता में बने रहने के लिए बिहार की राजनीति के हर लंपट और हर बाहुबली से संपर्क साट्टा समर्थन मांगा था। मुझे यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि मैं स्वयं चाहता था कि येन-केन-प्रकारेण नीतीश कुमार को बहुमत हासिल हो जाना चाहिए। ऐसा लेकिन हुआ नहीं और 10 मार्च को नीतीश कुमार की सरकार गिर गई। वे वापस दिल्ली लौट आए। यह तब तय था कि उन्हें दोबारा अटल सरकार में मंत्री बनाया जाएगा। मई में ऐसा ही हुआ भी। उन्हें दोबारा से कृषि मंत्री बनाया गया था। मार्च से मई के मध्य मेरा उनसे नियमित मिलना होता था। इन दिनों का एक वाक्या खासा महत्व का है। महत्व का इसलिए कि यह वाक्या उस नीतीश कुमार से ताल्लुक रखता है जो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और नैतिक मूल्यों से प्रतिदिन जूझ रहा था। एक शाम मैं नीतीश जी से मिलने उनके आवास गया था। वे अपने सलाहारों संग बातचीत कर रहे थे। इन सलाहकारों में रामचंद्र प्रसाद सिंह उर्फ आरसीपी सिंह भी शामिल थे जो उन दिनों भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हुआ करते थे और बतौर केंद्रीय मंत्री नीतीश कुमार के निजी सचिव रह चुके थे। आगे चलकर आरसीपी सिंह की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जाग उठी थी। भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे जद (यू) में शामिल हुए आरसीपी सिंह केंद्र में मंत्री बने। उन्हें नीतीश कुमार ने जद (यू) का राष्ट्रीय अट्टयक्ष तक बनाया।
राजनीति का ककहरा लेकिन आरसीपी सिंह ने नीतीश जी से ही सीखा था। अपने गुरु के नक्शेकदम पर चलते हुए उन्होंने भी पलटी मार ली और नीतीश की इच्छा विरुद्ध भाजपा में शामिल हो गए।
बहरहाल, बातचीत के दौरान नीतीश कुमार ने मुझसे जानना चाहा कि उनके अल्प मुख्यमंत्रित्वकाल से उनकी छवि पर कोई प्रतिकूल असर तो नहीं पड़ा है? मैंने उनकी मनोदशा को समझते हुए और उनका मान रखने की नीयत से ऐसा कुछ नहीं होने की बात कही। नीतीश जी लेकिन भांप गए कि मैं उनके प्रश्न को टाल रहा हूं। उन्होंने जोर देकर फिर से अपना प्रश्न दोहराया और मुझसे खुलकर अपनी बात रखने को कहा। यह वह समय था जब स्पष्टवादी होने का रोग मुझे लग चुका था। मैंने उनके इसरार पर कह डाला कि आपकी स्वच्छ छवि पर दाग अवश्य लगा है क्योंकि आपने सत्ता में बने रहने के लिए उन सभी दागियों से हाथ मिलाने का प्रयास किया जिनका आप विरोध किया करते थे और लालू यादव पर ऐसे लोगों को प्रश्रय देने का आरोप लगाया करते थे। मेरा उत्तर सुन नीतीश कुमार का पारा गर्म हो गया। उन्होंने मुझे सुनाते हुए कहा था कि ‘अब वातानुकूलित कमरों में बैठने वाले, सूट बूट पहने वाले लोग मुझे राजनीति और नैतिकता सिखाना चाहते हैं।’ मैं उनसे बहस करने लगा था। माहौल इतना तल्ख हो उठा कि नीतीश जी क्रोट्टिात हो कमरा छोड़ निकल गए थे। इस वाक्ये के बाद भी हम मित्र बने रहे और मैं उन्हें शुचितावादी राजनीतिज्ञ मानता रहा। यह लेकिन मेरी महा भूल थी।
नीतीश कुमार के शब्दकोष में नैतिकता, शुचिता, वैचारिक प्रतिबद्धता जैसे शब्द मौजूद कभी थे ही नहीं। वे हर कीमत पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की चाह रखने वाले राजनेता हैं। उनका बार-बार पाला बदलना मुद्दा नहीं है। मुद्दा है भारतीय राजनीति के पतन का, उसके रसातल में पहुंचने का है, जो आज हर उस भारतीय को बैचेन कर रहा है जो सार्वजनिक जीवन में आ रही गिरावट से व्यथित है।
नीतीश कुमार उन चंद नेताओं में शामिल थे जिनसे सार्वजनिक जीवन में उच्च मापदंडों की उम्मीद की जाती थी। वे लेकिन इस उम्मीद पर खरा नहीं उतरे। खरा उतरना तो छोड़िए वे पूरी तरह असफल साबित हुए हैं। उनका आचरण भले ही उनकी सत्ता को बनाए रखने में सफल रहा हो और आगे भी वे सत्ता में सम्भवतः बने रहें, इतिहास उन्हें लेकिन एक ऐसे राजपुरुष बतौर याद रखेगा जिसने अपने संकुचित स्वार्थ के लिए आदर्शों और मूल्यों को तिलांजली दे आम जन के साथ छलावा किया था। खुद को समाजवादी कहने वाले अपने मित्र नीतीश कुमार जी को मैं डॉ. राममनोहर लोहिया का कथन याद दिलाना चाहता हूं। लोहिया ने कहा था- ‘राष्ट्र की राजनीति के दलदल में कोई चीज टिकती नहीं, कोई अच्छी चीज कायम और मजबूत नहीं रहती। संकुचित स्वार्थ ही सबसे बड़ा हो गया है। व्यक्ति केवल अपने या अपने छोटे समूह के हितों को देखता है। नैतिक उपदेशों या पिटे-पिटाए दार्शनिक सिद्धांतों के पीछे कोई झूठ या छल, संकीर्ण हितों के लिए जनता के साथ कोई धोखा छिपा रहता है।’ डॉ. लोहिया यह भी कहा करते थे कि कमजोर हड्डी से राजनीति नहीं की जाती। नीतीश जी अफसोस आप बेहद कमजोर हड्डी के साबित हुए। आज यह कहने में मुझे तनिक भी गुरेज नहीं कि मित्रवर नीतीश आपकी रहबरी पर मुझे बेहद मलाल है।