वर्ष 1977 में हास्य कलाकार असरानी की एक फिल्म ‘चला मुरारी हीरो बनने’ प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म का हीरो मुरारी घर से भाग कर हीरो बनने बम्बई आ जाता है। उसे अपेक्षित सफलता भी मिलती है लेकिन समय के चक्र में वह ऐसा उलझता है कि उसकी सारी हीरोपंथी धरी की धरी रह जाती है। उत्तराखण्ड के नवनियुक्त पुलिस महानिदेशक अभिनव कुमार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। देश के सबसे युवा पुलिस प्रमुख बनने का रिकॉर्ड बनाने वाले अभिनव कुमार की गिनती बेहद ईमानदार और निष्पक्ष पुलिस अफसरों में होती है। पत्रकारिता की पृष्ठ भूमि से निकले अभिनव कुमार विभिन्न अखबारों में प्रकाशित होने वाले अपने लेखों के चलते बौद्धिक समाज में भी विशेष स्थान रखते हैं। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा उन्हें डीजीपी बनाए जाने बाद आम जनता में उम्मीद जगी थी कि अब देवभूमि की कथित मित्र पुलिस की छवि में सुधार-निखार आएगा और वास्तव में वह मित्र पुलिस बन उभरेगी। अभिनव कुमार ने पद संभालने के साथ ही ‘अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ मुकदमें में उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनाए गए एक महत्वपूर्ण फैसले का शत-प्रतिशत अनुपालन कराए जाने के निर्देश जारी करते हुए इन निर्देशों की खुली अवहेलना करने वाले एक पुलिस अधिकारी को तत्काल प्रभाव से निलंबित करने का आदेश भी दे दिया। नैनीताल जनपद के रामनगर में तैनात यह अधिकारी लेकिन पुलिस महानिदेशक से ज्यादा प्रभावशाली निकला। रामनगर के कोतवाल अरुण सैनी को बचाने और उसको बहाल करने के लिए पूरा सरकारी तंत्र सक्रिय हो उठा। नतीजा रहा अभिनव कुमार का बैकफुट में जाना और निलंबित कोतवाल का बहाल होना
सात साल तक की सजा के आपराधिक मामलों में कार्रवाई के लिए नौ साल पहले ‘अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो गाइड लाइन दी थी, उसे या तो उत्तराखण्ड की मित्र पुलिस पूरी तरह समझ नहीं पाई है या फिर इसे लेकर लापरवाह है। यही वजह है कि सात साल तक की सजा के मुकदमों में पुलिस अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। इससे जहां एक ओर ऐसे मामलों में मुल्जिमों को कई बार अग्रिम जमानत के लिए अर्जी दाखिल करनी पड़ रही है तो वहीं अदालत और अभियोजन का कीमती समय भी बर्बाद हो रहा है। नैनीताल जिले के रामनगर में एक ऐसा ही मामला सामने आया है जहां मित्र पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट की 2 जुलाई 2014 को जारी की गई ‘अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ की महत्वपूर्ण गाइड लाइन का पालन नहीं किया। बहरहाल ऐसे ही मामले में रामनगर कोतवाल अरुण सैनी, गर्जिया चौकी इंचार्ज प्रकाश पोखरियाल और एसआई दीपक बिष्ट के विरुद्ध अवमानना याचिका दायर की गई। फलस्वरूप हाईकोर्ट नैनीताल ने कॉर्बेट पार्क स्थित टाइगर कैंप रिजॉर्ट मामले की सुनवाई न्यायाधीश न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की अदालत में हुई जिसमें उन्होंने प्रदेश के डीजीपी और प्रमुख सचिव गृह को 22 दिसंबर के दिन अदालत में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उपस्थित होने का आदेश दिया।

डीजीपी द्वारा उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों की बाबत जारी आदेश
इस मामले के बाद प्रदेश के नवनियुक्त डीजीपी अभिनव कुमार ने तत्परता दिखाते हुए रामनगर के कोतवाल अरुण सैनी को निलंबित करते हुए कार्यवाही के निर्देश दिए। सभी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों को ‘अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ गाइड लाइन के आदेशों का पालन करने के सख्त आदेश जारी करते हुए कहा है कि यदि भविष्य में किसी भी प्रकरण में ‘अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ एवं अन्य में उच्च न्यायालय या
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्गत दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किए जाने का संज्ञान लिया जाता है तो संबंधित प्रभारी निरीक्षक, थानाध्यक्ष को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर उसके विरुद्ध विभागीय कार्यवाही अमल में लाई जाएगी। इसी के साथ डीजीपी ने यह भी स्पष्ट किया है कि उक्त के अतिरिक्त संबंधित जनपद प्रभारी एवं क्षेत्राधिकारी के विरुद्ध भी नियमानुसार प्रतिकूल कार्यवाही सुनिश्चित की जाएगी। कॉर्बेट पार्क स्थित टाइगर कैंप रिजॉर्ट मामले में कुमाऊं मंडल के डीआईजी योगेंद्र सिंह रावत ने रामनगर कोतवाल अरुण सैनी को सस्पेंड कर दिया। सैनी के विरुद्ध यह कार्रवाई टाइगर कैंप रिजॉर्ट के मैनेजर को गिरफ्तार करने पर की गई।
अरनेश कुमार दिशा-निर्देश या ‘अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ (2014) भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें कहा गया है कि उन मामलों में गिरफ्तारी एक अपवाद होनी चाहिए, जहां सजा सात साल से कम कारावास की है। दिशा-निर्देशों में पुलिस से यह निर्धारित करने के लिए कहा गया था कि क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41 के प्रावधानों के तहत गिरफ्तारी आवश्यक थी। ऐसे में क्या आरोपी को पहले नोटिस भेजा गया या सीधे ही गिरफ्तारी कर ली गई। पुलिस अधिकारियों की यह गारंटी देने की जिम्मेदारी है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने कई फैसलों में स्थापित सिद्धांतों का जांच अधिकारियों द्वारा पालन किया जाता है। आगे की हिरासत को अधिकृत करने से पहले न्यायिक मजिस्ट्रेट को पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट पढ़नी चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि वे संतुष्ट हैं। धारा 41ए सीआरपीसी और अरनेश कुमार दिशा-निर्देशों के तहत गिरफ्तारी की प्रक्रिया का उल्लंघन करने पर पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू भी की जा सकती है।
ताजा प्रकरण 29 नवंबर का है। इस दिन स्थानीय पुलिस ने कॉर्बेट पार्क स्थित टाइगर कैंप रिजॉर्ट में मुफ्त कमरा देने के लिए दबाव बनाया। जिस पर रिजॉर्ट शादी में बुक होने के कारण रिजॉर्ट प्रबंधन ने कमरा देने में

असमर्थता जाहिर की। ‘दि संडे पोस्ट’ के पास रिजॉर्ट प्रबंधन और कोतवाली रामनगर में तैनात पुलिस अधिकारियों की वाट्सअप चैट मौजूद है जिससे स्पष्ट होता है कि कोतवाल अरुण सैनी पूर्व में भी अपने परिचितों और वरिष्ठ अधिकारियों, यहां तक कि न्यायकि अधिकारियों के लिए मुफ्त में कमरे बुक कराते रहे हैं। इस बार रिजॉर्ट प्रबंधक द्वारा कमरा उपलब्ध कराने से मना करना यह बात पुलिस को नागवार गुजरी जिसके बाद दुर्भावना से उसी रात कोतवाल के आदेश पर पुलिस ने रिजॉर्ट में छापा मारकर फर्जी तरीके से शराब की 10 खाली बोतलें और एक आधी भरी बोतल बरामद की। इसके बाद पुलिस ने आबकारी अधिनियम के तहत रिजॉर्ट के महाप्रबंधक राजीव शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया। चौंकाने वाली बात यह है कि एफआईआर में कांग्रेस नेता अनुपम शर्मा का नाम भी दर्ज किया गया है। जबकि उस दिन अनुपम शर्मा उत्तराखण्ड में न होकर मुंबई में थे। शर्मा पूर्व में कॉर्बेट रिजॉर्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे हैं।
अनुपम शर्मा ने मीडिया को एक पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने कहा है कि जहां टाइगर कैंप रिजॉर्ट है उस ढिकुली ग्राम सभा में उनकी एक इंच भी जमीन नहीं है। जिस दिन ये छापेमारी हुई उससे दो दिन पहले ही वे मुंबई गए हुए थे। सीसीटीवी फुटेज और इंडिगो की उड़ान की डिटेल्स बतौर प्रमाण उनके पास मौजूद है। शर्मा ने पुलिस पर आरोप लगाया कि पुलिस ने जान-बूझकर उनकी छवि खराब करने के उद्देश्य से टाइगर कैंप में छापा मारा था और मैनेजर की गिरफ्तारी की गई थी। गिरफ्तारी के बाद रात भर मैनेजर को थाने में बैठाकर सुबह अपराधियों की तरह अभिरक्षा में उनका फोटो मीडिया को जारी किया गया और रिमांड के लिए कोर्ट में पेश किया गया। जबकि आबकारी अधिनियम के ऐसे अपराध के लिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के मुताबिक सीधे गिरफ्तारी नहीं की जा सकती।
कैसे भारी पड़े डीजीपी पर कोतवाल

पुलिस द्वारा नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ रिजॉर्ट के महाप्रबंधक राजीव शाह ने न्यायालय की अवमानना की याचिका उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में दायर की है। इसी याचिका पर सुनवाई के दौरान 15 दिसंबर को न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल ने मौखिक रूप से राज्य के गृह सचिव तथा पुलिस महानिदेशक को 19 दिसंबर के दिन अदालत में बुलाने के निर्देश दिए। राज्य सरकार के ऊपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता अनिल कुमार ने न्यायालय के निर्देश की सूचना तत्काल गृह सचिव एवं डीजीपी को भेज दी। पुलिस महानिदेशक ने इस पत्र के बाद ही पूरे मामले की जानकारी हासिल कर कोतवाल अरूण सैनी को तत्काल प्रभाव से निलंबित करने का निर्णय लिया था। मामले में इस निलंबन के बाद रोचक मोड़ आ गया। पुलिस व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास कर रहे डीजीपी एक कोतवाल से मात खा गए। राज्य सरकार का पूरा तंत्र इस कोतवाल को बचाने की कवायद में जुट गया। 18 दिसंबर को राज्य के मुख्य स्थाई अधिवक्ता ने गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को सूचित किया कि उनकी अदालत में मौजूदगी अब जरूरी नहीं हैं। यह भी इस पत्र में कहा गया कि माननीय अदालत इस प्रकरण में प्रकाशित समाचारों से नाराज है जिनमें यह लिखा गया है कि न्यायालय ने उच्च अधिकारियों को कोर्ट में पेश होने को कहा है। इस पत्र में यह भी लिखा गया कि ‘यदि’ अखबरों में प्रकाशित समाचार के आधार पर किसी अधिकारी को निलंबित करने का आदेश दिया गया है तो उसे तत्काल वापस ले लिया जाए। गौरतलब है कि माननीय न्यायालय ने ‘यदि’ शब्द का प्रयोग किया। चूंकि डीजीपी ने अपने विवेक के अनुसार कोतवाल को निलंबित करने का निर्देश दिया था इसलिए उन्होंने अपने निर्णय को बहाल रखा। अभिनव कुमार लेकिन कोतवाल साहब के रसूख को समझ पाने में चूक कर गए। कोतवाल अरुण सैनी की पहुंच सत्ता के शीर्ष तक बताई जाती है। सोशल मीडिया में उनके तार प्रदेश की खनन लॉबी से भी जुड़े बताए जा रहे हैं। इस लॉबी का राज्य में चौतरफा और एकतरफा बोलबाला है। कोतवाल की ताकत और भ्रष्ट तंत्र संग उसके गठजोड़ का नतीजा जनपद नैनीताल की इस पूरे प्रकरण पर निलंबित कोतवाल द्वारा दिए गए एक प्रार्थना पत्र पर ‘सहानुभूति पूर्वक’ और ‘त्वरित’ तरीके से की गई जांच के जरिए सामने आता है। सामान्य नागरिकों की एफआईआर महीनों तक दर्ज न करने वाली नैनीताल की मित्र पुलिस के मुखिया प्रहलाद नारायण मीणा ने मात्र दो दिन के भीतर अपनी जांच भी पूरी कर डाली और उनकी जांच को आधार बनाते हुए कुमाऊं मंडल के पुलिस उपमहानिरीक्षक डॉ ़ योगेंद्र सिंह रावत ने निलंबित कोतवाल की बहाली का आदेश भी दे डाला। ऐसा तब किया गया जबकि मामला उच्च न्यायालय में लंबित है।
कुल मिलाकर डीजीपी अभिनव कुमार द्वारा देवभूमि की पुलिस को सही ढर्रे पर लाने का पहला ही प्रयास विफल होता नजर आ रहा है। प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी राज्य के गृहमंत्री भी हैं। ऐसे में 2025 तक राज्य को सर्वोत्तम प्रदेश बनाने की मुहिम में जुटे धामी की विश्वसनियता पर भी प्रश्न उठने लगे हैं।
उपसंहार
पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से निकले डीजीपी अभिनव कुमार ‘वोहरा कमेटी’ से वाकिफ अवश्य होंगे। यदि उन्हें इस उच्च स्तरीय कमेटी की रिपोर्ट याद रहती तो शायद वह कोतवाल साहब पर एक्शन लेने की जुर्रत न

करते। वोहरा कमेटी का गठन 1993 में देश भर में पनप चुके माफिया तंत्र की पहचान करने और इसको काबू में रखने के लिए सुझाव देने के लिए केंद्र सरकार ने किया था। तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा की अध्यक्षता में बनी इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में दो महत्वपूर्ण बातें कही थीः
1. एक संगठित अपराध सिंडिकेट माफिया आम तौर पर छोटी-मोटी गतिविधियों में लिप्त होकर अपनी गतिविधियां शुरू करता है। स्थानीय स्तर पर अपराध, ज्यादातर अवैध शराब, जुआ, संगठित सट्टा और वेश्यावृत्ति से संबंधित है। बड़े शहरों में, बंदरगाह वाले शहरों में, उनकी गतिविधियों में आयातित वस्तुओं की तस्करी और बिक्री शामिल है और धीरे-धीरे वे नशीले पदार्थों और नशीली दवाओं की तस्करी में बदल जाते हैं। बड़े शहरों में आय का मुख्य स्रोत रियल एस्टेट से संबंधित है -जमीनों इमारतों पर जबरन कब्जा करना, मौजूदा कब्जेदारों किरायेदारों को बाहर कर ऐसी संपत्तियों को सस्ती दरों पर खरीदना आदि। समय के साथ, इस प्रकार अर्जित धन शक्ति का उपयोग नौकरशाहों और राजनेताओं के साथ संपर्क बनाने तथा इन संबंधों सहारे अपनी गतिविधियों को विस्तार देने के लिए किया जाता है। इस माफिया का उपयोग राजनेताओं द्वारा चुनावों के दौरान भी किया जाता है।
2. अपराध सिंडिकेट द्वारा विकसित संबंधों की पुष्टि आमतौर पर संबंधित एजेंसियों पर अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई न करने या मामलों में धीमी गति से आगे बढ़ने के दबाव तथा निर्देशों से होती है। इस तरह के दबाव या तो छापेमारी के तुरंत बाद या उसी समय बनाए जाते हैं। अवांछित अधिकारियों को संवेदनशील कार्यों से हटा दिया जाता है। यह रिपोर्ट अक्टूबर 1993 को जारी की गई थी। तब से हालात निरंतर बिगड़े हैं जिसकी बानगी एक कोतवाल के आगे राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी की बेचारगी के रूप में सामने आई है। फिलहाल रिजॉर्ट के महाप्रबंधक राजीव शाह अपनी जान-माल की सुरक्षा को लेकर बेहद भयभीत हो चले हैं। अब उनका राज्य सरकार के तंत्र से पूरी तरह भरोसा टूट चुका है लेकिन न्यायपालिका पर उनका भरोसा कायम है। शाह का कहना है कि उन्हें पूरा विश्वास है कि संबंधित कोतवाल एवं अन्य पुलिसकर्मियों पर न्यायालय द्वारा अवश्य ही कार्यवाही की जाएगी और उन्हें न्याय मिलेगा।
अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य’ की गाइड लाइन
- सात साल तक की सजा के मामलों में मुल्जिम की गिरफ्तारी के संबंध में कार्रवाई से धारा 41 के प्रावधानों के तहत पहले एक चेक लिस्ट तैयार की जाएगी।
- पुलिस अधिकारी अगर मुल्जिम की गिरफ्तारी को जरूरी समझता है तो उसे इस चेकलिस्ट के साथ ही यह बताना होगा कि गिरफ्तारी जरूरी क्यों है और अपनी रिपोर्ट के साथ संबंधित मजिस्ट्रेट को सौंपकर गिरफ्तारी के लिए अनुमति मांगनी पड़ेगी।
- मजिस्ट्रेट के सामने जब पुलिस की ऐसी रिपोर्ट पेश होती है तो उन्हें यह भी देखना होगा कि क्या गिरफ्तारी वास्तव में जरूरी है। अगर जरूरी है तो उसकी क्या वजह है यह विस्तार से लिखते हुए गिरफ्तारी के संबंध में निर्देश दिया जा सकता है।
- किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की जरूरत नहीं है तो उसकी जानकारी संबंधित मजिस्ट्रेट को केस दर्ज होने के दो सप्ताह के भीतर देनी होगी और इसकी एक प्रति पुलिस अधीक्षक को भेजी जाएगी, जिसमें कारण लिखे जाएंगे।
- केस दर्ज होने के 15 दिन के भीतर मुल्जिम को धारा 41ए के तहत नोटिस जारी किया जाएगा, जिसकी अवधि पुलिस अधीक्षक की सहमति से ही बढ़ सकती है और उसके लिए भी लिखित में कारण बताए जाने जरूरी हैं।
- इस प्रक्रिया का पालन नहीं करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक के साथ ही अदालती आदेश की अवमानना की कार्रवाई संबंधित हाईकोर्ट के समक्ष की जा सकती है।
- बिना समुचित कारणों के अगर मजिस्ट्रेट ऐसे मामलों में गिरफ्तारी के निर्देश दे देते हैं तो उनके खिलाफ भी विभागीय कार्रवाई हो सकती है।