Editorial

अब याचना नहीं रण होगा-2

मेरी बात

चीन संग भी भारत की विदेश नीति में बदलाव स्पष्ट नजर आने लगा है। इस बदलाव को समझने के लिए सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के मध्य चलने वाली बयानबाजियों को दरकिनार कर वैश्विक स्तर पर चीन के बढ़ते प्रभाव, परंपरागत रूप से चीन विरोधी रहे पश्चिमी देशों के रुख में आ रहे परिवर्तनों को समझना होगा और उन परिवर्तनों के बरअक्स भारतीय नीति को तौलना होगा। चीन अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। चीन विश्व की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति वाला देश भी है। जाहिर है आर्थिक और सामरिक दृष्टि से चीन की ताकत और क्षमता को नजरअंदाज कर पाना अथवा उसको हाशिए पर रख पाना विश्व के सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका के भी बस में अब नहीं है। यही कारण है कि दशकों से चली आ रही वैमनस्यता को किनारे रख अब अमेरिका और उसके मित्र देश चीन को साधने की कवायद कर रहे हैं। चीन की आर्थिक और सैन्य महत्वाकांक्षाओं ने ‘क्वाड’ (Quadrilateral Security Dialogue) को जन्म दिया था। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के मध्य चीन को लेकर बढ़ रही आशंकाओं चलते शुरू हुआ यह परस्पर संवाद जारी है लेकिन भारत को छोड़ अन्य तीनों देश चीन के साथ अब मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयास शुरू कर चुके हैं। गत् नवंबर माह में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री की चीन यात्रा, चीन के राष्ट्रपति का अमेरिका जाना और वहां अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ- साथ जापान के प्रधानमंत्री संग वार्ता करना इस बात की पुष्टि करता है कि ये तीनों देश अपनी चीन नीति में बदलाव ला रहे हैं। भारत लेकिन इस कवायद का हिस्सा बनने को खास उतावला नहीं है। यही नरेंद्र मोदी सरकार को विदेश नीति के मामले में सही और कठोर निर्णय लेने वाली सरकार बतौर मुझे समझ आ रहा है। भारत-चीन के वर्तमान रिश्तों का रिश्ता अतीत से है। ऐसा अतीत जो सुखद नहीं है। चीन अपनी साम्राज्य विस्तार नीति चलते भारत संग मैत्रीपूर्ण संबंधों को तार-तार करने का काम पूर्व में कर चुका है। आजाद भारत की पहली सरकार ने चीन संग मित्रता पूर्ण संबंध स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। दिसंबर 1949 में चीन में क्रांति हुई और सत्ता पर लाल सेना वाले वामपंथियों का कब्जा हो गया था। 1 अक्टूबर 1949 को चीन की लाल क्रांति के नेता कॉमरेड माओ ते संग ने चीनी जनवादी गणराज्य की नींव रखी थी। इस सरकार को अमेरिका ने मान्यता देने से इंकार कर दिया था। भारत पहला ऐसा देश था जिसने तत्काल ही इस सरकार को मान्यता दे मित्रता का हाथ आगे बढ़ाया। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का मानना था कि भारत द्वारा लाल सेना की सरकार को दी गई मान्यता द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करेगी। वे लेकिन चीन की विस्तारवादी भूख को समझने में चूक कर गए। नेहरू ने 1954 में चीन संग ‘पंचशील समझौता’ किया। यह समझौता शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों पर आधारित था। नेहरू ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा भी दिया। चीन की मंशा लेकिन इस भाई चारे की आड़ में अपने साम्राज्य का विस्तार करने की थी। 1954 के बाद लगातार चीनी सरकार ने भारत संग सीमा विवाद को हवा देनी शुरू कर दी। नेहरू जब तक चेते तब तक खासी देर हो चुकी थी। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा का तिब्बत से भाग भारत मेंराजनीतिक शरण लेना भारत-चीन संबंधों में तेजी से बिगड़ने का एक बड़ा कारण 1959 में बना। संबंध बिगड़ते गए और अक्टूबर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर अपना असल चेहरा दिखा ही दिया। हम यह युद्ध हार गए। चीन की विस्तारवादी चरित्र को न समझ पाना नेहरू के राजनीति जीवन यात्रा का सबसे कष्टपूर्ण पड़ाव और सबसे बड़ी दुर्घटना थी जिसने आजाद भारत के सबसे बड़े नायक का मनोबल तोड़ने और उनकी छवि को भारी धक्का पहुंचाने का काम किया था। इस हार के बाद नेहरू विरोधियों ने उन्हें जमकर लांछित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। देश की सड़कों में नारे गूंजने लगे थे कि ‘देश की सीमा रोती है, बेशर्म हुकूमत सोती है।’ नेहरू इस सबसे बुरी तरह टूट गए और अंततः यह सदमा उनको लील गया। तब से लेकर वर्तमान तक चीन के धोखे और उसका विस्तारवादी चरित्र भारत के लिए बड़ी शंका का कारण बना हुआ है।

मोदी सरकार अतीत से मिले सबक को सामने रख चीन के संबंध में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। ‘क्वाड’ देशों का चीन के प्रति अतिरिक्त सद्भाव भारत की नीति को हाल-फिलहाल प्रभावित करता नहीं नजर आ रहा है तो इसका एक बड़ा कारण है भारत का इस बात पर अड़ना है कि संबंधों को सामान्य करने के लिए द्विपक्षीय राजनीतिक और व्यापारिक वार्ताओं से कहीं अधिक जरूरी सीमा विवाद का स्थाई हल तलाशना है। 2020 में लद्दाख क्षेत्र में चीनी घुसपैठ को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने की बात पर भारत अड़ गया है। चीन की नीति इसके ठीक विपरीत व्यापारिक और राजनीतिक वार्ताओं का दौर जारी रखने की है। सीमा विवाद को वह परे रखकर आगे बढ़ने की बात कर रहा है। भारत की चीन को लेकर नीति की बाबत विदेशी मामलों के जानकारों की राय भिन्न-भिन्न है। कुछ का मानना है कि भारत को भी ‘क्वाड’ के अन्य देशों की तरह चीन के साथ रिश्तों को सुधारने की पहल करनी चाहिए। यह व्यवहारिक राय प्रतीत अवश्य होती है लेकिन ‘क्वाड’ के अन्य तीन सदस्यों और भारत की स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया चीन संग सीमा साझा नहीं करते है। उनका चीन संग मतांतर वैश्विक कारणों चलते हैं। जापान भी चीन संग सीमा साझा नहीं करता है लेकिन समुद्री सीमा दोनों के मध्य तनाव का कारण है। भारत इन देशों से ठीक उलट चीन संग विशाल भूभाग पर सीमा साझा करता है। भारत-चीन के मध्य 4 हजार किलोमीटर की सीमाएं हैं जो 6 राज्यों जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश तक फैली हैं। चीन हरेक राज्य से सटी सीमाओं का किसी न किसी बहाने अतिक्रमण करता आया है। लद्दाख के एक बड़े भूभाग में अपुष्ट खबरें हैं कि चीन ने 2020 से अवैध कब्जा कर रखा है। यही कारण है कि भारत सरकार किसी भी प्रकार की द्विपक्षीय वार्ताओं को शुरू करने के लिए सीमा विवाद का निपटारा किए जाने को अनिवार्य मान रही है। राजनीतिक अथवा आर्थिक मुद्दों पर वार्ताओं से असल विवाद का समाधान नहीं किया जा सकता। चीन संग परस्पर संबंध तभी स्थाई और प्रगाढ़ हो सकते हैं जब असल समस्या पर बातचीत हो और उसका तार्किक समाधान निकाला जा सके। विदेशी मामलों के रणनीतिकार इस मुद्दे पर बंटे हुए हैं। बहुतों को आशंका है कि यदि अमेरिका और चीन के मध्य निकटता आती है तो भारत की दिक्कतों में इजाफा होगा और वह अंतरराष्ट्रीय मंचों में कमजोर पड़ जाएगा। यह आशंका निर्मूल नहीं है। अमेरिका का इतिहास रहा है कि वह कभी भी, भरोसेमंद मित्र, किसी का भी नहीं रहा है। चीन और अमेरिका के मध्य संबंध कभी बेहद मैत्रीपूर्ण तो कभी बेहद तनावपूर्ण रहते आए हैं। इसलिए यह मानते हुए कि अमेरिका और चीन अब स्थाई तौर पर मित्र बनने का प्रयास कर रहे हैं, भारत अपनी कूटनीति को 360 डिग्री बदल नहीं सकता है। यह सही है कि चीन विश्व के दूसरे नंबर का ताकतवर देश है और हम उसकी बनिस्पत कहीं पीछे हैं। लेकिन यह भी सच है कि चीन में नाना प्रकार की आंतरिक कमजोरियों का उभार होने लगा है। उसकी अर्थव्यवस्था मंद हो चली है और उसके कई प्रांतों में अलगाववादी भावनाएं जोर पकड़ने लगी हैं। ऐसे में भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंध रखना चीन की भी मजबूरी है। यदि सीमा विवाद के समाधान की तरफ चीन ईमानदारी से पहल करता है तो उसे भारत के विशाल बाजार में भी ज्यादा हिस्सेदारी मिलने की संभावना प्रबल होती है। हालांकि विदेश नीति पर मेरी समझ खास परिपक्व नहीं है लेकिन अपनी समझ का विस्तार में लगातार करने का प्रयास करता रहता हूं। इस दृष्टि से मेरा मानना है कि कनाडा और चीन को लेकर भारत की नीति सही रास्ते पर है। कनाडा लंबे अर्से से भारत विरोधी ताकतों को अपनी धरती पर संरक्षण देता आया है। ठीक इसी प्रकार चीन का हमारे प्रति रवैय्या धोखे और शत्रुता का रहा है। इन दोनों ही देशों को यह समझना होगा कि नए बाजार आधारित विश्व में भारत की उपेक्षा नहीं की जा सकती है और आपसी सहयोग से ही समृद्धि और शांति का मार्ग निकाला जा सकता है। हालांकि यह कहना न तो व्यवहारिक होगा और न ही तर्कपूर्ण लेकिन भारत विरोधियों, विशेषकर आतंकियों का उनकी पनाहगाह में ही निपटारा करना भी भारत के बढ़ते प्रभाव और उसकी क्षमता का परिचायक है। कनाडा और उसके बाद अमेरिका द्वारा लगाए जा रहे आरोप भले ही आधारहीन हों, यह संकेत तो स्पष्ट देने का काम करते हैं कि अब याचना के बजाए भारत अपने हितों की रक्षा के लिए कठोर कदम उठाने की ताकत रखता है।

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