Uttarakhand

विकास के विरोधाभास 

तमाम अंतद्र्वंदों और कयासों के बीच प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई भाजपा की त्रिवेंद्र रावत सरकार ने अपना तीन वर्षीय कार्यकाल पूरा कर ही लिया। हालांकि इन तीन वर्षों में सरकार के कामकाज और खासकर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की कार्यशौली को लेकर जमकर आलोचनाएं हुई, फिर भी सरकार के कई काम ऐसे रहे जिनसे न सिर्फ उसकी साख में इजाफा हुआ, बल्कि मुख्यमंत्री का राजनीतिक कद भी बढ़ा है। सरकार की कई नीतियां और निर्णय भविष्य के लिए बेहतर होने की संभावनाएं थी, लेकिन दिक्कत यह रही कि उनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाया। उन पर विवादांे की छाया पड़ती रही जिसके चलते सरकार की कमजोरियां सामने आई। राजनीतिक तौर पर यह तीन वर्ष मुख्यमंत्री के लिए कई अनुभवांे भरे रहे। जिसमें कई विरोधाभास और अंतद्र्वंद इसमें दिखाई दिए। जहां मुख्यमंत्री हर चुनाव में भाजपा को जीत दिलवाने में कामयाब रहे, तो वहीं स्वयं भाजपा की अंदरूनी राजनीति से भी उन्हें जूझना पड़ा।

राज्य में औद्योगिक निवेश को बढ़ाने के लिए इन्वेस्टर समिट का आयोजन करवाना मुख्यमंत्री के इन तीन वर्ष के कार्यकाल की बड़ी उपलब्धि मानी यह है। सरकार से जारी किए गए आंकड़ां के अनुसार इस इन्वेस्टर समिट के आयोजन से प्रदेश में 1 लाख 20 हजार करोड़ निवेश रुपए के 601 प्रस्ताव पर समझौते किए गए। इनमें ऊर्जा क्षेत्र में सबसे अधिक 31 हजार 543 करोड़ के 19 समझौते किए गए हैं। इसके बाद इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में 26 हजार 909 करोड़ रुपए के निवेश के लिए 19 एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए। तीसरे सबसे बड़े हेल्थ केयर के क्षेत्र में 18 हजार 64 करोड़ के 71 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। पर्यटन सेक्टर में 14 हजार 183 करोड़ निवेश के 119 समझौते किए गए।

इसी प्रकार से मैन्युफैक्चरिंग के सेक्टर में 11 हजार 626 करोड़ निवेश के 223 एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए हंै। खेती किसानी व फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में पहली बार उत्तराखण्ड ने लंबी छलांग लगाते हुए 7 हजार 654 करोड़ निवेश के 91 समझौतांे पर हस्ताक्षर किए इसे राज्य में गिरती हुई खेती-किसानी के मार्चे पर एक बड़ा कदम माना गया है। शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्र में भी 6 हजार 91 करोड़ निवेश के 9 प्रस्तावां पर मुहर लगी है। इसमें अल्मोड़ा में 228 करोड़ से वोकेशनल विश्वविद्यालय की स्थापना करने के समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 5 हजार 25 करोड़ निवेश के 19 प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किए गए।

इसी तरह से आयुष और वेलनेस क्षेत्र में 3 हजार 270 करोड निवेश के 32 एमओयू साईन किए गए। इस इन्वेस्टर समिट में सबसे बड़ी बात यह रही कि राज्य मं डेयरी उद्योग को बहुत बड़ा फायदा मिलने की संभावनाएं जाताई गई हैं। गुजरात की विख्यात आनंदा डेयरी से भी राज्य में आॅर्गेनिक पशु आहार और आॅर्गेनिक मिल्क प्रोडक्ट पर काम करने का प्रस्ताव सरकार को मिला है। माना जा रहा है कि इससे केवल डेयरी उद्योग में ही 200 करोड़ निवेश समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। कøषि में मक्के की खेती के लिए भी निवेश के प्रस्ताव मिलने से राज्य में किसानों के लिए और बेहतर अवसर मिलने की संभावनाएं बढ़ी हैं।

अब सवाल यह है कि इन्वेस्टर समिट के बाद भी स्थितियों में ज्यादा बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है। सरकार और खास तौर पर मुख्यमंत्री द्वारा जारी किए गए आंकड़ों को मानें तो राज्य में दो वर्ष में 14 हजार करोड़ का निवेश हुआ है, जबकि हकीकत इससे कहीं उलट दिखाई दे रही है। एक तरफ औद्योगिक निवेश की अच्छी संभावनाएं बनी हैं, तो दूसरी तरफ विगत कई वर्षोंे से राज्य में छोटे और मझौले उद्योग एक के बाद एक बंद होते जा रहे हंै। यह खुलासा भी स्वयं सरकार और शासन की बैठक में ही हुआ है। राज्य में निवेश के तमाम दावों की हकीकत मुख्य सचिव की अध्यक्षता में हुई बैंकर्स समिति की बैठक में सामने आ चुकी है कि किस तरह से प्रदेश में लगातार छोटे उद्योग बंद होते जा रहे हंै। हालात यहां तक हो गए हैं कि प्रदेश में सितंबर 2018 से लेकर जून 2019 तक के कुल दस माह में ही 7244 लघु उद्योग पूरी तरह से बंद हो चुके हैं। सबसे बड़ी हैरानी की बात यह है कि मार्च 2019 से लेकर जून 2019 तक महज तीन माह में ही 3672 लघु उद्योग प्रदेश में बंद हुए हैं।

यह समय तब का है जब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत राज्य में चालीस हजार करोड़ के निवेश होने की बात कह रहे थे और 14 हजार करोड़ के निवेश के कार्य प्रदेश में पूरे होने का दावा कर रहे थे। इससे इतना तो साफ हो गया है कि प्रदेश सरकार अपने प्रदेश के पूर्व स्थापित लघु उद्योगों को ही नहीं संभाल पाई और वे लगातार दो वर्ष में ही बहुत बड़ी संख्या में बंद होते चले गए। इससे सरकार की नीति और नीयत पर कई सवाल खड़े हो चुके हैं। यह बड़ा विरोधाभास है कि सरकार करोड़ों खर्च करके इन्वेस्टर समिट का आयोजन करती है, लेकिन राज्य में पूर्व से स्थापित छोटे और मझौले उद्योगां के लगातार बंद होने पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रही है।

सीबीएसई शिक्षा पैटर्न को लागू कर प्रदेश के समस्त स्कूलों मंे सरकार द्वारा किया गया यह बदलाव एक नई दिशा ओैर दशा देने के लिए बड़ा कदम माना जा रहा है। इसी तरह से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी कई बदलाव करके सरकार ने पूर्व से चली आ रही व्यवस्था को बदलने का प्रयास किया है। हालांकि अभी उच्च शिक्षा में पूरी तरह से बदलाव किया जाना बेहद जरूरी बताया जा रहा है जिस पर सरकार तेजी के बजाय धीमे कदमों से चल रही है। इसके लिए माना जा रहा है कि केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति के लागू होने के बाद ही इसमें पूरी तरह से बदलाव आ सकता है। इसमें भी बड़ा विरोधाभास सामने आ चुका है। सर्वेक्षणों के अनुसार राज्य में आज भी स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता की भारी कमी बनी हुई है। ‘असर’ संस्था के सर्वे के अनुसार हालत यह है कि आठवीं का विद्यार्थी पांचवीं के सवालांे को हल नहीं कर पा रहा है। इसके अलावा कम्प्यूटर शिक्षा के हालात भी बदतर बने हुए हैं। सैकड़ों स्कूलों के भवन नहीं हैं और सैकड़ां में भवन क्षतिग्रस्त हो चले हैं। पीने के पानी और शौचालयों की कमी बनी हुई है। पाठ्य- पुस्तकों का वितरण हमेशा से ही प्रदेश के लिए एक तरह से शनि की साढ़े सती की तरह रहा है।

उच्चा शिक्षा में भी सरकार की नीति और नीयत पर सवाल खड़े हो चुके हंै। कुमाऊं विश्वविद्यालय में छात्रों द्वारा लाइब्रेरी और शिक्षकों की नियुक्ति के लिए बड़ा भारी आंदोलन तक किया गया जो कि सरकार की उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने की नीति पर ही सवाल खड़े करने के लिए काफी है। महाविद्यालयों में राष्ट्रीय ध्वज को फहराने और राष्ट्रवाद पर ही सरकार का पूरा फोकस बना रहा जिससे महाविद्यालयों में शिक्षण संस्थानों की स्थिति में सुधार तो नहीं हुआ, लेकिन विवादों की छाया सरकार के निर्णयों पर पड़ती रही।

गैरसेैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के तीन वर्ष के कार्यकाल का सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक मानी जा रही है। अब तक गैरसैंण पर कोई भी मुख्यमंत्री एक स्पष्ट राय नहीं रख पाया है, लेकिन त्रिवेंद्र रावत ने सभी को पछाड़कर अपने खाते में एक बड़ी राजनीतिक उपलब्धि हासिल तो कर ली है। साथ ही विपक्ष पर बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने में कामयाब हुए हैं। एक ओर सरकार गैरसेंैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा कर रही है, लेकिन चर्चा यह है कि इसके लिए सरकार सचिवालय को गैरसैंण में ले जाने के बजाय ई-सचिवालय की बात सोच रही है। यह सबसे बड़ा विरोधाभास है। बगैर सचिवालय के ग्रीष्मकालीन राजधानी की बात करना एक तरह से हास्यास्पद ही है।

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत भी पूर्व के सभी मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में होती रही राजनीति के ईद-गिर्द ही सिमटे रहे हैं। राज्य के इतिहास में शायद त्रिवेंद्र रावत पहले मुख्यमंत्री होंगे जिनके मुख्यमंत्री बनने के तीन महीने के बाद ही उनके नेतृत्व पर कई सवाल खड़े होने लगे थे। यहां तक कि हर दो माह के बाद अचानक उनको मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की चर्चाएं होने लगी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद तो अचानक मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाएं इस कदर होने लगी कि यह चर्चाएं राष्ट्रीय मीडिया में भी सुर्खियां बनने लगी। भाजपा भीतर मुख्यमंत्री की कार्यशैली को लेकर खासी नाराजगी की खबरं सामने आती रही। जानकारांे की मानें तो अचानक ही मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत द्वारा गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाए जाने की घोषणा भी ठीक उसी तरह से की गई है जिस तरह से पूर्व के मुख्यमंत्रियों द्वारा अपने विरोध और अपनी सरकार के कामकाज पर उठ रहे सवालों से बचने के लिए गैरसैंण को राजनीति की मुख्यधारा से जोड़ा गया।

तीन वर्ष के कार्यकाल में लगातार हुए चुनावों में भाजपा की जीत मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के खाते में एक बड़ी राजनीतिक उपलब्धि मानी जा सकती है। मुख्यमंत्री पद संभालते ही उनकी सबसे पहली चुनौती थराली विधानसभा का उपचुनाव जीतने की थी। इसमें उन्हें कामयाबी मिली। इसी तरह से सहकारी संघों के चुनाव में भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई। निकाय चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आई। नगर निगमों में भी भाजपा ने बड़ी सफलता हासिल की, जबकि कांग्रेस केवल दो नगर निगमों में ही जीत हासिल कर पाई। नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में भी कांग्रेस को भाजपा ने बुरी तरह से पछाड़ दिया। पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को लगातार दूसरी बार पांचों सीटों पर जीत हासिल हुई है, जबकि कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों को हार का सामना करना पड़ा है। इसी तरह से कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत की असामयिक मौत के बाद पिथौरागढ़ विधानसभा के उपचुनाव में भी भाजपा ने इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखा।

हर चुनाव में भाजपा की लगातार जीत से मुख्यमंत्री का कद तो बढ़ा ही है, साथ ही प्रदेश भाजपा संगठन पर भी मुख्यमंत्री अपनी मनोवैज्ञानिक बढ़त बढ़ाने में कामयाब होते दिखाई दिए। इससे यह कहा जा सकता है कि अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत कुछ हद तक अपने आप को सफल साबित करने में कामयाब तो दिखाई देते हैं, लेकिन उनके कमकाज पर उंगलियां उठना और नीति- नीयत पर विरोधाभास पैदा होना कई और सवाल भी खड़े करता है। अब दो वर्ष बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होनेहैं।। भाजपा और सरकार दोनों ही चुनावी मोड में आते हुए दिखाई दे रहे हैं। अब देखना होगा कि विगत तीन वर्ष का कार्यकाल और शेष दो वर्षीय कार्यकाल के बीच सरकार कैसी बनाती है जिससे सरकार, संगठन और मुख्यमंत्री तीनों ही आने वाली चुनौतियों से निपट पाएं।

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