लगातार तेज हो रही अपनी आलोचनाओं से नाराज इंदिरा गांधी ने अब प्रेस के पर भी कतरने शुरू कर दिए थे। अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के सम्पादक बीजी वर्गीज से इंदिरा मारुति परियोजना के खिलाफ लगातार समाचार प्रकाशित करने चलते इतनी कुपित हुईं कि उन्होंने अखबार के मालिक उद्योगपति कृष्ण कुमार बिड़ला से वर्गीज को तत्काल हटाने की बात कह डाली। आज्ञाकारी बिड़ला ने अपने प्रतिभाशाली सम्पादक को तुरंत बर्खास्त करने में देर नहीं लगाई थी। 1974 इंदिरा सरकार के लिए एक साथ कई समस्याएं लेकर आया। मानसून लगातार तीसरे साल भी बेहद खराब रहा जिसका नतीजा अकाल और खाद्य संकट के रूप में विकराल हो उभरने लगा था। बढ़ती कीमतों और मुद्रास्फीति चलते चौतरफा हाहाकार मचने लगा। जनवरी, 1974 में बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार को मुद्दा बना गुजरात में बड़ा छात्र आंदोलन शुरू हो गया। गुजरात में तब कांग्रेस की सरकार थी जिसका नेतृत्व चिमन भाई पटेल के हाथों में था। यह आंदोलन जल्द ही अराजक होने लगा। कानून- व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई और बड़े पैमाने पर दुकानों को लूटने और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया जाने लगा। चिमन भाई पटेल जुलाई 1973 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उन पर और उनकी सरकार पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे थे। 20 दिसम्बर, 1973 को अहमदाबाद के ‘एसडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग’ के छात्र हॉस्टल फीस में वृद्धि के खिलाफ धरने पर बैठ गए। 3 जनवरी, 1974 को गुजरात विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भी हॉस्टल फीस वृद्धि को लेकर धरनारत हो गए। उनको हड़ताल से रोकने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने कैंपस में पुलिस बुला डाली। छात्रों और पुलिस के मध्य झड़प हो गई जिसने शीघ्र ही पूरे गुजरात के छात्रों को आंदोलनरत कर डाला। हालात तब बेहद अराजक हो गए जब श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग भी इस आंदोलन का हिस्सा बन बैठा। पूरे गुजरात में नारा गुंजने लगा ‘चिमन चोर-गद्दी छोड़’। छात्रों का आंदोलन अब मुख्यमंत्री को हटाए जाने और विधानसभा को भंग किए जाने की मांग में तब्दील हो गया। स्थितियां इस कदर बिगड़ी कि अहमदाबाद में दंगाइयों पर काबू पाने के लिए 28 जनवरी को सेना तैनात करनी पड़ी। अंततः प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्देश पर चिमन भाई पटेल ने 9 फरवरी, 1974 को त्याग पत्र दे दिया। छात्र आंदोलन लेकिन इतने भर थमा नहीं। अब इसे ‘नव निर्माण आंदोलन’ का नाम दे विधानसभा भंग करने की मांग पर आंदोलनकारी अड़ गए। कांग्रेस (ओ) के नेता मोरारजी देसाई इस ‘नव निर्माण आंदोलन’ के समर्थन में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर 12 मार्च, 1974 को जा बैठे। भारी जनदबाव एवं मोरारजी देसाई के बिगड़ते स्वास्थ्य चलते 16 मार्च को विधानसभा भंग कर दी गई। इस आंदोलन में कई सौ की मृत्यु और हजारों के घायल होने चलते कांग्रेस, विशेषकर इंदिरा गांधी के प्रति जनाक्रोश देश के अन्य हिस्सों में भी फैलने लगा था। जयप्रकाश नारायण के गृह प्रदेश बिहार में भी छात्र आंदोलन अपनी जड़ें मजबूत करने लगा। यहां भी गुजरात की भांति आंदोलनकारियों की मांग तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को हटाने और विधानसभा भंग कर नए चुनाव कराने की थी। गफूर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। आजादी की लड़ाई के दौरान कई बार जेल भेजे गए गफूर लेकिन बतौर मुख्यमंत्री गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर चुके थे। 18 फरवरी, 1974 को पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के आह्नान पर समूचे बिहार के छात्र नेताओं का एक अधिवेशन बुला ‘बिहार छात्र संघर्ष समिति’ का गठन किया गया। छात्र नेता लालू प्रसाद यादव को इस नवगठित संगठन की कमान सौंपी गई थी। इस संगठन में नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी, वशिष्ठ नारायण सिंह, मोहम्मद शहाबुद्दीन और राम विलास पासवान सरीखे युवा शामिल थे। कालांतर में इनमें से दो नेता बिहार के मुख्यमंत्री तो कई अन्य सांसद, विधायक और मंत्री बने। गुजरात की भांति यह आंदोलन भी हिसंक हो चला था।
रेल रोको आंदोलन ने रचा था इतिहास

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-82
आंदोलनकारियों और राज्य सुरक्षा बलों के मध्य झड़पों में कई आंदोलनकारियों की मौत हो गई थी और समूचा राज्य हिंसा की चपेट में आ गया था। इंदिरा गांधी लेकिन गुजरात की तर्ज पर बिहार के मुख्यमंत्री को हटाने और विधानसभा को भंग करने के लिए कतई तैयार नहीं हुईं। उन्होंने उल्टे आंदोलनकारियों को निशाने पर लेना शुरू कर दिया था। जयप्रकाश नारायण ने ‘बिहार छात्र संघर्ष समिति’ के अनुरोध को स्वीकार इस आंदोलन की कमान अपने हाथों में लेकर इसे बड़ा और देश व्यापी स्वरूप दे डाला। उन्होंने छात्रों के इस संघर्ष में श्रमिकों और समाज के अन्य शोषित -दलित वर्ग को भी शामिल कर इंदिरा गांधी की मुश्किलों को कई गुना बढ़ा दिया। जेपी के नेतृत्व में आंदोलन धीरे- धीरे राष्ट्र व्यापी रूप ले ही रहा था कि मई 1974 में समाजवादी नेता और श्रमिक नेता जॉर्ज फर्नांडीस ने ‘रेल रोको’ आंदोलन शुरू कर पूरी रेल प्रणाली को ठप्प करने का काम कर दिया। रेल कर्मचारी अपनी सेवा शर्तों में सुधार और वेतन में वृद्धि की मांग को लेकर देशभर में धरने पर बैठ गए जिसके चलते रेल संचालन पूरी तरह से बंद हो गया। लगभग दस लाख कर्मचारियों का हड़ताल पर चले जाना एक अभूतपूर्व घटना थी जिसने इंदिरा सरकार की चूलें हिला डाली। सरकार ने इस हड़ताल को गैर कानूनी घोषित कर जॉर्ज फर्नांडीस समेत रेल कर्मचारी यूनियन के नेताओं को गिरफ्तार कर इस आंदोलन को दबाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। तीस से चालीस हजार रेल कर्मचारी इस दौरान गिरफ्तार कर लिए गए और उनके परिवारों को सरकारी घरों से बाहर निकाल फेंक दिया गया। यह हड़ताल बीस दिनों तक जारी रही थी। इस दौरान रेल संचालन ठप्प होने चलते दैनिक उपभोग की वस्तुओं के दामों में बेतहाशा वृद्धि से आम जनता त्राहि-त्राहि करने लगी थी। केंद्र सरकार के दमन चक्र से अंततः यह हड़ताल जब समाप्त हुई तो आमजन ने इसके लिए इंदिरा गांधी की सराहना कर प्रधानमंत्री के इस विश्वास को मजबूती देने का काम किया कि वे ही इस देश को सही मार्ग पर ले जा सकती हैं एवं उनके बिना यह देश दिशाहीन हो जाएगा। रेल हड़ताल 8 मई से 27 मई तक चली थी। विश्व इतिहास में यह आज तक का सबसे बड़ा श्रमिक आंदोलन रहा है जिसमें पौने दो लाख रेल कर्मचारियों ने हिस्सा लिया था। इस हड़ताल का सफलतापूर्वक दमन करने के दौरान ही उत्साहित और ऊर्जावान प्रधानमंत्री ने आम जनता का दिल जीतने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाते हुए 18 मई, 1974 के दिन राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में सफल परमाणु बम परीक्षण कर पूरे विश्व को चौंकाने और सशंकित करने का काम कर दिखाया। उनके इस कदम से देश भर में ‘राष्ट्रवाद’ का उबाल आ गया और कुछ समय के लिए आमजन का ध्यान बिहार आंदोलन और रेल हड़ताल से हट गया। इस परमाणु परीक्षण को ‘ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा’ (Operation Smiling Budha) नाम दिया गया था और यह इतना गोपनीय रखा गया था कि परीक्षण से पहले तक इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल तक को इसकी भनक नहीं लगने दी गई थी। इस सफल परीक्षण के बाद भारत विश्व का छठा परमाणु शक्ति से लैस राष्ट्र बन उभरा। भारत को परमाणु शक्ति बनाने का श्रेय मुख्य रूप से दो व्यक्तियों को दिया जाता है-प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को उनकी दूर-दृष्टि के लिए और परमाणु वैज्ञानिक डॉ होमी जहांगीर भाभा को उनके श्रम और इस विषय पर उनके द्वारा किए गए शोध के लिए। ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से परमाणु भौतिकी की उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ भाभा 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत से पहले भारत लौट आए थे। उन्होंने ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं, विशेषकर जवाहर लाल नेहरू को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने की सलाह दी थी। भाभा ने 1945 में उद्योगपति जेआरडी टाटा के साथ मिलकर परमाणु क्षेत्र में शोध के लिए ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च’, मुम्बई की स्थापना की। आजादी पश्चात् 1948 में ‘परमाणु ऊर्जा अधिनियम’ संसद द्वारा पारित किया गया जिसका उद्देश्य जन कल्याण के लिए और अन्य शांतिपूर्ण प्रयोजनों के लिए परमाणु ऊर्जा विकास करना था। 1954 में बॉम्बे (अब मुम्बई) के ट्रॉम्बे इलाके में परमाणु अनुसंधान केंद्र की नींव रखी गई। साथ ही केंद्र सरकार में परमाणु ऊर्जा के लिए अलग से एक विभाग- ‘परमाणु ऊर्जा विभाग’ शुरू किया गया। डॉ होमी जहांगीर भाभा इस विभाग के पहले सचिव बनाए गए थे। शुरुआती दौर में ‘परमाणु अनुसंधान केंद्र’ और ‘परमाणु ऊर्जा विभाग’ का उद्देश्य शांतिपूर्ण प्रयोजनों के लिए परमाणु ऊर्जा पर कार्य करने तक सीमित था। 1960 की शुरुआत में नेहरू ने भाभा को एटमी शक्ति बनाने की दिशा पर काम करने के निर्देश दे दिए थे। नेहरू की मृत्यु पश्चात् शास्त्री के प्रधानमंत्रित्व काल में एक बार फिर से परमाणु बम विकसित करने के भारतीय प्रयासों में कमी आने लगी थी। शास्त्री बम बनाने से कहीं ज्यादा परमाणु ऊर्जा को शांतिपूर्ण कार्यों के लिए विकसित करने के पक्षधर थे। 11 जनवरी, 1966 को शास्त्री की ताशकंद वार्ता के बाद यकायक हुई मृत्यु के सदमे से अभी देश उभरा भी नहीं था कि एक विमान दुर्घटना में डॉ भाभा की भी मृत्यु हो गई। उनकी असामयिक मौत से भारतीय परमाणु अनुसंधान, विशेषकर परमाणु बम बनाने की योजना को खासा धक्का लगा था। डॉ भाभा हालांकि एक विमान दुर्घटना में मारे गए लेकिन इस दुर्घटना को एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र बतौर देखा जाता है। उनकी मौत के तुरंत बाद ही इस दुर्घटना के पीछे अमेरिकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ का हाथ होने की बात सामने आई थी। कहा गया था कि भारत को परमाणु ताकत बनने से रोकने के लिए डॉ भाभा का विमान सीआईए द्वारा बम से उड़ा दिया गया था। हालांकि इस बाबत कोई भी प्रमाणिक जानकारी आज तक सामने नहीं आ पाई है। अमेरिकी पत्रकार ग्रीगोरी डगलस ने 2013 में प्रकाशित अपनी एक पुस्तक में जरूर शास्त्री और भाभा की मृत्यु बाबत सीआईए के एक पूर्व अधिकारी के हवाले से यह खुलासा किया कि दोनों की ही मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी और दोनों के पीछे सीआईए का हाथ था।’ डॉ भाभा की मृत्यु के बाद शास्त्री के स्थान पर प्रधानमंत्री बनी इंदिरा गांधी ने परमाणु कार्यक्रम को तेज करने में विशेष दिलचस्पी दिखाई। उन्होंने इसे एक गोपनीय मिशन में बदलने के साथ-साथ ही इसकी कमान भी सीधे अपने हाथों में रखने का फैसला लिया था। भारत का पहला परमाणु बम प्रोजेक्ट मात्र पिचहत्तर वैज्ञानिकों की देख-रेख में तैयार किया गया था।
क्रमशः