Editorial

जयप्रकाश संग टकराव की शुरुआत

 पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-81
तेरह सदस्यीय पूर्ण पीठ के सात न्यायाधीशों ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए व्याख्या दी कि यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को संविधान संशोधन का अधिकार प्राप्त है लेकिन यह अधिकार असीमित नहीं है क्योंकि ऐसा कोई भी संशोधन करते समय यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि ऐसे संशोधन (संशोधनों) चलते संविधान की मूल भावना और चरित्र से छेड़छाड़ न हो। इस व्याख्या के दृष्टिगत इन सात न्यायाधीशों ने 24वें संविधान संशोधन को तो वैध करार दिया लेकिन 25वें संविधान संशोधन के एक हिस्से को अवैध मानते हुए व्यवस्था दी कि न्यायपालिका के पास किसी भी कानून को शून्य घोषित करने की शक्ति है, यदि वह असंवैधानिक पाया जाता है तो। 25वें संविधान संशोधन के जरिए इंदिरा सरकार ने ‘संपत्ति के अधिकार’ का अतिक्रमण करते हुए यह कानून बनाया था कि सरकार किसी भी निजी सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकती और ऐसी अधिग्रहित सम्पत्ति का मुआवजा भी खुद ही तय कर सकती है जिसे किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। उच्चतम न्यायालय ने 25वें संविधान संशोधन कानून के इस अंश को अवैध घोषित कर ‘बुनियादी संरचना के सिद्धांत’ (Doctrine of Bsaic Structure)  की नींव रखने का काम किया जिसके अनुसार भारत की संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो निहित है लेकिन बुनियादी संरचना का सिद्धांत संसद की शक्तियों को प्रतिबंधित करता है। इसके अनुसार संविधान में मूल ढांचे अथवा चरित्र के साथ बदलाव करने का अधिकार संसद के पास नहीं है और यदि ऐसा किया जाता है तो उच्चतम न्यायालय ऐसे किसी भी संशोधन को रद्द करने का अधिकार रखती है। इस पूर्ण पीठ के चार न्यायाधीशों ने नौ सदस्यों के मत से भिन्न निर्णय सुनाते हुए संसद के पास असीमित संविधान संशोधन की शक्ति होने की बात कही थी।
इंदिरा गांधी और उनके समर्थकों को उच्चतम न्यायालय का यह फैसला खासा नागवार गुजरा। उनकी नजरों में इस निर्णय के जरिए उच्चतम न्यायालय ने संसद की शक्तियों को सीमित करने और सरकार की ताकत को कम करने का काम किया था। इंदिरा सत्ता के मद में किस कदर चूर हो चुकी थी इसे उच्चतम न्यायालय के इस फैसले बाद उनके द्वारा एक निर्णय से समझा जा सकता है। यह ऐसा अविवेकपूर्ण और अलोकतंात्रिक कदम था जिसने न्यायापालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को कटघरे में खड़ा करने का काम कर दिखाया। उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ के जिन नौ सदस्यों ने ‘बुनियादी संरचना के सिद्धांत’ पर बल देते हुए संसद के अधिकारों को असीमित न होने की बात कही थी, उनमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एमएम सीकरी शामिल थे। 24 अप्रैल को उन्होंने यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अगले ही दिन 25 अप्रैल, 1973 को वे सेवानिवृत्त होने वाले थे। स्थापित परंपरा के अनुसार उनके बाद न्यायमूर्ति जयशंकर मणिलाल शेलत का मुख्य न्यायाधीश बनना तय था। इंदिरा लेकिन उनके तथा उनके बाद वरिष्ठता क्रम में शामिल न्यायमूर्ति केएस हेगड़े और एएन ग्रोवर के नाम पर सहमत नहीं हुई। उन्होंने वरिष्ठता क्रम में चौथे स्थान पर बैठे न्यायमूर्ति एएन रॉय को भारत का नया मुख्य न्यायाधीश बनाने का दबाव तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरी के पास भेज न्यायपालिका को स्पष्ट संदेश देने का प्रयास किया कि उनकी नीतियों की खिलाफत करने का खामियाजा भुगतने के लिए वे सभी तैयार रहें जिन्होंने ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ मामले में सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था। न्यायमूर्ति एएन रॉय उन न्यायाधीशों में शामिल थे जिन्होंने संसद के पास संविधान संशोधन की शक्तियों को असीमित माना था। इंदिरा सरकार के इस निर्णय चलते तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों ने त्याग पत्र दे डाला। प्रधानमंत्री को इस फैसले ने भारी जनाक्रोश पैदा करने का काम किया। जयप्रकाश नारायण अब अपने प्रिय मित्र जवाहर लाल और कमला नेहरू की पुत्री इंदु के प्रति सद्भाव का भाव त्याग सीधे संघर्ष का रास्ता पकड़ने की दिशा में निकल पड़े थे। तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अवमानना कर एएन रॉय को मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने का उन्होंने तीव्र विरोध किया। जेपी ने प्रधानमंत्री को लिख अपने पत्र में उनके इस निर्णय की कड़ी आलोचना करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक निश्चित प्रक्रिया बनाए जाने का सुझाव दिया जिसे इंदिरा गांधी ने महत्व देना उचित नहीं समझा। 27 जून, 1973 को प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में जेंपी ने कहा-‘न्यायपालिका की स्वाधीनता की रक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है। यह कैसे हो इसके लिए सरकार, विपक्ष और जनमत में एक निश्चित राय बननी चाहिए। मैं नहीं सोच पाता कि इससे किसी को असहमति हो सकती है। यह तुम पर या किसी अन्य पर शंका की बात नहीं है। हमें हमेशा अपने को ही सत्ता में रखकर नहीं इन प्रश्नों पर विचार करना चाहिए। लोकतंत्र, समाजवाद आदि के बारे में कोई भिन्न दृष्टिकोण रखने वाली सरकार यदि सत्तारूढ़ हो जाए तो क्या वह भी संतुलन रख सकेगी? इन मूलभूत बातों के लिए संवैधानिक -वैधानिक व्यवस्था ही अधिक उपयुक्त होती है। मैंने बड़ी ईमानदारी से तुमको सुझाव दिया था पर यदि उसके उत्तर में यह पत्र तुमने सोच-समझकर लिखा है तो मुझे बड़ी निराशा हुई है।’ जेपी के पत्रों को नजरअंदाज कर उन्हें अपने तरीके से इंदिरा ने संसद के जरिए जवाब देना उचित समझा। मई, 1973 में केंद्र सरकार में राज्यमंत्री और इंदिरा के अतिविश्वस्त मोहन कुमार मंगल ने लोकसभा में इस मुद्दे पर सरकार की तरफ से बोलते हुए ‘समर्पित न्यायपालिका’ की बात कह डाली। उन्होंने कहा ‘हमें इस बात पर विचार करना होगा कि न्यायाधीशों का दृष्टिकोण कैसा है। क्या यह उचित नहीं कि अदालत और सरकार के मध्य सौहार्दपूर्ण रिश्ता हो?  . . .क्या यह ठीक नहीं था कि तनावपूर्ण संबंधों के समय को समाप्त किया जाए? . . .एक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय . . .हमें जीवन और राजनीति के प्रति उनके दृष्टिकोण का मूल्यांकन करना चाहिए।’ संसद में सरकार के एक मंत्री का ऐसा बयान हर दृष्टि से लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर आघात पहुंचाने वाला और तत्कालीन प्रधानमंत्री की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति तेजी से कमजोर हो रही निष्ठा का प्रतीक था। इंदिरा गांधी शायद तब तक मान चुकी थी कि केवल वे ही भारत की भाग्यविधाता हैं और उनके बगैर देश की गाड़ी के पटरी से उतर जाना निश्चित है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का इस दौर में भारी क्षरण सरकार और कांग्रेस संगठन के भीतर तेज होने लगा था जिसे पूरी तरह से प्रधानमंत्री का संरक्षण प्राप्त था। संगठन और कांग्रेस शासित राज्यों में जनाधारविहीन नेताओं को तरजीह उनकी इन्दिरा के प्रति निष्ठा के आधार पर मिलने लगी थी। कांग्रेस की अधोगति को अंग्रेजी दैनिक ‘पेट्रियाट’ के जुलाई, 1973 के सम्पादकीय से समझा जा सकता है।
‘ . . .ओछी गुटबाजी की महामारी कांग्रेस में एक राज्य से दूसरे राज्य में फैल उसके सांगठनिक ढांचे को पंगु बना रही है और उसके दिमाग को सुन्न कर रही है और एक नैतिक राजनीतिक संकट पैदा करने की धमकी दे रही है, ऐसे समय में जब देश एक अराजक आर्थिक दलदल और दिशाहीनता से जूझ रहा है।’
इंदिरा सरकार और कांग्रेस से आमजन का मोहभंग 1971 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को दिए प्रचंड जनादेश और बांग्लादेश गठन के बाद इंदिरा को ‘दुर्गा’ कह पुकारे जाने के कुछ समय बाद से होना शुरू हो गया था। सत्ता के नशे में चूर इंदिरा लेकिन इसे समझ नहीं पाईं। आजादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर 1972 में दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ने अपने दीक्षांत समारोह में बतौर मुख्य अतिथि उस दौर के ख्याति प्राप्त सिने अभिनेता बलराज साहनी को आमंत्रित किया था। उन्होंने अपने लम्बे सम्बोधन के दौरान आजाद भारत की दारुण दशा और दिशा पर तीखा प्रहार करते हुए कहा था। ‘ . . . इस वर्ष हम अपनी आजादी की 25वीं वर्षगांठ मना रहे हैं लेकिन क्या हम ईमानदारी से कह सकते हैं कि हमने अपनी गुलामी की मानसिकता से छुटकारा पा लिया है? क्या हम यह दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या संस्थागत स्तर पर, हमारी सोच, हमारे निर्णय या यहां तक कि हमारे कार्य भी अपने हैं और मांगे हुए नहीं हैं? क्या हम वास्तव में आध्यात्मिक अर्थों में स्वतंत्र हैं? क्या हम अपने लिए सोचने और कार्य करने का साहस रखते है? या हम केवल ऐसा करने का ढोंग करते हैं? और अपनी स्वतंत्रता का सतही प्रदर्शन करते हैं?  . . .कोई भी देश तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक की वह अपने अस्तित्व, अपने मन और शरीर के बारे में जागरूक न हो जाए। हमें अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं तलाशना होगा और अपने तरीके से हल करना होगा। लेकिन मैं जिस तरफ भी मुड़ता हूं तो यही पाता हूं कि हम उस पंछी के समान हैं जो लंबी कैद के बाद अपने पिंजरे से बाहर तो निकल आया है लेकिन यह नहीं समझ पा रहा है कि इस आजादी का क्या किया जाए। उसके पास पंख हैं लेकिन वह खुली हवा में उड़ने से डर रहा है। वह जैसा पिंजरे भीतर था, उसी तरीके से पिंजरे बाहर भी रहना चाहता है।’
पच्चीस बरस के आजाद भारत में चौतरफा व्याप्त भ्रष्टाचार पर तीखा प्रहार करते हुए साहनी ने कहा-
‘हमारे एक युवा और उत्साही फिल्म निर्माता ने एक प्रयोगात्मक फिल्म बना सरकार से उसे टैक्स फ्री करवाने के लिए सम्पर्क साधा। संबंधित विभाग के मंत्री अगले दिन ही शपथ लेने वाले थे। उन्होंने फिल्म निर्माता को अपने शपथ ग्रहण कार्यक्रम में आमंत्रित करते हुए कहा कि शपथ ग्रहण पश्चात् वे उनके मुद्दे पर बातचीत करेंगे। जब मंत्री महोदय शपथ ले रहे थे कि वे ईमानदारी, सद्नियत और पूरी लगन से जनता की सेवा करेंगे, ठीक उसी समय मंत्री महोदय के सचिव ने इस युवा फिल्म निर्माता को यह बताया कि फिल्म को टैक्स फ्री कराने के लिए उसे कितना काला धन मंत्री को और कितना अन्य लोगों को देना होगा। यह सुन फिल्म निर्माता सदमें और क्रोध में आ गया। उसने निश्चिय कर लिया कि अपनी अगली फिल्म में वह इस बात का वर्णन अवश्य करेगा लेकिन उसे ऐसा करने से उसके प्रोजेक्ट में धन लगाने वालों ने रोक दिया। उन्होंने इस युवा फिल्म निर्माता को समझाया कि ऐसा करके वह स्वयं को नुकसान पहुंचाएगा। सेंसर बोर्ड उसकी फिल्म को प्रदर्शन करने की अनुमति कभी नहीं देगा क्योंकि अलिखित कानून है कि हमारे देश में कोई भी पुलिसवाला अथवा मंत्री भ्रष्ट नहीं होता है।’
अपने संबोधन के अंत में बेहद हताश भाव से बलराज साहनी ने उम्मीद जताई कि- ‘शायद हमें एक मसीहा की जरूरत है जो हमें अपनी दास्ता को त्यागने और एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों समान मूल्यों का निर्माण करने का साहस दे सके। ताकि हमारे पास इतना साहस पैदा हो सके कि हम अपने भाग्य को उनके साथ जोड़ सकें जो शासित रहे थे, न कि उनके साथ जो हमारे शासक थे, उनके साथ जो शोषित रहे थे, न कि उनके साथ जो शोषक थे।’

साहनी के इस भाषण का इतना भारी असर रहा कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रशासन ने भविष्य में दीक्षांत समारोह न कराने का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस निर्णय के पीछे साहनी के क्रांतिकारी भाषण के साथ-साथ जेएनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष का सम्बोधन भी था जिसमें इंदिरा सरकार की कड़ी आलोचना की गई थी। 46 बरस बाद 2018 में एक बार फिर से जेएनयू में दीक्षांत समारोह मनाने की शुरुआत की गई।

 क्रमशः 

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