Country

कहानी इलेक्ट्रोल बॉन्ड की

देश में इन दिनों एक ओर जहां पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों का शोर है वहीं दूसरी तरफ इलेक्ट्रोल बॉन्ड का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच न्यायधीशों की एक संविधान पीठ ने इलेक्ट्रोल बॉन्ड की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया है। ये मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से अधिक समय से लंबित है और इस पर सभी की निगाहें इसलिए भी टिकी हैं क्योंकि इस मामले का नतीजा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर बड़ा असर डाल सकता है।  असल में राजनीतिक दलों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के द्वारा एक बड़ी धनराशि चंदे के रूप में प्राप्त तो होती है लेकिन चंदा देने की इस प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने के कारण इस पर बार-बार विवाद होते रहे हैं। कहा जा रहा है कि बीते पांच वर्षों में राजनीतिक पार्टियों को करीब 10 हजार करोड़ रुपए का चंदा मिला है। इसमें आधे से ज़्यादा राशि इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए बीजेपी को मिला है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि इतना चंदा किसके द्वारा, क्यों दिया जाता है? या जो पार्टी सत्ता में होती है, उसे ही सबसे ज़्यादा चंदा क्यों मिलता है? ऐसे ही कई सवाल हैं जिनके जवाब के लिए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं।

इलेक्ट्रोल बॉन्ड से पहले पार्टियों को कई तरीकों से चंदा दिया जाता था। जिसमें आम जनता, कंपनियां और उद्योगपति द्वारा चेक पार्टी के अकाउंट में जमा करा दिया जाता था। जिसमें आम जनता, कंपनियां और उद्योगपति द्वारा चेक के जरिए पार्टी के अकाउंट में जमा करा दिया जाता था। इस प्रकार के चंदे को किसने दिया यह संबंधित जानकारी राजनीतिक दल को सार्वजनिक करना पड़ता है। लेकिन, इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए मिले चंदे में दानदाता का नाम सार्वजनिक नहीं किए जाने का प्रावधान है।

क्या है इलेक्ट्रोल बॉन्ड
वर्ष 2017 में पहली बार भारत सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम की घोषणा की थी। इस स्कीम को लाने का मकसद था, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को सही ढंग से रेग्युलेट करना। इससे पहले जिस प्रकार से चंदा दिया जाता था उसमें काले धन के प्रयोग की आशंका थी। चंदा पारदर्शी तरीके से पॉलिटिकल पार्टियों के पास पहुंचे, इसके लिए मनी बिल के तहत यह योजना लाई गई थी। इसके बाद केंद्र सरकार ने 29 जनवरी, 2018 को इलेक्ट्रोल बॉन्ड योजना को लागू कर दिया। लेकिन यह मुद्दा तभी से विवादित रहा है। इस योजना के तहत सरकार के द्वारा एक तरह का फाइनेंशियल बॉन्ड जारी किया जाता है, इसे आप गिफ्ट वाउचर या वचन पत्र के रूप में समझ सकते हैं। इन बॉन्ड्स को व्यक्ति या कंपनी के द्वारा भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदा जाता है। बैंक से खरीदे गए इन बॉन्ड्स को दान देने वाले के द्वारा राजनीतिक दल को सौंप दिया जाता है। इस को खरीदने के लिए आधार कार्ड और केवाईसी करने की जरूरत होती है लेकिन इस पर दाता को अपना नाम जाहिर करने की जरूरत नहीं होती है। यानी कि चंदा देने वाला अपना नाम उस बांड पर न लिखकर अपनी गोपनीयता को बनाए रख सकता है।

क्यों लाई गई यह योजना
इस योजना को लाने के पीछे सबसे बड़ी वजह थी पॉलिटिकल पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता स्थापित करना। इस स्कीम में पॉलिटिकल पार्टियां दिए गए चंदे को कहां खर्च करेंगी, इसका ब्योरा देने के लिए बाध्य होंगी। काले धन का प्रयोग बंद होगा, इसके लिए नकद लेनदेन को हतोत्साहित किया गया। साथ ही, दानदाता के नाम को गुमनाम रखकर उसे संरक्षण देने का काम किया गया ताकि उसे किसी तरह के हैरेसमेंट का सामना ना करना पड़े।

क्यों हो रही है आलोचना
इस स्कीम की आलोचना की तमाम वजहें हैं। पहली वजह है, दानदाताओं के नाम को गुप्त रखा जाना। इसी विषय पर सुप्रीम कोर्ट में मामला भी लंबित है। आलोचना करने वालों की दलील है कि मतदाताओं को दानदाता का नाम जानने का अधिकार है। उन्हें अनुच्छेद 19 के तहत यह अधिकार प्राप्त है। आलोचना की दूसरी वजह है, दानदाताओं का डेटा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के पास मौजूद होना। इससे आशंका जताई जाती है कि सत्ताधारी दल की इस डेटा तक सीधी पहुंच हो सकती है, जिसका गलत इस्तेमाल हो सकता है। इसके समाधान के लिए उनका सीधा कहना है कि इस डेटा तक सबकी पहुंच हो। डेटा पब्लिक डोमेन में होने से इस तरह की किसी आशंका का डर अपने-आप खत्म हो जाएगा। आलोचना की तीसरी वजह है, दान की लिमिट का खत्म किया जाना। इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम के लागू होने पर पुराना प्रावधान खत्म हो गया था, जिसमें कंपनी एक्ट के तहत सिर्फ वही कंपनियां चंदा दे सकती थीं, जिनका बीते तीन वित्त वर्ष का शुद्ध मुनाफा साढ़े सात फीसदी से अधिक रहा हो। 2018 में इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम लागू होने के बाद कोई भी कंपनी चंदा दे सकती है। इससे जाली कंपनियों के चंदा देने की आशंका बढ़ी है। साथ ही, यह भी कहा जा रहा है कि सिर्फ चंदे के लिए जाली कंपनियां बनाकर काले धन को चंदे के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इस कानूनी सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायधीशों की संविधान पीठ पहले से ही विचार कर रही है।

भाजपा को सबसे अधिक चंदा
चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉन्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपए मिले। इसमें 58 प्रतिशत यानी लगभग 5272 करोड़ रुपए अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी में आये थे। इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्ट्रोल बॉन्ड से क़रीब 952 करोड़ रुपए मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपए मिले।

एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिये मिलने वाले चंदे में 743 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि में राष्ट्रिय पार्टियों को मिलने वाला कॉरपारेट चंदा केवल 48 फीसदी बढ़ा। एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 (जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था) में सबसे ज्यादा 3,439 करोड़ रुपए का चंदा इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए आया। इसी तरह वर्ष 2021-22 में (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए) राजनीतिक पार्टियों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए क़रीब 2,664 करोड़ रुपए का चंदा मिला।

2017 में दायर की गई थी पहली याचिका
पिछले कुछ सालों में ये सवाल बार-बार उठा कि इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है। यह योजना बड़े कॉरपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी। इस योजना को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में पहली याचिका वर्ष 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और गैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी। दूसरी याचिका साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने दायर की थी। इस योजना की वजह से भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा
असीमित राजनीतिक दान और राजनीतिक दलों के गुमनाम फंडिंग पर भी आपत्तियां उठाई हैं जो कंपनियों को अपने वार्षिक लाभ और हानि खातों में राजनीतिक योगदान का विवरण देने से छूट देते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बढ़ी है और राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने को बढ़ावा भी मिला है।

क्या है इलेक्ट्रोल ट्रस्ट स्कीम?
इलेक्ट्रोल बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट में तीन दिन चली सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इलेक्ट्रोल ट्रस्ट का जिक्र किये जाने के बाद से यह मुद्दा भी विवाद का हिस्सा बन गया है। इलेक्ट्रोल ट्रस्ट स्कीम यूपीए-2 सरकार के द्वारा वर्ष 2013 में लागू की गई थी। इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम से पहले देश में पॉलिटिकल पार्टियों को फंड देने के लिए इलेक्ट्रोल ट्रस्ट या चुनावी ट्रस्ट स्कीम का उपयोग किया जाता रहा है। इसमें एक्ट 1965 के सेक्शन 25 के तहत रजिस्टर्ड कंपनियां ही इलेक्ट्रोल ट्रस्ट बना सकती हैं और कोई भी कंपनी या व्यक्ति इसके जरिए राष्ट्रीय या स्थानीय दलों को दान करते हैं।

इलेक्ट्रोल बॉन्ड और इलेक्ट्रोल ट्रस्ट में अंतर इलेक्ट्रोल बॉन्ड में फंड डोनेट करने वाले की पहचान और किस पार्टी को फंडिंग की गई, दोनों चीजों को गुप्त रखा जाता है। वहीं, इलेक्ट्रोल ट्रस्ट में कंट्रीब्यूशन के वक्त डोनर की पहचान बताना जरूरी होता है। हालांकि इसमें विभिन्न कंट्रीब्यूटर हों तो यह पता करना मुश्किल होता है कि किसने किसे फंड दिया। इलेक्ट्रोल ट्रस्ट को लेकर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि इसमें डोनर की गोपनीयता नहीं रखी जाती है। लोगों ने इलेक्ट्रोल ट्रस्ट के जरिए भुगतान करना पसंद नहीं किया, इसलिए इलेक्ट्रोल बॉन्ड को लाया गया।

सुप्रीम कोर्ट में तीन दिन तक चली सुनवाई
चुनावी बांड को जारी हुए करीब 5 साल होने जा रहे हैं, लेकिन इसके बारे में लम्बे समय से बनी अपारदर्शिता के कारण यह मुद्दा शुरुआत से ही विवादित रहा है। इस मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए। वहीं सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने याचिकाकर्ताओं की तरफ से पैरवीं की। इस मामले पर 31 अक्टूबर से सुनवाई शुरू हुई, लेकिन इससे एक दिन पहले यानी 29 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा एक हलफनामा पेश किया गया जिसमें इस स्कीम के समर्थन में कहा गया कि ‘यह योजना राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में ‘व्हाइट मनी’ के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है। देश के आम नागरिकों को चुनावी बॉन्ड के स्रोतों को जानने का अधिकार नहीं है। इन्होंने यह तर्क भी दिया कि नागरिकों को उचित कारण के बिना सब कुछ जानने का अधिकार नहीं हो सकता है। साथ ही यह स्कीम डोनर्स की पहचान उजागर न करने की सुविधा भी देती है। यह स्कीम किसी भी प्रकार के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती।’ इस बात का संदर्भ उस तर्क से जुड़ा हुआ है, जिसके तहत ये मांग की जा रही है कि राजनीतिक पार्टियों को ये जानकारी सार्वजानिक करनी चाहिए कि उन्हें कितना धन चंदे के रूप में किससे मिला है। इससे यह तो स्पष्ट होता है कि सरकार इस पक्ष में नहीं है कि इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम में कोई बदलाव किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे को लेकर तीन दिन तक सुनवाई चली जिसके बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख, अगली सुनवाई की तारीख अभी तक नहीं बताई है। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पार्टियों को मिली फंडिंग का डाटा नहीं रखने पर चुनाव आयोग से नाराजगी जताई है और अदालत ने आयोग से राजनीतिक दलों को 30 सितंबर तक इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए कहां से कितना पैसा मिला है, उसकी जानकारी जल्द से जल्द देने को कहा, और केंद्र सरकार से चीफ जस्टिस द्वारा कुछ गंभीर सवाल भी पूछे गए कि ‘इलेक्ट्रोल बॉन्ड की क्या जरूरत है? सरकार तो ऐसे भी जानती है कि उन्हें चंदा कितना और कौन दे रहा है। इलेक्ट्रोल बॉन्ड मिलते ही पार्टी को पता चल जाता है कि किसने कितना चंदा दिया है और वोटर्स के अधिकारों का क्या?’ इस पर सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि ‘किसने कितना पैसा डोनेट किया, यह सरकार नहीं, बल्कि चंदा देने वाला ही अपनी पहचान छुपाना चाहता है। वह नहीं चाहता कि किसी दूसरी पार्टी को इसका पता चले। अगर मैं कांग्रेस को चंदा दे रहा हूं तो मैं नहीं चाहूंगा कि भाजपा को इसका पता चले।’

प्रशांत भूषण (उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता) ने कहा कि ‘ये बॉन्ड केवल रिश्वत है, जो सरकारी फैसलों को प्रभावित करते हैं। नागरिकों को जानने का हक है कि किस पार्टी को कहां से पैसा मिला। केंद्र का सत्तारूढ़ दल को कुल योगदान का 60 प्रतिशत से अधिक दान मिला है। अगर किसी नागरिक को उम्मीदवारों, उनकी संपत्ति, उनके आपराधिक इतिहास के बारे में जानने का अधिकार है तो उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि राजनीतिक दलों को कौन फंडिंग कर रहा है? जिस पर वेंकटरमणी ने कहा, नागरिकों को ये अधिकार तो है कि वे उम्मीदवारों की क्रिमिनल हिस्ट्री जानें, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि उन्हें पार्टियों की इनकम और पैसों के सोर्स जानने का अधिकार है।’

चीफ जस्टिस ने कहा विपक्ष क्यों नहीं ले सकता चंदे की जानकारी? इस पर केंद्र सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने पक्ष रखा कि इलेक्ट्रोल बॉन्ड से राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता आई है। चंदा देने वाले ही नहीं चाहते कि उनके दान देने के बारे में दूसरी पार्टी को पता चले। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर ऐसी बात है तो फिर सत्ताधारी दल विपक्षियों के चंदे की जानकारी क्यों लेता है? इसके बाद कांग्रेस नेता पी.चिदंबरम ने भाजपा पर आरोप लगाया कि वह बड़े कॉर्पोरेट्स से अपारदर्शी, गुप्त और षड्यंत्रकारी तरीके से अपना धन जुटाती है। लेकिन कांग्रेस ऐसे किसी भी विचार का विरोध करती है। हम पारदर्शी और लोकतांत्रिक तरीके से फंडिंग में यकीन रखते हैं।’

You may also like

MERA DDDD DDD DD