पड़ताल
‘‘बंदुक्या जसपाल राणा तू सिस्त साधी दे निशाणु साधी दे उत्तराखण्ड म बाघ लग्युं बाघ मार दे, मनस्वाग मार दे’’ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के इस गीत में उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों में मंस्वाग यानी आदमखोर बाघों द्वारा की जा रही हत्याओं का मार्मिक वर्णन किया गया है। इस गीत की भी एक दिलचस्प कहानी रही है। करीब दो दशक पूर्व कॉमनवेल्थ खेलों में दिग्गज भारतीय शूटर जसपाल राणा ने निशानेबाजी में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। उसी समय उत्तराखण्ड के कई पहाड़ी जिलों के क्षेत्रों में आदमखोर गुलदारों का आंतक बना हुआ था। वन विभाग के शिकारियों द्वारा आदमखोर बाघ को मारने की नाकामी बाद गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने जसपाल राणा को सम्बोधित करते हुए गुलदार के आतंक को अपने इस गीत के जरिए सामने रखा। आज दो दशक बाद भी गुलदारों का आतंक पहाड़ी क्षेत्रों में जस का तस बना हुआ है। बाघ पहाड़वासियों के लिए यमराज का पर्याय बन चुका है। गौर करने वाली बात यह है कि जिस बाघ को मौत का दूत माना जाता है वह राष्ट्रीय पशु बाघ यानी टाइगर नहीं, तेंदुआ है जिसे पहाड़ी क्षेत्रों में गुलदार या बाघ कहा जाता है। पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद मानव और वन्य जीव के बीच चलने वाले संघर्ष के आंकड़ो अनुसार अभी तक कुल 1,115 लोगों की जान गई है जिसमें 550 से ज्यादा लोग गुलदार द्वारा मारे गए हैं। जबकि 1,868 लोगों को गुलदार हमला करके घायल कर चुका है। महज 24 वर्षों में यह आंकड़ा बहुत ही भयावह है
उत्तराखण्ड में आदमखोर बाघों और गुलदारों के आंतक की कई बड़ी-बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं जो आज भी लोक गीतों के माध्यम से याद की जाती हैं। आज से करीब 50 वर्ष पूर्व लैंसडॉन में आदमखोर गुलदार का आतंक इतना बढ़ गया था कि लैंसडॉन छावनी के फौजियों के मध्य तक इसका भय फैल गया। तब लोकगायक स्वर्गीय चंद्रसिंह राही द्वारा ‘‘फ्वां बाघा रे’’ गीत गाया गया था। यह गीत आज भी बेहद लोकप्रिय बना हुआ है। गायक नरेंद्र सिंह नेगी बताते हैं कि उस समय वे लैंसडॉन रह पढ़ाई करते थे लेकिन आदमखोर गुलदार का इतना भय था कि उनके पिता ने उनको लैंसडॉन से वापस बुला लिया। सैन्य क्षेत्र होने के बावजूद लैंसडॉन गुलदार के आंतक से इतना त्रस्त था कि इसके कई किलोमीटर परिक्षेत्र में भी शाम होते ही अघोषित कर्फ्यू लग जाता था।
इसी तरह से पौड़ी के दुगड्डा में एक बेहद खतरनाक गुलदार का आतंक भी 1970 के दशक में देखने को मिल चुका है। इस गुलदार ने दर्जनों लोगों और अनेक मवेशियों को मार डाला था। आज भी इसे ‘दुगड्डा का नरभक्षी’ के नाम से याद किया जाता है। इस गुलदार के बारे में कहा जाता था कि यह मानव रक्त-मांस का इतना आदी हो चुका था कि एक ही दिन में दो से ज्यादा लोगों पर इसका कहर टूटता था। अनेक प्रयास के बाद विख्यात शिकारी ठाकुर दत्त जोशी और वन विभाग की टीम इसका अंत करने में सफल हुई थी।
गुलदारों के आंतक पर कई लोकगीत और पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। विश्व प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट ने कई आदमखोरों का आतंक खत्म किया जिसमें सबसे चर्चित रूद्रप्रयाग का नरभक्षी गुलदार रहा है। यह नरभक्षी इतना शातिर और हिंसक था कि इसने 125 लोगों को अपना निवाला बनाया था। जिम कॉर्बेट जैसे अनुभवी शिकारी भी इसको मारने के लिए महीनों तक खाक छानते रहे और अनेक प्रयासों के बाद रूद्रप्रयाग जिला मुख्यलाय के समीप गुलाबराय स्थान पर जिम कॉर्बेट द्वारा इसे मार, इसके आंतक से कई जिलों के निवासियों को छुटकारा दिलवाया। गुलाबराय में इसका स्मारक बना हुआ है जो आज भी रूद्रप्रयाग के इस नरभक्षी गुलदार की याद ताजा करता रहता है। जिम कॉर्बेट की पुस्तक ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं (Man Eaters of Kumaon) में इस प्रकार के कई आदमखोरों का विस्तार से जिक्र किया गया है।
पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद मानव और वन्य जीव के बीच चलने वाले संघर्ष के आंकड़ों अनुसार अभी तक कुल 1,115 लोगों की जान गई है जिसमें 550 से ज्यादा लोग गुलदार द्वारा मारे गए हैं। जबकि 1,868 लोंगो को गुलदार हमला करके घायल कर चुका है। महज 24 वर्षों में यह आंकड़ा बहुत ही भयावह है। आज भी नरभक्षी गुलदारों की दहशत प्रदेश में खास तौर पर पहाड़ी जिलों के निवासियों के लिए मौत का पर्याय बना हुआ है। इसके चलते मनुष्य के साथ-साथ पालतू पशुओं की भी जान खतरे में हैं। गत् सप्ताह ही नैनीताल जनपद के रामनगर में जिमकार्बेट टाइगर रिजर्व क्षेत्र में दो स्थानीय निवासियों को एक आदमखोर ने अपना शिकार बना डाला है।
71 फीसदी वन क्षेत्र वाले इस पहाड़ी राज्य में सदियों से मानव और वन्य जीवों के साथ जीवन-यापन करते रहे हैं। लेकिन विगत कुछ वर्षों से मानव और वन्य जीवों के बीच संघर्ष की घटनाएं बेहद तेजी से बढ़ी हैं। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय में भी यह संघर्ष बना हुआ था लेकिन इस संघर्ष में मानव जीवन पर संकट कम ही देखा गया है। तब इसका ज्यादातर प्रभाव पालतु पशुओं पर ही होता था। साल में एक-दो घटनाएं ही होती थी जिसमें गुलदार द्वारा मानव हत्या की गई हो। राज्य बनने के बाद परिस्थितियों में लेकिन बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। गुलदार अब आवासीय घरों में भी घात लगाकर हमला कर रहे हैं। यहां तक कि खूंटे से बंधी गाय, बछिया, बैल, पालतु, कुत्तों आदि को गुलदार द्वारा मारा जाने लगा है। साथ ही अब घर में घुस कर छोटे-छोटे बच्चों और खेतांे में काम करने वाली महिलाओं और बुजुर्गों को भी अपना निवाला बना रहा है। इसके चलते आज कई क्षेत्रों में स्कूली बच्चों को स्कूल जाना तक बंद हो रहा है। प्रशासन को बकायदा इसके लिए आदेश तक जारी करना पड़ रहा है। वर्ष 2024 में ही करीब 40 लोग वन्य जीवों के हमलांे में अपनी जान गंवा चुके हैं जिसमें 13 लोगों की हत्या गुलदारों द्वारा की गई है। मैदानी हो या पहाड़ी जिले करीब-करीब हर जिलों में इसके आक्रमक होने और मनुष्यों पर हमला करने की घटनाएं बढ़ रही हैं।
आतंक के साए में आधा उत्तराखण्ड
रूद्रप्रयाग जिले में वर्ष 2015-24 तक महज 8 वर्ष में 7 लोगों को गुलदार ने शिकार बनाया। 2015 में मल्ला पलन गांव में एक व्यक्ति की हत्या के मामले के बाद 4 वर्ष तक तो शांति रही लेकिन वर्ष 2020 से लेकर 2023 तक लगातार हर वर्ष गुलदार के हमले होते रहे। 2020 में तो जिले के बांसी, पपडासू और धारी गांवों में गुलदार द्वारा तीन लोगों को अपना निवाला बनाया। आज भी जिले के जखोली विकासखंड में दिन-दहाड़े गुलदार की आमद से स्थानीय जनता में भय बना हुआ है।
चमोली जिले के कर्णप्रयाग, थराली, गौचर, गौरसैंण आदि बदरी, लंगासू, नौटी, सिदौली, मैखुरा, मकोठ, सिमल्ट, भटौली, उज्जवलपुर, चमोला, पुटयाणी, तोप, माथर, प्यूंला, मलेठी, पज्याणा आदी क्षेत्रों में भी 2019 में गुलदारों की अति सक्रियता के चलते इन क्षेत्रों में शाम ढलने के बाद आवागमन यहां तक कि स्थानीय बाजार तक बंद हो जाते थे। हालांकि इन क्षेत्रों में गुलदारों द्वारा किसी मानव पर हमला करने की कोई घटना नहीं हुई है लेकिन शाम ढलते ही गुलदारों के गांव के नजदीक आने और विचरण करने से दहशत का माहौल कई महीनों तक बना रहा।
गुलदारों से सबसे ज्यादा त्रस्त जिला कोई रहा है तो वह पौड़ी जिला है। दशकों पूर्व दुगड्डा और लैंसडॉन क्षेत्र के कुख्यात नरभक्षी गुलदारों की कहानियां भले ही बीते हुए कल की बात रही हो लेकिन आज भी इस जिले के ग्रामीण गुलदारों के हमलों को झेलने को शापित हैं। बीते दो- तीन वर्षों में ही जिले के दुगड्डा, पणखेत, द्वारीखाल, बीरोखाल और रिखणीखाल तथा नैनीडांडा विकासखंडों में गुलदारों और बाघों का आतंक से समूचे क्षेत्र में दहशत का माहौल बना हुआ है। तीन वर्षों के भीतर इन क्षेत्रों में दो दर्जन घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें बाघ और गुलदारों द्वारा ग्रामीणों को न सिर्फ हमला करके बुरी तरह से घायल किया, साथ ही 19 लोग अपनी जान गवां चुके हैं।
रिखणीखाल और नैनीडांडा क्षेत्रों से कालागढ़ टाईगर रिजर्व क्षेत्र सेे सटे होने केे कारण इस क्षेत्र में बाघों की आमद भी तेजी से बढ़ रही है जबकि गुलदारों का तो यह पसंदीदा क्षेत्र शुरू से ही रहा है। पिछले वर्ष रिखणीखाल में एक बाघिन अपने दो शावकों के साथ इस क्षेत्र में आ गई जिससे क्षेत्र के स्कूलों को भी बंद करना पड़ा। दिसम्बर माह में फिर से रिखणीखाल क्षेत्र मैं गुलदार के हमलों की आशंका चलते जिलाधिकारी पौड़ी द्वारा स्कूलों में अवकाश के आदेश जारी करने पड़े।
पौड़ी जिले का लैंसडॉन क्षेत्र भी गुलदारों के हमलों से अछूता नहीं है। हालांकि अभी तक क्षेत्र में किसी इंसान के गुलदार द्वारा मारे जाने की कोई घटना तो सामने नहीं आई है लेकिन गुलदारों की आक्रमकता की घटनाएं बेहद तेजी से बढ़ रही हैं। महज दो वर्षों के भीतर दोपहिया वाहन चालकों पर गुलदारों के हमले करने और उनका पीछा करने की 10 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें बाईक सवार बुरी तरह से घायल हो चुके हैं।
श्रीनगर और इसके आस-पास के क्षेत्रों में गुलदारों के हमलों की अभी तक 15 घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें श्रीनगर मेडिकल कॉलेज में भी गुलदार के घुसने और हमला करने की घटना प्रमुख है। मेडिकल कॉलेज में घुसे गुलदार के हमलों के बाद वन विभाग द्वारा उसे शूटर द्वारा मरवाना पड़ा। नगर में आए दिन गुलदारों की रात में चहलकदमी की अनेक घटनाएं सीसी टीवी में कैद हो चुकी है। स्कूटी सवारों पर हमले करने, देवलगढ़ और सरणा गांव में गौशाला में बंधी गायों को गुलदार द्वारा मारे जाने की भी घटनाएं देखने में आ चुकी है। इनमें एक घटना कोट विकासखंड के दिगोली गांव में देखने को मिली जब काम से लौट रहे मजदूरों पर हमला करने के लिए गुलदार ने उनका बड़ी दूर तक पीछा किया। मजदूरों ने किसी तरह से भागकर अपनी जान बचाई। दूसरी घटना श्रीनगर के समीप उफल्टा में भी देखी गई जिसमें गुलदार द्वारा पीएसी के दो सिपाही स्कूटी पर करीब रात नौ बजे के बाद कीर्तिनगर से अपनी ड्यूटी पूरी करके घर श्रीनगर जा रहे थे तभी उफल्टा के पास झाड़ियों से निकल कर गुलदार ने उन पर हमला कर दिया। हालांकि उनकी जान तो बच गई लेकिन गुलदार के हमले में वे दोनों घायल हो गए।
टिहरी जिला भी अब गुलदारों के चलते सुर्खियों में है। घनशाली, प्रतापनगर, कीर्तिनगर, थाति कठूड़ क्षेत्रों में गुलदारों के हमले बढ़ रहे हैं। गत् वर्ष दिसंबर माह में ग्यारगांव और हिंदाव पट्टी क्षेत्र में वन विभाग के शिकारियों ने एक नरभक्षी गुलदार को मार गिराया है तो पिछले वर्ष मलेथा में आदमखोर और दिन-दहाड़े हमला करने वाले गुलदार को वन विभाग के ही द्वारा मौत के घाट उतारा गया है। मलेथा क्षेत्र में विगत तीन वर्षों से गुलदार की दहशत बनी हुई है। डांगचौरा और मलेथा क्षेत्र में शाम ढलते ही गुलदार के सक्रिय होने से दहशत बनी हुई है।
घनशाली भिंलग क्षेत्र के ग्यारगांव और हिंदाव पट्टी क्षेत्रों में महज 13 वर्ष में आदमखोर गुलदार द्वारा मानव हत्या करने के 5 मामले सामने आ चुके हैं। सबसे पहले 2011 में ग्यारगांव में गुलदार ने एक व्यक्ति का शिकार किया तो 2014 में हिंदाव पट्टी क्षेत्र में भी एक व्यक्ति को मार डाला। 2022 में ग्यारगांव पट्टी क्षेत्र में एक स्कूली बच्ची को गुलदार ने अपना शिकार बनाया। 2024 में फिर से हिंदाव पट्टी में गुलदार ने अपनी धमक दिखाई और दो माह के भीतर दो मासूम बच्चों को मार डाला।
उत्तरकाशी जिले में भी गुलदार के हमलों की आशंका बनी हुई है। सौभाग्य से अभी तक जिले में गुलदार द्वारा किसी मानव की हत्या करने की कोई घटना तो नहीं हुई है लेकिन नौगांव विकास खंड के अपर यमुना वन प्रभाग में गुलदार की दहशत बनी हुई है। मांडणा गांव में घास काटती ग्रामीण महिला पर गुलदार ने हमला करके उसे घायल किया है। साथ ही दिन-दहाड़े गांव के समीप गुलदार के आने की घटनाएं भी खूब हो रही हैं। चिन्यालीसौड़ के चमियारी, उलणा गांव में भी गुलदार के गांव के नजदीक घूमने से ग्रामीणों में डर का माहौल बना हुआ है। टौंस वन प्रभाग क्षेत्र के पुरोला के आस-पास गुलदार का भय बना हुआ है। दो माह के भीतर तीन घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें गुलदार द्वारा पालतु पशुओं की हत्याएं की गई हैं। इसके चलते ग्रामीण क्षेत्रों में शाम ढलते ही सन्नाटा पसर जाता है।
देहरादून जिले में भी गुलदारों द्वारा हत्याएं करने की बड़ी-बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। वर्ष 2014 से लेकर अब तक 26 लोगों की हत्याएं गुलदार के द्वार की गई है। पिछले दो वर्ष में देहरादून शहर से सटे ईलाकों में गुलदारों की दहशत बढ़ी है। बाजावाला, कौला गढ़, एफआरआई क्षेत्रों में गुलदार के देखे जाने और बाईक सवारों का पीछा करने की घटनाएं हो चुकी हैं। भारतीय वन अनुसंधान एफआरआई परिसर में गुलदार के घुसने की घटनाएं हो चुकी है।
देहरादून जिला राजाजी नेशलन पार्क से सटा हुआ है। इसके चलते जिले के कई क्षेत्रों में वन्यजीवों की आमद बनी रहती है। इसका सबसे प्रभावित क्षेत्र रायवाला का मोतीचूर, गौहर माफी प्रतीत नगर रेंज को माना जाता है। वर्ष 2014 से लेकर 2019 तक इस रेंज क्षेत्र में 25 लोग गुलदार के हमलों में मारे गए हैं। जबकि 11 लोगों के बुरी तरह से घायल होने की घटनाएं हो चुकी हैं। मार्च 2014 में 2 लोग, 2015 में मार्च से लेकर सितम्बर तक 5 लोगों की हत्याएं गुलदार द्वारा की गई। फरवरी 2016 से नवम्बर 2016 तक 3 लोगों की मौत का कारण भी गुलदार ही रहा है। इसी प्रकार से मई 2017 से 31 दिसम्बर 2017 तक 5 लोग गुलदार के हमलो में मारे गए। 17 फरवरी 2018 से लेकर जुलाई 2018 तक 6 लोगों की हत्याएं गुलदार द्वारा की गई है।
महज 6 माह के भीतर 6 लोगों के गुलदारों द्वारा मारे जाने की घटनाएं बेहद चौंकाने वाली हैं। अगस्त 2019 में मोतीचूर रेंज में भी एक व्यक्ति की हत्या गुलदार द्वारा की गई है तो अप्रैल 2024 में सेलाकुई के शंकरपुर गांव में घर के बाहर खेलते हुए 4 वर्षीय बालक को गुलदार द्वारा मारा जा चुका है। पिछले वर्ष राजपुर क्षेत्र में रिस्पना नदी तट पर खेलते हुए दो बालकों पर गुलदार द्वारा हमला करके घायल करने की भी घटना सामने आ चुकी है।
तराई क्षेत्र में भी गुलदारों द्वारा नर हत्याएं की गई हैं जिसमें गुलरभोज में एक वृद्ध व्यक्ति को गुलदार ने मार डाला तो ऊधमसिंह नगर के नानकमत्ता में एक किसान के 13 वर्षीय पुत्र को घर के आंगन से ही गुलदार उठाकर ले गया जिससे उसकी मौत हो गई। बागेश्वर जिले के कांडा के औलानी गांव में तीन वर्षीय बालिका को उसकी दादी के हाथों से गुलदार ने छीन कर मार डाला। रानीखेत में ग्वाड़ के समीप दो बाईक सवारों पर गुलदार द्वारा हमला करके घायल किया गया।
राज्य में गुलदारों का आंतक किस तरह से बढ़ गया है इसका असर विधानसभा सत्र में भी देखने को मिला है। 2024 में गैरसैंण के मानसून सत्र में लैंसडॉन से भाजपा विधायक मंहत दिलीप रावत ने तो सदन में पहाड़ को गुलदारों से बचाने की मांग करते हुए सरकार से राज्य की वन नीति के लिए एक दिन का विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग की। महंत दिलीप रावत ने सदन और सदन के बाहर अपने हाथों में गुलदारों से पहाड़ बचाएं लिखी हुई तख्ती के साथ प्रदर्शन तक किया।
बदल रहा है गुलदारों का व्यवहार
गुलदारों के हिंसक होने और मनुष्य पर हमला करने की घटनाओं से वन्य जीव विशेषज्ञ भी हैरान हैं। जहां कभी 10 किमी. परिक्षेत्र में एक या दो गुलदारों की चहलकदमी देखी जाती थी अब 5-5 किमी. क्षेत्र में चार से भी ज्यादा गुलदार देखे जाने लगे हैं। प्रसिद्ध शिकारी जॉय हुकिल बताते हैं कि ‘गुलदारों के रहन-सहन और प्रवृत्ति और वन्य जीवन व्यवहार का मुझे 40 वर्ष से ज्यादा अनुभव है। कभी एक साथ इतने गुलदार एक ही समय पर एक क्षेत्र में नहीं देखे गए हैं। अब 6 किमी. क्षेत्र में मैंने 5 से ज्यादा गुलदारों को देखा है जो आराम से विचरण कर रहे हैं, शिकार कर रहे हैं और मादाओं के साथ संसर्ग कर रहे हैं। हिंसक व्यवहार पहले भी गुलदारों में देखा जाता रहा है लेकिन अब वे ज्यादा हिंसक होने लगे हैं। इसका प्रभाव समूचे वन्य जीवों और इको सिस्टम पर पड़ रहा है। गुलदारों के ज्यादा हिंसक होने के पीछे उनके क्षेत्रों में एक से ज्यादा गुलदार के होने से बढ़ रही है इसका प्रभाव उनकी शिकार की प्रवृत्ति के विपरीत पड़ रहा है। पालतु पशुओं को गुलदार मार रहा है लेकिन उसका पूरा मांस नहीं खा पा रहा है।’
जॉय हुकिल के अनुसार ‘इसी तरह से भेड़-बकरियों के गोठों में गुलदार घुस कर एक ही रात में दजर्नों भेड़-बकरियों को मार रहा है लेकिन उनका मांस नहीं खा रहा है। इससे एक बात तो साफ हो रही है कि गुलदार सिर्फ आंनद लेने के लिए भेड़-बकरियों का संहार कर रहा है।’ गौरतलब है कि प्रदेश के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें पशु पालकों खास तौर पर भेड़-बकरी पालकों के गोठों में गुलदार के घुसने और एक ही रात में दर्जनों भेड़-बकरियों की हत्या करने की घटनाएं हो रही हैं। ज्यादातर मामलों में गुलदार ने मार डाले गए पशुओं का मांस खाया ही नहीं है। यह व्यवहार सबको चौंका रहा है। कुछ जानकार कहते हैं कि इस तरह का व्यवहार नव युवा गुलदार कर रहे हैं और वे ही ज्यादातर लोगों का पीछा भी कर रहे हैं।
शिकारी जॉय हुकिल भी इसको सही मानते हैं। उनका कहना है कि ‘गुलदार हो या बाघ या कोई मांसाहारी जानवर हों, यहां तक कि कुत्ता भी, हर भागने वाली चीज का पीछा करना उनकी कुदरती प्रवृत्ति है। यह प्रवृति हर मांसाहारी जीव में होती है। युवा और खास तौर पर नव युवा हुए गुलदार, जो कि 2 वर्ष के आस-पास हैं और उनको उनकी मां द्वारा झुंड से अलग करके स्वतंत्र कर दिया गया है। वे अपनी इस कुदरती शिकारी प्रवृति को लगातार मजबूत करते रहते हैं। इसलिए अनेक ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें गुलदार द्वारा लोगों का पीछा किया गया है।
इसके अलावा गुलदार के घर में घुसकर हमला करने के मामले कभी नहीं देखे गए लेकिन अब घर में ही घुसकर मासूम बच्चों यहां तक कि पारिवारिक लोगों के साथ बैठे बच्चों को भी गुलदार उठाकर ले जा रहा है। घर के आंगन में बंधे पालतु पशुओं को भी गुलदार आसानी से मार रहा है जबकि पूर्व में सिर्फ पालतु कुत्तों को ही गुलदार घर से उठाकर ले जाता रहा है लेकिन अब गाय, बैल, बकरी यहां तक कि भैंस को भी मारे जाने की घटनाएं हो रही हैं।
गुलदार आक्रमक हो रहे हैं। यह सबको चौंका रहा है। जहां पहले गुलदार बाघों के क्षेत्र में रहने से बचते रहे हैं, वहीं अब गुलदार को बाघों का भी भय कम हो रहा है। इसका बड़ा प्रमाण इस वर्ष ही सामने आया है कि जब राजाजी टाईगर रिजर्व में बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए विभाग द्वारा कॉर्बेट नेशनल पार्क से एक बाघिन को लाया गया। बाघिन ने चार शावकों को जन्म दिया लेकिन दो शावकों को गुलदार द्वारा मार दिया गया। जांच में दोनों शावकों की मौत गुलदार द्वारा किए जाने का प्रमाण मिला। इससे यह साफ हो जाता है कि अब गुलदारों के व्यवहार में परिवर्तन आ चुका है।
जानकार गुलदारों की इस बदलते व्यवहार और पैटर्न को गुलदारों के लिए आसानी से मिलने वाले भोजन की कमी, पलायन से खाली होते गांव को ही जिम्मेदार मानते हैं। एक पूरा इको सिस्टम बना हुआ था जो कि अब वह बिखर रहा है। इसके चलते सुअरो की संख्या ज्यादा बढ़ गई है जो गुलदारों द्वारा मारे गए जानवर के शवों पर कब्जा कर लेते हैं जिससे गुलदार को फिर से शिकार के लिए मजबूर होना पड़ता है। साथ ही सियारों की आबादी बहुत तेजी से घटी है। सियार ही एक ऐसा जानवर है जो गुलदारों और सुअरों की आबादी पर एक नियंत्रण रखता था। आज सियारों के न होने से सुअर का कुदरती शत्रु नहीं रह गया है और गुलदार का भी कोई शत्रु नहीं बचा। इसके चलते इनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है और क्षेत्र कम होता जा रहा है।
पलायन एक चिंतन कार्यक्रम के संयोजक रतन सिंह असवाल कहते हैं कि ‘जिस तरह मानव व्यवहार में बदलाव आया है उसी तरह से वन्य जीवों में भी बदलाव आ रहा है।’ असवाल व्यंग करते हुए कहते हैं कि ‘जिस तरह से फ्री का राशन लेकर आलसी प्रवृत्ति पहाड़ के रहवासियों में देखी जा रही है उसका असर शायद गुलदारों पर भी पड़ रहा है। वे भी अब आसान और कम मेहनत से मिलने वाले शिकार पर फोकस कर रहे हैं। आज गांवों में सैकड़ो पालतु पशु छोड़ दिए गए हैं जो आवारा घूम रहे हैं लेकिन गुलदार उनका शिकार नहीं कर पा रहा है। क्योंकि वे गुलदार से ज्यादा ताकतवर हैं और झुंड में रह रहे हैं इसलिए गुलदार उनसे डर रहा है।’
कई हजार पहुंची है गुलदारों की आबादी
भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून द्वारा वर्ष 2024 में वन्य जीव गणना के आंकड़े जारी किए गए हैं। मध्य हिमालयी क्षेत्र में पहली बार इस तरह से गणना की गई है। यह गणना 1 हजार मीटर से लेकर 3,500 मीटर तक की ऊंचाई तक के वन क्षेत्रों में की गई है। आकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में 2,276 तेंदुए यानी गुलदार विचरण कर रहे हैं। जबकि प्रदेश के निचले क्षेत्रों में 2018 में की गई वन्य जीव गणना के अनुसार 839 गुलदार पाए गए हैं। दोनों ही गणना के अनुसार राज्य में गुलदारों की संख्या 3,115 बताई जा रही है। जारी आंकड़ों में सबसे अधिक पिथौरागढ़ वन प्रभाग में गुलदारों की संख्या बताई गई है और सबसे कम संख्या नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान तथा गोविंद राष्ट्रीय उद्यान में बताई गई है।
प्रदेश के वन प्रभागों में गुलदारों की सख्या की बात करें तो पिथौरागढ़ वन प्रभाग में 294 अल्मोड़ा में 272 तथा गढ़वाल में 232, चम्पावत में 169, नैनीताल में 134, टिहरी में 145, नरेंद्र नगर वन प्रभाग में 129, रूद्रप्रयाग में 117 गुलदारों की संख्या पाई गई है। गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी आठों वन प्रभाग ऐसे हैं जिनमें गुलदार की संख्या सौ से ज्यादा है। जबकि कालसी वन प्रभाग में 4 गुलदारों की संख्या है। इसी प्रकार से वन्य जीव प्रभागो में केदारनाथ वन्य जीव सेंचुरी में 55 तथा गैर सेंचुरी क्षेत्र में 21 गुलदार बताए गए हैं। जबकि नंदा देवी बायोस्फेयर में 5 विनसर वन्य जीव सेंचुरी में 3, गंगोत्री नेशनल पार्क में 2 तथा नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान तथा गोविंद राष्ट्रीय उद्यान में महज एक एक गुलदारों की संख्या पाई गई है। इसी तरह से कॉर्बेट नेशनल पार्क में 179 तथा राजाजी नेशनल पार्क में 221 गुलदारों की संख्या पाई गई है।
गुलदार भी खूब मारे गए हैं
ऐसा नहीं है कि गुलदारों द्वारा मानव हत्या करने के ही मामले हो रहे हैं। विगत कुछ वर्षों से गुलदार भी विभिन्न कारणों से मारे गए हैं। इनमें सड़क दुर्घटना, बीमारी और आपसी संघर्ष में सैकड़ों गुलदारों की भी मौत हुई है। आदमखोर होने के चलते वन विभाग द्वारा कई गुलदारों को भी शिकारियों द्वारा मरवाया जा चुका है। 2018 से लेकर अभी तक 150 से अधिक गुलदार मारे गए हैं। मानव जीवन के लिए खतरा बने 121 गुलदारों और बाघों को मारने या उनको पिजंड़े में पकड़ने का आदेश वन विभाग द्वारा जारी किया जा चुका है। जिनमें से 35 गुलदारों और एक बाघ को मारा जा चुका है।
गढ़वाल वन प्रभाग में 2007 से लेकर 2022 तक 4 गुलदारों को वन विभाग की अनुमति से शिकारियों द्वारा मारा जा चुका है। टिहरी वन प्रभाग में 2008 से लेकर 2024 तक 4 नरभक्षी गुलदारों को मौत के घाटा उतारा गया। तथा पिथौरागढ़ वन प्रभाग में अक्टूबर 2019 को 1 गुलदार तथा नवम्बर 2020 को 1 गुलदार को मारा गया है। वर्ष 2021 में फरवरी लेकर जुलाई माह तक 3 आदमखोर गुलदारों को मार डाला गया। इसी तरह से नरेंद्र नगर वन प्रभाग क्षेत्र में 2020 और 2021 में 2 आदमखोर गुलदारों को मारा जा चुका है।
केदारनाथ वाईल्ड लाईफ सेंचुरी की रेंज में 2009 फरवरी से लेकर अगस्त माह में 4 नरभक्षी गुलदारों को वन विभाग की अनुमति से मारा गया है। तराई पश्चिम वन प्रभाग में 2016 में 1 आदमखोर गुलदार को मारा गया है तो 2018 में बागेश्वर डिविजन में भी 1 नरभक्षी गुलदार का मारा गया 2020 में अल्मोड़ा वन प्रभाग में 1 गुलदार को मौत के घाट पहुंचाया गया है। वन विभाग द्वारा मानव जीवन के लिए खतरा बने गुलदारों को पिंजड़े में पकड़ कर उनका पुनर्वास भी किया है जिसमें देहरादून वन प्रभाग में 2008 और 9 में दो गुलदारों को पिंजड़े में पकड़ा गया है जो आदतन आदमखोर न होने के चलते उनको वन में छोड़ दिया गया। इसी तरह से 2022 में रूद्रप्रयाग वन प्रभाग में 1 तथा 2023 में विकासनगर, उत्तरकाशी और रामनगर में 3 गुलदारों को पिंजड़े में पकड़ कर उनका पुनर्वास किया गया।
बाघ और भालू भी बन रहे हैं मुसीबत
उत्तराखण्ड में केवल गुलदार ही मानव जीवन के लिए खतरा नहीं बन रहे हैं। बाघ और भालू भी मानवों के लिए एक बड़े खतरे के तौर पर देखे जा रहे हैं। वन विभाग के आंकड़ो की बात करें तो 2014 से लेकर 2024 तक महज दस वर्षों में 151 घटनाएं बाघ द्वारा मनुष्यों पर हमला करने की हो चुकी हैं। जिसमें 68 लोग मारे गए हैं और 83 लोग घायल हो चुके हैं। वर्ष 2022 की गणना में प्रदेश में शिवालिक और गंगाघाटी क्षेत्रों में बाघों की संख्या 560 बताई गई है। राज्य में बाघ संरक्षण परियोजना कितनी सफल रही है यह इस बात से ही पता चल जाता है कि राज्य बनने के बाद वर्ष 2006 में जहां बाघों की संख्या महज 178 ही थी वह 16 वर्षों में बढ़कर 560 हो गई है।
बाघों की संख्या में तीन गुने से भी ज्यादा बढ़ोतरी राज्य के बाघ संरक्षण परियोजना के लिए गर्व की बात है लेकिन हाल ही के दिनों में बाघों के ऐसे नए क्षेत्रों में विचरण करने के मामले भी सामने आए हैं जिसने विशेषग को चौंका दिया। अब बाघ आसानी से उच्च क्षेत्रों में पहुंच रहे हैं जहां बाघों के लिए कहा जाता रहा है कि वे इन क्षेत्रों में सरवाईव नहीं कर सकते।
कुमाऊं के भीमताल क्षेत्र में एक बाघिन द्वारा तीन लोगों की हत्या का मामला भी बाघों के हिमालयी क्षेत्रों में विचरण के तौर पर देखा गया है। पौड़ी के रिखणीखाल में एक बाघिन के आने से दो नव युवा शावकों के साथ महीने भर रही और उसके द्वारा तीन व्यक्तियों की हत्या इस दौरान कर दी गई। यहीं नहीं विनसर जैसे हिमालयी क्षेत्र में विभाग के कैमरा ट्रैप में भी बाघ को देखा गया है।
ऐसा भी नहीं है कि हिमालयी क्षेत्र में बाघ के विचरण के मामले पहले नहीं हुए हों। विख्यात शिकारी जिम कॉर्बेट के संस्मरणों में हिमालयी क्षेत्रों में बाघ के हमलों का विवरण बताया जाता है। इसके अलावा उत्तराखण्ड के विख्यात इतिहासकार स्वर्गीय डॉ. शिव प्रसाद डबराल के उत्तराखण्ड के भेटांतिक और पशुचारकों की शोध पुस्तक में हिमालयी क्षेत्रों में बाघ के विचरण का वर्णन दिया गया है। यहां तक कि तुंगनाथ जैसे हिम क्षेत्र में अजगर के पाए जाने का भी डबराल द्वारा जिक्र किया गया है।
प्रदेश में भालुओं के हमले भी लगातार बढ़ रहे हैं। करीब हर जिलों में रोज एक ऐसी घटना सामने आ रही है जिसमें भालू मनुष्यों पर हमला करके मार रहे हैं या बुरी तरह से घायल कर दिया है। भालुओं के उग्र होने का यह चलन पहले उत्तराखण्ड में बहुत कम देखने को मिलता था लेकिन अब भालू न सिर्फ मनुष्यों पर हमला कर रहे हैं, साथ पालतु पशुओं पर भी हमला कर उन्हें मार चुके हैं। वन विभाग के आकड़ों अनुसार वर्ष 2014 से लेकर 2024 तक दस वर्ष के भीतर भालुओं के हमलों के कारण 26 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 827 लोग बुरी तरह से घायल हो चुके हैं।
बात अपनी-अपनी
उत्तराखण्ड राज्य में मानव और वन्य जीव संघर्ष पर ‘दि संडे पोस्ट’ ने विशेषज्ञों से गुलदारों के हमलों पर चर्चा की। जिसमें विख्यात शिकारी जाय हुकिल और अधिकार आंदोलन के कुमाऊं क्षेत्र के संयोजक तरुण जोशी के साथ-साथ पत्रकार और वन्य जीवन पर लेखन से जुड़ी वर्षा सिंह प्रमुख हैं। कमोवेश सभी का कहना है कि गुलदारों को लेकर कोई ठोस योजना बनाने की जरूरत है। तरुण जोशी वनों पर स्थानीय नागरिकों के हक-हकूकों और वनों पर अधिकार के मामलों के साथ-साथ हिमालयी वन क्षेत्रों में जैव विविधता और ईकोसिस्टम को लेकर विभाग और सरकारों से नीति और नियत को लेकर मुखर रहे हैं
प्रोजेक्ट टाईगर ही सबसे बड़ा गुनहगार
आज उत्तराखण्ड में गुलदार के बढ़ते हमलों का अगर कोई एक कारण मुझसे पूछे तो वह प्रोजेक्ट टाईगर ही है। सबसे ज्यादा बजट वाला यह प्रोजेक्ट आज इस हद तक आ चुका है कि बाघ संरक्षण के नाम पर यह किसी भी क्षेत्र को प्रोजेक्ट टाईगर का हिस्सा बना देता है जिससे इनको और भी अधिक बजट मिल सके। उच्च हिमालयी क्षेत्र के बिनसर और चम्पावत में शेर देखे गए हैं जो पहले कभी नहीं देखे गए। लेकिन आज क्यों देखे जा रहे हैं? इसके लिए स्थानीय स्तर पर कई जानकार यह मान रहे हैं कि ये शेर, प्रोजेक्ट टाईगर द्वारा गुपचुप तरीके से छोड़े गए हैं। अगर शेर इन क्षेत्रों में सरवाईव कर पाते हैं तो आने वाले समय में उच्च हिमालयी क्षेत्रों को भी प्रोजेक्ट टाईगर के नाम पर घोषित कर दिए जाएंगे। यह एक षड्यंत्र के तहत किया जा रहा है। हो सकता है कि यह हमारी एक शंका ही हो लेकिन ऐसे क्षेत्रों में टाईगर पहुंच रहा है और सरवाईव भी कर रहा है लेकिन आज तक प्रोजेक्ट टाईगर ने इन शंकाओं को दूर करने के लिए कोई जवाब तक नहीं दिया है जबकि हमने कई बार इनसे पूछा है। जिससे हमें डर है कि अगर भविष्य में ऐसा हो गया तो हिमालय क्षेत्र के वाशिंदों का जीवन दूभर होना निश्चित ही है। पहले ही पलायन के कारण क्षेत्र खाली हो रहे हैं। साथ ही वनों का पूरा इकोसिस्टम बिगड़ गया है। वन विभाग तो मानता है कि जहां पेड़ हो गए हैं वह वन क्षेत्र हैं जबकि वन सिर्फ पेड़ों के खड़े होने से नहीं है इसकी परिभाषा तो पेड़ों के साथ-साथ जैव विविधता और अनेक वनस्पतियों के होने से है। जिसमें इकोसिस्टम में रहने वाले सभी जंगली जानवर भी शामिल हैं वे सरवाईव कर पाएं।
लेकिन अब पेड़ खड़े तो हैं लेकिन ज्यादातर एक ही प्रजाति के वन रहे हैं उनमें छोटी प्रजाति की वनस्पतियों और झाड़ियां खत्म हो गई हैं। झाड़ियों के नाम पर लैनटेना का साम्राज्य खड़ा हो गया है जिससे शाकाहारी वन्य जीवों को भोजन नहीं मिल रहा है, इससे उनकी आबादी तेजी से कम हो रही है, साथ ही छोटे मांसाहारी जीव भी सरवाईव करने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे हैं। विनसर सेंचुरी में 2016 में गुलदारों की गणना हुई थी जिसमें 30 गुलदार थे जबकि सेंचुरी का क्षेत्रफल सिर्फ 44 वर्ग किमी है तो आप समझ सकते हैं कि गुलदारों की आबादी का संतुलन कितना बिगड़ चुका है। गुलदारों के हमले भी इसी ईकोसिस्टम केे संतुलन के बिगड़ने की बवह से बढ़ रहे हैं। अब गुलदार भी बंदरों की ही तरह मानव आबादी के बीच रहकर सरवाईव करना सीख चुके हैं। उनमें मानवों का डर खत्म हो गया है जिससे वे गांव के आस-पास ही अपना शिकार ढूंढ रहे हैं और जैसे ही उनको अपना शिकार मिलता है वे उस पर हमला कर रहे हैं। इसके कारण मानव जीवन को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। भालू भी अब पालतु पशुओं को मारने लगा है जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। अगर वन्य जीवों से मानवों को बचाने की बात करें तो हमारे प्रदेश में अनेक ऐसे वन्य जीव प्रेमियों का जमघट खड़ा हो रहा है जिनके लिए मानव जीवन से ज्यादा वन्य जीवों से प्रेम है। इसके लिए वे हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट तक चले जाते हैं। भीमताल में शेर ने तीन लोगों को मार डाला। कई दिनों तक आंदोलन किया लेकिन शेर को न मारा जाए, वन्यजीव प्रेमी हाईकोर्ट तक चले गए।
इन छद्म पर्यावरण प्रेमियों के कारण हिमालयी क्षेत्र के निवासियों को सबसे बड़ा नुकासान हो रहा है। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दस हेक्टेयर भूमि जो कि नाप खाते की है और उसमें पेड़ खड़े हो गए हैं उनको वन से अलग कर दिया जाए। लेकिन इसके बाद इन पर्यावरण प्रेमियों ने कहना शुरू कर दिया कि सरकार इन जमीनों को बिल्डर लॉबी को देने के लिए यह परिवर्तन कर रही है। पहाड़ और हिमालय को बचाए रखने के लिए तीन तरह से काम करना होगा जिसमें पहला है पलायन को लेकर ठोस नीति, वन को लेकर ठोस नीति और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए मानव को भी शामिल करना जरूरी है। नहीं तो कितने भी काम कर लिया जाए रिजल्ट शून्य ही रहेगा।
तरुण जोशी, संयोजक वन अधिकार आंदोलन, कुमाऊं क्षेत्र भवाली
गुलदारों की तरफ से तो कोई न कोई बोलेगा गुलदार तो नहीं बोल सकता। मानव वन्य जीव संघर्ष बढ़ा है इसको तो मानना ही पड़ेगा लेकिन इसके लिए कोई एक कारण जिम्मेदार है ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसके कई कारण हैं जिसमें मुझे सबसे ज्यादा फूड ही लगता है। आज जंगलों में खाना पूरा नहीं हो पा रहा है। दूसरा गांव आदि में अब कूड़ा ज्यादा होने लगा है जिसमें औवेसली इसमें फूड वेस्ट सबसे ज्यादा है जिसके लिए जंगली जानवर गांवों की ओर आकर्षित हो रहे हैं और उनके पीछे गुलदार आ रहा है। दूसरा कारण हमारी पहाड़ी जीवन शैली में बड़ा बदलाव आ चुका है। जिससे हमने अपनी परम्परागत जीवन शैली जिसमें खेती आदि भी शामिल है, को छोड़ दिया है। इस कारण एकल परिवार होने लगे हैं और अकेले ही घास आदि या खेती के लिए महिलाएं जा रही हैं जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। सभी समूह में जाती थीं जिससे खतरा बहुत कम होता था। अब खतरा बढ़ रहा है। गांव के आस-पास झाड़ियां पनप चुकी हैं जिसमें गुलदार आदि को छुपने में आसानी हो रही है। मैं कोई वाईल्ड लाईफ एक्सपर्ट नहीं हूं लेकिन इतना जानती हूं कि वाईल्ड स्पीसीज में कई ऐसे स्पीसीज होती हैं जिनको बढ़ने में समय लगता है गुलदार जैसी स्पीसीज बहुत तेजी से बढ़ती है और जल्द ही सरवाईव करना सीख जाती है। गुलदारों की संख्या बढ़ी है लेकिन अगर क्षेत्रफल को देखें तो उत्तराखण्ड का वन क्षेत्र फल 68 प्रतिशत है लेकिन गुलदार इतने तो नहीं हैं कि उनके लिए जगह कम हो जाए। इसलिए किसी वन्य जीव को मारना या उसकी आबादी को कम करना कोई सॉल्यूशन नहीं है। आखिर जंगल हमारे लिए तो नहीं है जंगल उनके लिए ही है हमने ही जंगलों पर अपना अतिक्रमण किया है। बाघ और गुलदार अपने-अपने जगहों से स्पोटिस करते रहते हैं। इसलिए इनका क्षेत्रफल बढ़ता है लेकिन परमानेंट नहीं रहता। बाघों और गुलदारों को मारने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। गुलदारों की तरफ से कोई तो बोलेगा गुलदार तो नहीं बोल सकता। उसके लिए कोई तो बोलेगा इसलिए यह नहीं कह सकते कि पर्यावरण के नाम पर छद्म प्रेमी खड़े हो रहे हैं।
वर्षा सिंह, पत्रकार एवं वन्यजीव लेखक
गुलदारों के व्यवहार में बदलाव आ रहा है।
सरकारी आकड़े तो सरकारी आंकड़े हैं वह चाहे तीन हजार हो या तीस हजार, हम आंकड़ों में नहीं जाते क्योंकि आंकड़ों में जाने से प्रोबलम तो भयंकर है। आंकड़ों में जाने से आपका प्रपर्ज हार जाता है। सारे लैपर्ड मैनइटर नहीं है। तीन हजार लैपर्ड हैं तो क्या तीन हजार मैनइटर हो गए? इसको मैन ईअर नहीं कहा जाता। इसको कहा जाता है डेंजरस टू ह्यूमन लाईफ, मानव जीवन के लिए खतरनाक। हम कभी भी मानवभक्षी या नरभक्षी नहीं कहते हैं, एक नैचुरल संरचना है। जब दोनों तरफ से गलती होती है तब मानव जीवन की क्षति होती है। जब आप नेशलन हाईवे पर नियम-कानून से नहीं चलेंगे तो एक्सीडेंट होगा। इसी तरह से जंगल के नियम-कानून से नहीं चलेंगे तो नुकसान होता है। सभी को जंगल के नियम पता हैं। हमारा प्रयास होता है कि सबको बताएं और जागरूक करें कि जंगल में अकेले मत जाए। घर में शाम को लाईट होना चाहिए, बच्चों को अकेले मत छोड़िए, टॉयलेट घर में होनी चाहिए। किसी को जंगल से होकर जाना पड़ता है तो समूह में जाएं, शोर करें। जो लोग इन नियमों का पालन नहीं करते हैं तो उनको नुकसान ही होता है। जंगल के आस-पास और जंगल में ही तो हमारे गांव हैं। गांव के आस-पास झाड़ियां हैं यह लैपर्ड को छुपने के लिए पर्याप्त जगह है। सियार लैपर्ड से डरता है। सियार गांव के आस-पास रहता है, अगर लैपर्ड गांव में सियार को दिख जाता है तो सियार डरकर भाग जाता है और फिर वहां नहीं आता। बाघ लैपर्ड हिंसक नहीं होते वह तो उसकी नैचुरल स्टैंडिंग है। हमको लगता है कि वह हिंसक है। वह तो मारकर खाता है, अगर मारेगा नहीं तो खाएगा कैसे। गुलदारों का व्यवहार में बदलाव आ रहा है। इसके लिए डब्ल्यूआईए द्वारा स्टडी किया जा रही है। भालू हाईबरनेशन में रहता है, क्लाईमेट चेंज के कारण हाईबरनेशन में बदलाव आ रहा है जिससे उसका भी व्यवहार में बदलाव आ रहा है। उसकी नींद पूरी नहीं हो पा रही है। बारिस के टाईम पर बारिस नहीं हो रही है, बर्फ के टाईम पर बर्फ नहीं पड़ रही है तो उसको परेशानी हो रही है इसलिए उसके व्यवहार में चेंज आ रहा है।
रंजन कुमार मिश्रा, मुख्य वन्य जीव प्रतिपालक, उत्तराखण्ड
छद्म वन्य जीव प्रेमी और समाप्त हो चुकी फूड चैन चलते हालात बिगड़ रहे हैं
मानव और वन्य जीवों के बीच संघर्ष आदिम काल से रहा है, पहाड़ों में बढ़ रहे हैं तेंदुए या जिसे गुलदार भी कहते हैं कि कितनी जनसंख्या वास्तविकता में कितनी है किसी को पता ही नहीं है। बाघों की गणना का एक पैटर्न बना हुआ है, उस पर तो मैं कुछ नहीं कहूंगा लेकिन गुलदारों की गणना को कोई ठोस पैटर्न आज तक नहीं बन पाया है। प्रदेश का वन विभाग भारत सरकार को 3 हजार तेंदुओं की आबादी बता देता है। जबकि कई वर्षों के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आज प्रदेश में 6 हजार से ज्यादा तेंदुए हो चुके हैं। उनका कोई नैसर्गिक शत्रु बचा ही नहीं है जिससे उनकी आबादी निरंतर बढ़ रही है। हमारे देश में कंजर्वेशन की बात की जाती रही हैं लेकिन मैनेजमैंट की बात नहीं हो रही है। शुरू से ही कंजर्वेशन पर सिस्टम और सरकार का फोकस रहा है। हमेशा से सुन रहे हैं कि बाघों और गुलदारों का सरंक्षण किया जाना चाहिए। हजारों की तादात में गुलदार हेैं। इनमें हर साल दो-चार या ज्यादा से ज्यादा पांच गुलदार आदमखोर या पालतु पशुओं की हत्या करते हैं तो इनको पहली ही घटना के बाद तुरंत मारने का आदेश दिया जाना चाहिए। इससे इनकी जनसंख्या में कोई बड़ी कमी नहीं आएगी और मनुष्य का जीवन भी सुरक्षित रहेगा। विदेशों में तो अपने राष्ट्रीय पशु को मारने की तक अनुमति दी जाती है। ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय पशु कंगारू है लेकिन जब उसकी आबादी बहुत ज्यादा हो गई तो संतुलन के लिए उसको मारा जा रहा है।
भारत में छद्म पर्यावरण प्रेमियों को एक बड़ा समूह पैदा हो गया है। जब भी कोई बाघ तेंदुआ आदमखोर हो जाता है और उसे मारने के लिए मांग उठने लगती है तो अचानक से एक वर्ग उसके बचाव में खड़ा हो जाता है। जिसके चलते आदमखोर को मारने के आदेश जारी होने में बहुत देर लग जाती है। ऐसे लोग जमीनी सच्चाई को जानने के बावजूद कोर्ट में चले जाते हैं। ऐसे ही छद्म पर्यावरण और वन्यजीव प्रेमियों के कारण भीमताल की घटना में भी ऐसा ही हुआ। गुलदार ने एक बालिका को मार डाला था। जनता ने उस गुलदार को मारने के लिए वन विभाग और सरकार से मांग की लेकिन कोई और वन्य जीव प्रेमी हाईकोर्ट में चला गया। हम लोग मनुष्यों का संरक्षण नहीं करते, जानवरों का सरंक्षण करते हैं।
प्रकृति का इकोसिस्टम बिगड़ रहा है और इसके कारण जंगलों में जानवरों की आबादी का संतुलन भी बिगड़ गया है। मांसाहारी जानवरों का भोजन मांस है वह घास तो नहीं खाएगा। पहले जंगलों में एक प्राकृतिक संतुलन की प्रक्रिया थी जिसमें सबसे ऊपर के पायदान पर बाघ के बाद गुलदार ही है इसके बाद सियार-लोमड़ी जंगली कुत्ते आदि होते थे। बाघ या किसी मासांहारी जानवर ने शिकार किया तो उसके शिकार का एक हिस्सा किसी न किसी अन्य मांसाहारी जानवर को भी मिलता था। यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। इससे एक संतुलन भी बना हुआ था। बाघ, तेंदुआ आदि के बच्चों का सियार आदी जानवर मौका मिलते ही आदि के बच्चों को सियार आदि मार कर खा जाते थे, ऐसे ही सुअर के साथ भी होता था। सियार इनकी आबादी का संतुलन बनाता था। अब सियार बहुत कम नजर आ रहे हैं। सुअर और बाघ का कोई नैसर्गिक शत्रु नहीं बचा। इसे ऐसे समझा जा सकता है, गुलदार ने किसी जंगली या पालतु जानवर का शिकार किया लेकिन उसे तुरंत तो नहीं खाता है। वह मार कर उसे छुपा देता है। फिर कई घंटे के बाद वह शिकार के पास लौट कर उसे सुरक्षित स्थान पर ले जाकर खाता है। जितनी भूख होती है उसका एक हिस्सा खाकर फिर वहां से चला जाता है।
दोबारा फिर से लौट कर खाता है। यह शिकार करने और उसे सुरक्षित स्थान पर छुपाने के बीच का समय ही होता है जिसमें सुअर गुलदार के शिकार पर कब्जा कर लेते हैं जिससे गुलदार को शिकार पूरा नहीं मिल पाता और वह फिर से शिकार करने लगता है। यह तब हो रहा है कि जब सुअरों की आबादी बेहताशा बढ़ गई है। अब सुअरांे के झुंड मरे हुए जानवरों को खा रहे हैं जिससे सियारों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है और उनके लिए फूडचेन में सरवाईव करना कठिन हो गया है जिससे सियार भी कम हो गए हैं और आसान इलाकों की ओर पलायन करने पर मजबूर हो चुके हैं।
मैंने अपने 40 वर्ष के शिकारी जीवन में अभी तक 47 आदमखोर गुलदारों को मारा है और 7 को पिंजरे में पकड़ा है। अधिकांश पूर्ण तरह स्वस्थ और शिकार करने में सक्षम थे। उनके कैनाईन और पंजों के नाखून भी सुरक्षित थे यहां तक कि कोई बीमारी भी नहीं थी। फिर भी वे मानवों का शिकार करने लगे थे। मैं आज भी अपनी बात पर अडिग हूं कि उत्तराखण्ड में तेंदुओं की आबादी बहुत बढ़ चुकी है। अब दिन-दहाड़े मानवों पर हमले होने लगे हैं। पालतु पशुओं को घर में ही आकर गुलदार मारने लगा है। सरकार और विभाग मुआवजा देकर अपना पल्ला झाड़ देता है। जैसे ही कोई घटना सामने आती है तुरंत ही उस गुलदार की पहचान करके उसे मार देना ही बेहतर मैनेजमेंट है। नहीं तो इसका बुरा असर देखने को मिलेगा। स्थानीय निवासी गुलदार द्वारा मारे गए पालतु जानवरों के शव पर जहर डाल देते हैं जिससे कई अन्य जीव भी मार जाते हैं। क्योंकि मरे हुए जानवरों को सिर्फ गुलदार ही नहीं खाता है। उसे सियार, सुअर, गिद्ध, कौवे आदि भी खाते हैं अगर वे खाएंगे तो उनकी मौत निश्चित है। इससे समूचा संतुलन भी बिगड़ सकता है। बेहतर यही हैं कि गुलदारों को तुरंत पहचान करके मार दिया जाए। उनकी आबादी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
(लेखक विख्यात शिकारी हैं और वन्य जीवन विशेषज्ञ हैं।)