उत्तराखण्ड राज्य की संपन्न वन सम्पदा के चलते देश के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने के ऐवज में हजारों करोड़ रुपये के ग्रीन बोनस को दावा तो करती हैं लेकिन हर साल दावाग्नी की भेंट चढ़ती वन सम्पदा के संरक्षण के लिए कोई ठोस कदम उठाने की जहमत तक नहीं उठाती। लेकिन अब वह पंचायतों का गठन जंगलों के प्रति पूरी जिम्मेदारी उठाने के लिए किया जा रहा है। पहाडों के जंगलों में लगी आग को रोकने के लिए वन महकमे के पास आज भी दशकों पुरानी योजना है, जो आज के आधुनिक समय में अप्रसांगिक नजर आती है।
वन महकमे के अधिकारी भी वनाग्नी को रोकने में संशाधनो की कमी का रोना रोकर अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। कमजोर सूचना तंत्र भी वन महकमे की विफलता की एक बड़ी वजह है। जंगल की आग पर काबू पाने के लिए कागजों का पेट भरना बदस्तूर जारी है है। वन अफसर अपनी-अपनी डिवीजन में ताबड़तोड़ वनाग्नि सुरक्षा समिति की बैठक, फायर प्रोटेक्शन फोर्स, कम्यूनिटी रिस्पांस टीम के गठन, प्रशिक्षण कार्यक्रम के नाम पर फायर सीजन की तमाम तैयारियां करते तो है लेकिन नतीजा शून्य, लेकिन शायद इस बार करीब 10 साल बाद हुए वन पंचायतों के गठन से वनों से जुड़ी घटनाओं में कमी आने के आसार नजर आ रहे हैं।
क्योंकि अधिक संसाधनों की जरूरत वन महकमे को है जो रिजर्व फारेस्ट को चाहिए, लिहाज़ा वन पंचायतों को दावानल की सूचना, रोकथाम, संसाधनों, जंगलो से आर्थिकी और रोजगार के लिहाज से मजबूत करने पर जोर दिया जाएगा, वन पंचायतों की प्रबंध समिति का गठन हो गया है जिससे वे कार्यदायी संस्था के रूप में भी काम के सकते हैं और दूसरी तरफ उनके आमदनी के स्रोत भी खुलने लगे हैं।
स्थानीय लोगों के मुताबिक जंगलो से जुड़े अभियान में ग्रामीणों की सहभागिता जरूरी है, क्योंकि ग्रामीण औऱ जंगल एक दूसरे पर निर्भर है, दूसरी तरफ चीड़ के जंगलों से मिलने वाला उत्पाद रेजिन यानी लीसा बड़े पैमाने पर मिल रहा है जो ग्रामीणों के लिए आर्थिकी का बड़ा जरिया भी साबित हो रहा है। कई जगहों में वन पंचायत जंगलों के लिहाज से बड़ा अच्छा काम कर रही हैं। प्रदेश भर में 12 हज़ार से ज़्यादा वन पंचायत हैं, जो अपनी कार्यशैली के जरिए वनों को सुरक्षित रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका पहले से निभाती रही हैं। उम्मीद की जानी चाहिए की आने वाले समय मे दावानल जैसी बड़ी घटनाओं को रोकने में वन पंचायतों का अहम रोल देखने को मिलेगा।