मेरी बात

संवेदनहीनता की पराकाष्ठा और लोकतंत्र के स्वघोषित चौथे स्तंभ का सत्ता समक्ष लमलेट हो जाना क्या यह प्रमाणित करने के लिए काफी नहीं है कि आजाद भारत की 77 बरस की यात्रा पूरी तरह, बुरी तरह पथभ्रष्ट और लक्ष्यविहीन हो चली है? मैं समझ नहीं पाता हूं कि इन बड़े टीवी चैनलों के, बड़े अखबारों के मालिकों, एंकरों और संपादकों को चैन की नींद कैसे आती होगी? यदि आती है तो क्या इनके भीतर मानवीयता पूरी तरह मर चुकी है? क्या आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ने, अतिरेक महत्वाकांक्षा ने, इनको मानव से राक्षस बना डाला है? शायद राक्षस भी इतने क्रूर, लोभी और खुदगर्ज नहीं होते होंगे जितने वर्तमान दौर के पत्रकार, लेखक, कलाकार हो चुके हैं। राक्षस क्रूर भले ही होते हों, चाटुकार तो नहीं होते थे। ये सब जिनसे समाज को दिशा देने, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने, गलत का प्रतिकार करने की अपेक्षा की जाती है, इस हद तक नीचे गिर चुके हैं कि अब बस यह देखना भर बाकी रह गया है, कितना और गिरेंगे। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में, जिसे अब प्रयागराज नाम दिया जा चुका है, इन दिनों महाकुम्भ का आयोजन चल रहा है। हिंदू धर्म के सबसे विशाल धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजन कुम्भ भारत के चार स्थानों-हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में प्रत्येक 12 बरस के अंतराल में बारी-बारी से आयोजित किया जाता है। यह आयोजन हिंदू धर्म की उस पौराणिक अवधारणा से जुड़ा है जिसके अनुसार समुद्र के मंथन दौरान प्राप्त हुए अमृत पर अधिकार जमाने के लिए देवताओं और राक्षसों के मध्य युद्ध छिड़ गया था। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे पृथ्वी पर जिन चार स्थानों पर गिरीं, वहीं पर महाकुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। मान्यता है कि यहां स्नान करने से मनुष्य के पाप समाप्त हो जाते है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 12 पूर्ण कुम्भ के बाद आने वाले कुम्भ को महाकुम्भ कहा गया है। इस वर्ष हो रहा कुम्भ महाकुम्भ है। कुम्भ की बाबत पहला ऐतिहासिक उल्लेख चीनी यात्री हृेनसांग (7वीं शताब्दी) के यात्रा वर्णनों में मिलता है। हमारे धर्म ग्रंथों-स्कंद पुराण,पद्य पुराण और रामायण में भी इसका उल्लेख है। मैं मानता हूं यह व्यक्ति की निजी आस्था का विषय है जिसे कलियुग में, विशेषकर वर्तमान दौर में सत्ताशीधों ने अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति का माध्यम बना एक इवेंट बना डाला है। आमजन को एक तरीके से उकसाया गया है कि इस महाकुम्भ में जो नहीं गया वह हिंदू नहीं। सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा पोषित एक बाबा का बयान 28 जनवरी को आया। यह नवयुवक जिसे सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ाया गया है, बागेश्वर बाबा के नाम से जाना जाता है। धीरेंद्र शास्त्री नामक इस बाबा ने कहा- ‘महाकुम्भ में हर व्यक्ति को आना चाहिए, जो नहीं आएगा वो पछताएगा, वो देशद्रोही कहलाएगा’। सोचिए जरा, इस व्यक्ति को यह अधिकार किसने दिया कि यह देश प्रेमी या देश द्रोही का प्रमाणपत्र जारी करे? मैंने हिंदू धर्म में, एक ब्राह्माण परिवार में, जन्म लिया है। भगवान मेरी निजी आस्था का प्रश्न है। मैं बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित और आदि शंकराचार्य द्वारा अद्दैत वेदांत में व्याख्यित ‘अहम् ब्रहृास्मि’ को मानता हूं। मेरा विश्वास है कि मैं ही ब्रह्मा हूं, मेरा स्वरूप ब्रह्मा है। मैं यह भी मानता हूं कि यदि मेरे द्वारा कोई गलत कार्य जान-बूझकर किया जाएगा तो उसका दंड मुझे अवश्य ही भोगना होगा। गंगा में स्थान करके पाप धुलने का औचित्य मेरी समझ से परे है। यह तो एक तरह से मनुष्य को स्केप रूट (भागने का मार्ग) बताने जैसा है कि अपराध करो, पाप करो और फिर गंगा स्नान कर उससे मुक्ति पा जाओ। यह मेरी मान्यता है इसलिए मैं कुम्भ में, इस महाकुम्भ में स्नान करना जरूरी नहीं समझता। तो क्या बागेश्वर बाबा के अनुसार मैं देशद्रोही हूं? यदि मैं देशद्रोही हूं तो धर्म के नाम पर करोड़ों को बरगलाने वाले राजनेता क्या हैं? देश भक्त? यह बाबा क्या है? ईश्वर का अवतार या फिर राजनेताओं के हाथ की कठपुतली? बहरहाल वापस लौटते हैं कुम्भ आयोजन की तरफ। 28 जनवरी की यात्री वहां भगदड़ मची, भयावह मंजर सामने आया। कई तीर्थयात्री मारे गए, बकौल धीरेंद्र शास्त्री उन्हें ‘मोक्ष’ मिल गया, सैकड़ों घायल बताए जा रहे हैं और सैकड़ों ही लापता। आयोजन धार्मिक है यानी सत्य पर आधारित है लेकिन आयोजनकर्ता सच बोलने को राजी नहीं। उत्तर प्रदेश सरकार और उसकी गोद में बैठा मुख्यधारा का मीडिया इस भगदड़ की खबर को दबाने में जुटा रहा। यह कैसा धार्मिक आयोजन जहां सच को दबाने के लिए झूठ का सहारा लिया जा रहा हो? और इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी यहां, एक धार्मिक आयोजन में, आम और खास के बीच चरम् भेदभाव जारी है। वीआईपी मूवमेंट हटाने को राज्य सरकार राजी नहीं। विशेष घाट, वीआईपी सुविधा, पैसे वालों के लिए फाइव स्टार लक्जरी व्यवस्था और आमजन के लिए भगदड़, मौत बनाम मोक्ष। वाह मोदी जी-योगी जी अद्भुत बाजीगर हैं आप लोग। और उतनी ही अद्भुत है इस देश की जनता जो आप की अंधभक्ति से बाहर निकलने को तैयार नहीं, भले ही प्राण गंवाने पड़ जाएं। महाकुम्भ को महाइवेंट बनाने का खेल इस दुर्घटना के बाद भी जारी है। 116 देशों के राजनयिकों को गंगा स्नान कराया जा रहा है, इन 116 देशों के झंडे घाट में लगा इसे अंतरराष्ट्रीय इवेंट बनाने में उत्तर प्रदेश की सरकार पूरी शिद्दत से जुटी है। दूसरी तरफ हैं वे तीर्थयात्री जिनके अपने लापता हैं या मर चुके हैं। उनके दर्द को सुनने वाला कोई नहीं! इतनी संवेदनहीनता, शायद इसे ही पराकाष्ठा कहते हैं। यह कलियुग का असल चेहरा है। अवधारणा अनुसार, जिसका वर्णन हमारे पौराणिक धर्म ग्रंथों में किया गया है, कलियुग में अधर्म, असत्य, अन्याय, हिंसा, लोभ और पाप अपने  चरम् पर होंगे। भागवत पुराण पढ़िएगा तो स्पष्ट हो जाएगा कि वर्तमान दौर (कलियुग) के शासकों और आमजन की बाबत क्या कहा गया है। बकौल भागवत पुराण कलियुग में राजा अन्यायी और लालची होंगे, आमजन लोभ, मोह और स्वार्थ में फंसे रहेंगे, सच्चे मन से धर्म का पालन करने वाले लोग कम हो जाएंगे तथा प्राकृतिक आपदाएं बढ़ेंगी और समाज में व्यापक स्तर पर अराजकता फैलेगी। सोचिए और सोच कर समझने का प्रयास करिए कि वर्तमान दौर में, लोकतंत्र में, जहां कहीं भी, किसी भी प्रदेश में अथवा देश में, जिसकी भी सरकार है, वह राजा किस प्रवृत्ति का है। यह भी चिंतन करिए हम कहां खड़े हैं? क्या हम यानी आमजन सच्चे धर्म का पालन करते हैं। क्या हम लोभ, मोह और स्वार्थ के मायाजाल में नहीं जा फंसे हैं? स्वयं का निष्पक्ष आकलन कठिन, बेहद कठिन कार्य है, यदि कर पाए तो न केवल खुद के दुष्कर्म सामने आ जाएंगे बल्कि कलियुग के राजाओं का भी असली चेहरा देख पाएंगे। भागवत पुराण में ही यह भी बताया गया है कि अधर्म की अति को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु के दसवें और अंतिम अवतार ‘कल्कि’ के रूप में जन्म लेंगे और दोबारा से सतयुग को इस धरती में स्थापित करेंगे। क्या वाकई? और कब??

मित्रवर यश मालवीय ने अभी-अभी कुछ दोहे मुझे भेज हैं। उन्हें पढ़िए और चिंतन करिए कि यह कहां आ गए हम।

बहुत अनमनी ढल रही, महाकुम्भ की शाम
तीस जनवरी कल मगर, आज हुआ हे राम।
नई फसल को आज जो, बना रहा मक्कार
ऐसे हिंदू धर्म को, है सौ-सौ धिक्कार।

सत्ता की जयकार का, आंधी जैसा दौर
अंधभक्त सब हो गए, दृष्टिहीन कुछ और।
लाशों पर ही हो रहा, महाकुम्भ सम्पन्न
काठ हुई संवेदना, हम हो गए विपन्न।

गंगा आंसू पी रही, यमुना बहुत अधीर
शहर इलाहाबाद की, ये कैसी तस्वीर।
मन में गहरे चुभ रही, अंधभक्ति की फांस
घुट-घुटकर ही चल रही, संगम की भी सांस।

धू-धू जलता आग में, रेजा-रेजा ख्वाब
घुमड़े आंसू आंख में, उमड़ा जनसैलाब।
मंत्री अफसर का हुआ, जनता का ये कुम्भ
पोस्टर पर तो दिख रहे, केवल शुम्भ निशुम्भ।

सिद्ध अखाड़े नंगई, नागाओं की भीड़
भक्त केचुए से खड़े, खोकर अपनी रीढ़।
अमृत तो बरसा नहीं, विष की है बरसात
इससे पहले थी कहां, इतनी काली रात।

पेड़ कटे, सड़कें बनीं, ऐसा हुआ विकास
अंधा करती रोशनी, हुआ अंधेरा खास।
चकाचौंध में खो गया, जीवन का ही मर्म
आंखें ही चुंधिया गईं, धर्म हुआ बेशर्म।

चितकबरा सा ये समय, वर्तमान का दास
महाकुम्भ का खो गया, वो अपना इतिहास।
अंग्रेजों ने जो किया, करती वही अटूट
इस सत्ता ने डाल दी, जनता में ही फूट।

छोड़ा अपने आप ही, अपना केंद्र गुरुत्व
ये कैसी बाजीगरी, ये कैसा हिंदुत्व।
सच आएगा सामने, नहीं सांच को आंच
नाम सनातन के किया, जमकर नंगा नाच।

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