Positive news

लोक संस्कृति को सहेजने में लगे हैं पंत

उत्तराखण्ड के पारंपरिक बाल गीतों को नई पीढ़ी तक पहुंचाने और पारम्परिक न्यौली और बाल गीतों को पहचान दिलाने तथा किताब कोतिक के जरिए रचनात्मक कार्यों को बढ़ाव दे रहे हैं हेम पंत

  • संजय चैहान

पहाड़ का लोक और यहां की लोकसंस्कृति अद्वितीय है। जो बरसों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती आई है। यहां के लोक में लोकगीत, लोककथाएं, लोकगाथाएं इस तरह से रची बसी है कि इनके बिना पहाड़ के लोक की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है। बदलते दौर में शनैः शनैः पहाड़ के लोक की पहचान ये सांस्कृतिक विरासतें लुप्त हो चली है। लेकिन इन सबके बीच लोक संस्कृतिकर्मी हेम पंत उत्तराखण्ड के पारम्परिक बाल गीतों को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। उन्होंने घुघूती बसुती सीरीज के जरिए कुमाऊं और गढ़वाल अंचल के बालगीतों का संकलन करके इसका पीडीएफ वर्जन तैयार किया है। जिन्हें डिजिटल माध्यम फेसबुक, वटसप, इंस्टाग्राम, ट्विटर सहित अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शेयर किया है ताकि युवा पीढ़ी इन बालगीतों को पढ़कर अपनी जडों से जुड़े और अपनी माटी थाती से लगाव बना रहें।

कौन है हेम पंत!

बेहद मिलनसार, मृदुभाषी, सामाजिक सरोकारों से जुड़े, लोक संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, लेखक और सदा पहाड़ को लेकर चिंतित रहने वाले युवा हेम पंत मूल रूप से उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद के भडकटिया गांव निवासी हैं। वे वर्तमान समय में ऊधमसिंह नगर जनपद के रुद्रपुर में एक डछब् कंपनी में ।ेेपेजंदज उंदंहमत के पद पर कार्यरत हैं। हेम पंत रुद्रपुर में ‘क्रिएटिव उत्तराखण्ड’ से भी जुड़े हुए हैं। उत्तराखण्ड में जहां भी पहाड़, पहाड़ के सरोकारों और संस्कृति को लेकर कुछ आयोजन हो रहा हो तो वहां आपको हेम पंत की उपस्थिति अवश्य दिखाई देगी। उन्होंने पहाड़ को जिया ही नहीं, बल्कि उनको आखरों में पिरोकर आने वाली पीढ़ी के लिए संजोकर रखा है। हेम पंत इससे पहले 250 न्योली गीतों का संकलन करके उनका पीडीएफ भी तैयार कर चुके हैं। न्योली गीत उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में गाये जाते हैं। जिनको उन्होंने डिजिटल माध्यम से लोगों तक पहुंचाया और लोगों ने इन्हें बेहद पसंद किया और हेम पंत व उनकी टीम के इस अभिनव पहल को बधाई भी दी। वहीं उन्होंने उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति व लोक को चरितार्थ करने वाले मोबाइल पोस्टर भी तैयार कर चुके हैं।

क्या हैं बाल गीत

घुघूती बासूति
आमा कां छ…?
खेत म छ
कि करन रे छ…?
घास काटन रे छ
घास को खालो…?
गोरू बाछि खालि
गोरू दुददू दे लो
भव्वा उकें पि लो

आज के दौर में मनोरंजन और समय व्यतीत करने के लिए बच्चों के पास बहुत सारे माध्यम हैं। टेलीविजन से लेकर मोबाइल, गैजेट सहित आधुनिक सुविधाओं से युक्त हर छोटी बडी चीज जिनके साथ वो खेलता है और अपना समय व्यतीत करता है। लेकिन आज से तीन दशक पहले ये सब कुछ नहीं था। बच्चों को उस समय उनके अभिभावक और अन्य लोग लोरी, बालगीतों, लोककथा, लोकगाथाओं को सुनाया करते थे। इन बालगीतों की कोई किताब नहीं होती थी और न ही किसी स्कूल में इन्हें पढाया जाता था, बल्कि ये बालगीत एक पीढ़ी द्वारा दूसरे पीढ़ी से आत्मसात करती थी जिससे ये एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती थी। इन बालगीतों को अक्सर घर के बड़े बुजुर्ग सुनाते थे। इन बालगीतों में यहां के लोकजीवन, लोक का रहन-सहन, रीति-रिवाज, तीज, त्योहार, पर्व, खानपान, वेशभूषा, भाषा, धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला, सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश होता था। समय के साथ साथ ये बालगीत भी लोक में कहीं खो से गए थे। हेम पंत व उनकी टीम नें इन बालगीतों का संकलन करके इन्हें संजीवनी प्रदान की है।

‘घुघूती बसुती’ सीरीज के जरिए उत्तराखण्ड के पारम्परिक बाल गीतों को संकलित करनें वाले रचनात्मक गतिविधियों के धनी लोक संस्कृतिकर्मी और रंगकर्मी हेम पंत जी से लंबी गुफ्तगु हुई। बकौल हेम पंत, आज की युवा पीढ़ी हमारे इन पारम्परिक बालगीतों से अनजान हैं, जबकि इन बालगीतों के जरिए न केवल बच्चों का बौद्धिक विकास होता है अपितु अपने जड़ो से भी जुड़ाव होता है। हमें अपनी बोली, भाषा, रीति रिवाज, लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन हेतु प्रयास करने होंगे। हमारी पहचान ही हमारी सांस्कृतिक विरासत है। मैंने न्योली गीत के बाद उत्तराखण्ड के पारंपरिक बाल गीतों को संकलित करके पीडीएफ वर्जन तैयार किया है और इसे डिजिटल माध्यम के जरिए अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है। क्योंकि आज हर कोई डिजिटल माध्यम से जुडा हुआ है और बेहद कम समय में अधिक से अधिक लोगों तक इस माध्यम से जुडा जा सकता है। मुझे खुशी है कि लोगों को न्योली गीतों के पीडीएफ संकलन के बाद घुघूती बसुती सीरीज भाग एक का पीडीएफ संकलन बेहद पसंद आ रही है। मेरी पूरी टीम के अथक प्रयासों से ही ये संभव हो पाया है।

किताब कौतिक के जरिए उत्तराखण्ड में रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा दे रहे हैं हेम पंत..

उत्तराखण्ड में ‘पढ़ने लिखने की संस्कृति’ को बढ़ावा देने और राज्य के अनछुए पर्यटक स्थलों के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करने के विचार के साथ हेम पंत और कुछ रचनात्मक युवाओं ने साल 2022 के अंतिम दिनों में एक अनूठा प्रयोग किया। ‘किताब कौतिक’ के नाम से शुरू किया गया यह प्रयोग अब एक अभियान का रूप ले चुका है। 24 और 25 दिसम्बर 2022 को चम्पावत जिले के छोटे से कस्बे टनकपुर में ‘किताब कौतिक’ का यह विचार धरातल पर उतरा और पूरे देश में चर्चित हो गया। अभी तक ‘किताब कौतिक’ के 12 सफल आयोजन हो चुके हैं। सभी ‘किताब कौतिक’ कार्यक्रमों में 3 दिन के दौरान 50 हजार से अधिक किताबों के साथ ‘साहित्य, शिक्षा, संस्कृति और स्थानीय पर्यटन’ पर केंद्रित विभिन्न कार्यक्रम आयोजित होते हैं। एक अनुमान है कि अब तक 90 हजार से अधिक बच्चे, युवा और साहित्यप्रेमी ‘किताब कौतिक’ का हिस्सा बन चुके हैं। किताब कौतिक में देशभर से आए हुए साहित्यकार, सामाजिक चिंतक, कलाकार और प्रकाशकों से स्थानीय लोगों की सीधी बातचीत का मौका मिलता है। इन अनुभवों से उभरते हुए लेखकों को प्रेरणा और उचित मार्गदर्शन मिलता है। रंगकर्मी, खिलाड़ी, वन्यजीव विशेषज्ञ, हस्तशिल्प कलाकार, वैज्ञानिक और प्रसिद्ध लेखक स्कूलों में जाकर छात्र-छात्राओं से बातचीत करते हैं और रूचि के अनुसार कैरियर चुनने के लिए सलाह भी देते हैं। हर ‘किताब कौतिक’ में लगभग 60 प्रकाशकों की 50 हजार से अधिक किताबें स्टाॅल्स में प्रदर्शनी और बिक्री के लिए उपलब्ध होती हैं। दूसरी तरफ मंच पर छोटे बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम और साहित्यिक परिचर्चाएं लगातार चलती हैं। आयोजन स्थल पर ही बच्चों के लिए रंगमंच गतिविधियां, क्विज, ऐपण प्रतियोगिता, पेंटिंग प्रतियोगिता, कविता वाचन आदि भी निर्धारित कार्यक्रमानुसार होते हैं। इस बहुआयामी कार्यक्रम में विश्वसाहित्य, बालसाहित्य, विज्ञान, धार्मिक-आध्यात्मिक और लोकप्रिय साहित्य के साथ साहसिक पर्यटन, हस्तशिल्प कलाकार, विज्ञान कोना और स्वयं सहायता समूहों के स्टाॅल में भी रुचि दिखाते हैं। सायंकालीन सत्र में उत्तराखण्ड के परंपरागत लोकगीतों पर स्थानीय और बाहर से आए प्रसिद्ध कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं। ऐसे समय में जब पूरे विश्व में इंटरनेट और गैजैट्स के कारण अखबार, किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने वाले कम होते जा रहे हैं, ‘किताब कौतिक अभियान’ लेखक, प्रकाशक और पाठकों को बड़े स्तर पर एक मंच पर लाने में सफल हो रहा है। छोटे शहरों में भी ‘किताब कौतिक’ के दौरान जुटने वाली हजारों की भीड़ और किताबों की बिक्री भी आयोजन की सार्थकता को साबित करते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि उत्तराखण्ड से उपजा यह अनूठा विचार जल्दी ही व्यापक रूप लेगा। वास्तव में देखा जाए तो हेम पंत जैसे युवाओं की वजह से ही आज हमारी सांस्कृतिक विरासत को नयी पहचान मिल रही है।

You may also like

MERA DDDD DDD DD